—गणिनी ज्ञानमती माताजी
(बीसवीं सदी के प्रथमाचार्य चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज के प्रथम शिष्य एवं प्रथम पट्टाचार्य श्री वीरसागर जी महाराज की आज्ञानुसार एवं उनके शिष्य प्रतिष्ठाचार्य ब्र. सूरजमल जी के विधि-विधान अनुष्ठान अनुसार)
(१) प्रतिष्ठाग्रंथ एक किन्हीं का विरचित ही लेना चाहिए। संकलित-वर्तमान साधु या विद्वानों का संकलित न हो।
प्रथमाचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज की परम्परा में एवं अंकलीकर आचार्यों की परम्परा में भी तथा दक्षिण में भी सर्वमान्य प्रमाणीक ‘प्रतिष्ठातिलक ग्रंथ’ सर्वांगीण है। उसी से प्रतिष्ठा विधि कराना चाहिए।
(२) मलमास-१५ दिसम्बर से १५ जनवरी तक क्या प्रतिष्ठा के मुहूर्त होते हैं ? दक्षिण में सायन संक्रांति हो जाने से प्रतिष्ठाएँ होती हैं।
(३) सरस्वती वंदना में किसी बालिका को सरस्वती बनाकर वंदना नहीं कराना चाहिए, प्रत्युत सरस्वती की प्रतिमा और जिनवाणी या सरस्वती यंत्र विराजमान करके वंदना कराना चाहिए।
(४) महिलाओं को कंकण बायें हाथ में ही बांधना है।
(५) प्रतिमा की प्रशस्ति में, पोस्टर, कुम्कुम पत्रिका, फोल्डर आदि में तिथि व वीरनिर्वाण संवत् पहले देना है। आजकल बहुत सी पत्रिकाओं में केवल तारीख दे देते हैं, यह भारतीय परम्परा व जैन परम्परा से गलत है। चूँकि यहीं के तिथि व महिनों के अनुसार ही स्वर्गों में इन्द्रगण नंदीश्वर पर्व आदि मनाते हैं, ऐसा षट्खण्डागम ग्रंथ में आया है।
(६) जैन ग्रंथों के अनुसार ६ घड़ी उदयातिथि को ही लेना चाहिए, प्रभात में ५ घड़ी तक की विधि मान्य नहीं है। व्रतों के लिए ‘‘व्रततिथि निर्णय’’ पुस्तक अवश्य पढ़ें तथा दीपावली के दिन लक्ष्मी पूजा के लिए भगवान के निर्वाणलाडू के पहले दिन मुहूर्त नहीं देना चाहिए। चूँकि भगवान महावीर स्वामी कार्तिक कृ. अमावस्या को मोक्ष गये। उसी दिन सायं गौतम स्वामी को केवलज्ञान हुआ है। इसी उपलक्ष्य में गणेश—गणधर देव व लक्ष्मी—केवलज्ञान लक्ष्मी की पूजा होती है।
(७) मंदिर आदि के शिलान्यास में खनन विधि का मुहूर्त अधोमुख नक्षत्र में एवं शिलान्यास का मुहूर्त ऊर्ध्वमुख नक्षत्र में ही देना चाहिए। ऐसा प्रतिष्ठाग्रंथ आदि सभी ग्रंथों में वर्णन है।
(८) प्रतिष्ठाचार्य व यजमान सज्जातीय हों-विधवा विवाह, पुनर्विवाह, विजातीय विवाह आदि सहित या उनकी संतान न हों। यज्ञोपवीत लेकर ही अभिषेक, अनुष्ठान व आहारदान देने योग्य होते हैं।
(९) भद्रकुंभ-मटकी में माता की स्थापना करके चारों तरफ आठ पाटे पर कमल आदि बनाकर कलश स्थापना करके उसमें ८ दिक्कुमारी—श्री, ह्री आदि देवियों के मंत्रों से स्थापना-पूजा आदि करना है।
उस समय बालिकाओं को नहीं खड़ी करना। पूजा होने के बाद बालिकाओं को एक साथ खड़ी करके पुष्पांजलि क्षेपण कर देना है।
(१०) भद्रकुंभ के सामने तीर्थंकर माता की पूजा करने में जो माता-पिता बनाये गये हैं, उन माता को उनके पास बिठाकर उनकी पूजा नहीं करना, अनंतर उन माता पर ‘माता मरुदेवी भव’ आदि बोलकर मंत्रपूर्वक पुष्पांजलि क्षेपण कर देना चाहिए।
(११) वेदी में यदि बड़ी स्थिर प्रतिमा विराजमान हैं उनकी प्रतिष्ठा करना है तो उन पर छिद्र सहित कुंभ लटकाया जाता है, ऊपर बांधा जाता है। यह क्रिया भी चैनल में व बाहर में नहीं दिखाना चाहिए। यह अंतरंग क्रिया है।
(१२) भद्रकुंभ में श्री, ह्री आदि देवियों से मंत्र पढ़ते हुए जो जल डलवाया जाता है, यह भी अंतरंग क्रिया है। इस क्रिया को पर्दे में ही कराना है। चैनल में नहीं दिखाना हैं अर्थात् यह गर्भशोधन क्रिया अंतरंग क्रिया ही है।
(१३) अनंतर जो माता-पिता बने हैं। उन माता को स्वप्न दिखाना आदि, उनकी बालिकाओं द्वारा सेवा कराना, स्वप्न के फल पति से पूछना। देवियों के माता से प्रश्नोत्तर, इन्हें विस्तार से मंच पर दिखलाना चाहिए।
(१४) गर्भ में भगवान आ गये हैं। इसको दिखाने के लिए इंद्रों का आगमन, वाद्य बजाना। गर्भावतार में इंद्र द्वारा माता-पिता का सम्मान भेंट आदि देना, दिखाना चाहिए।
विशेष—प्राय: अन्य अनावश्यक क्रियाओं में समय अधिक निकाल देने से यह माता-पिता के प्रश्नोत्तर, माता से देवियों के प्रश्नोत्तर आदि गौण हो जाते हैं या नहीं दिखाये जा पाते हैं। यह विषय दिखाने के लिए पहले से ही समय की सीमा बना लेना चाहिए।
(१५) जन्मकल्याणक में तीर्थंकर का नामकरण इंद्र सुमेरु पर करता है। पुन: इन्द्राणी जिनबालक को वस्त्र पहनाकर तिलक व अलंकार तथा काजल आदि लगाकर लाती हैं। अत: ‘नामकरण’ के लिए तीर्थंकर के ‘बुआ’ की बोली करना, बुआ से नाम रखाना या बुआ से काजल लगवाना यह श्वेताम्बर परम्परा है। यह दिगम्बर जैन ग्रंथों से विरुद्ध है। ऐसा नहीं करना चाहिए।
विशेष—बोली से धन—द्रव्य की व्यवस्था में अन्य और बोली के साधन बनाना चाहिए। जैसे बालक से क्रीड़ा में तथा बालक, कुमार अवस्था को प्राप्त हुए तो उनके साथ सभा कराने में—प्रश्नोत्तर कराने में विषय बढ़ाना चाहिए, इन विषयों से रोचकता लाना चाहिए।
(१६) तीर्थंकर को देव या नाथ ही कहना चाहिए। जैसे कि—ऋषभदेव, अजितनाथ, शांतिनाथ आदि। ऋषभकुमार, अजितकुमार, शांतिकुमार आदि नहीं कहना चाहिए। तीर्थंकर बालक जन्म से क्या गर्भ से ही भगवान हैं। उनके नाम नहीं बिगाड़ना चाहिए। देखें—आदिपुराण पृ. २९०, ३०१, ३५२, ३६२ आदि।
(१७) जन्माभिषेक में यद्यपि पूर्ण शुद्धि की बात नहीं है फिर भी पांडुकशिला पर तीर्थंकर बालक का जन्माभिषेक करने वाले पुरुष धोती-दुपट्टे में ही हों, पैंट, कोट आदि कपड़ों में न हों तथा महिलाएँ साड़ी पहने हों, सलवार, कुर्ते आदि की वेशभूषा में न हों क्योंकि अभिषेक की वेषभूषा निर्धारित है।
(१८) आकार शुद्धि विधि में लिखित विधि अनुसार वस्तुएँ कलशों में अवश्य डालना चाहिए पुन: कलशों को यथास्थान स्थापित करके नम्बर डालकर उसी ग्रंथ में कथित विधि के अनुसार ही कलश उठाना व अभिषेक करना चाहिए।
(१९) जन्मजयंती में—ऋषभदेव जयंती, महावीर जयंती आदि में पाँच कल्याणक से प्रतिष्ठित प्रतिमा का पालना नहीं झुलाना। दो कल्याणक की मूर्ति को झुलाना या अप्रतिष्ठित प्रतिमा को झुलाना। प्लास्टिक का खिलौना कभी नहीं झुलाना है।
(२०) प्रतिष्ठा ग्रंथ आदि किन्हीं ग्रंथों के किसी भी पाठ को बदलना या बढ़ाना या घटाना नहीं चाहिए। जिनवाणी के एक भी अक्षर में परिवर्तन-परिवर्धन नरक निगोद का कारण है, ऐसा श्री वीरसागर आचार्यवर्य कहा करते थे।
(२१) तीर्थंकर भगवान को दीक्षा लेने के बाद ‘सागर’ नहीं कहना। तीर्थंकर जन्म से भगवान हैं, दीक्षा के बाद उनके नाम नहीं बदलते हैं। प्राचीन समय में श्री गौतमस्वामी, श्री कुंदकुंददेव, श्री उमास्वामी आदि के वे ही नाम रहे हैं, बदले नहीं गये हैं। ‘सागर’, ‘नंदि’ आदि की परम्परा वर्तमान में है। तीर्थंकर की दीक्षा में नाम नहीं बदलना है।
(२२) पिच्छी-कमण्डलु देते समय ‘पिच्छिकां स्थापयामि’ कमंडलुं स्थापयामि’ बोलना है।
पिच्छिकां गृहाण-गृहाण आदि नहीं बोलना चाहिए। ऐसा श्री वीरसागर आचार्य—प्रथम पट्टाचार्य गुरुदेव ने कहा था।
(२३) दीक्षाकल्याणक में ‘संस्कार मालारोपण’, अंकन्यास नहीं करना चाहिए। १. प्रतिष्ठातिलक, २. प्रतिष्ठासारोद्धार, ३. प्रतिष्ठाकल्प श्री अकलंकदेव कृत, ४. प्रतिष्ठाप्रदीप-पं. नाथूलाल जी कृत आदि में ये दोनों क्रियाएँ केवलज्ञानकल्याणक में ही हैं। ये क्रियाएँ आचार्य श्री वीरसागर जी व आचार्य श्री महावीरकीर्ति जी द्वारा सन् १९५७ के चातुर्मास में पूर्णतया निषिद्ध की गई थीं।
(२४) सप्तभंगी के मंत्रों के समय भगवान की प्रतिमा के मुख में पट्टी नहीं बांधना है। सामने सप्तधान के सात पुंज रखने का विधान प्रतिष्ठातिलक ग्रंथ में है।
(२५) प्रतिष्ठाविधि में केवलज्ञान में नाभितिलक विधि व नेत्रोन्मीलन विधि अंतरंग क्रिया है। चैनल आदि में नहीं दिखाना चाहिए।
(२६) समवसरण में भूत, पिशाच आदि देवों को विकृत नहीं बनाना चाहिए। ये सभी सुंदर रूप वाले हैं।
(२७) सुगंधित ताजे पुष्पों से जो ‘सज्जाति’ आदि मंत्रों से आराधना है, वह वैसी ही करना चाहिए।
(२८) यदि वैâलाशपर्वत या सम्मेदशिखर आदि बनाकर उस पर मोक्षकल्याणक विधि करायी है, तो मोक्ष जाने के बाद उसी पर कपूर नहीं जलाना चाहिए। प्रत्युत सामने ही स्थंडिल पर कपूर जलाना चाहिए।
(२९) केवलज्ञानकल्याणक में तथा प्रतिष्ठापूर्ति के बाद १००८ कलशों से बड़ा अभिषेक या कम से कम १०८ कलशों से अभिषेक कराना चाहिए।
(३०) वेदी शुद्धि, मंदिर शुद्धि, शिखरशुद्धि व कलशों की—स्वर्ण कलशारोहण के कलशों की शुद्धि ८१ कलशों से विधिवत् कराना चाहिए।
(३१) विधिवत् पूजामुख विधि, पंचामृत अभिषेक और अन्त्यविधि पूर्वक देवपूजा करने से श्रावकों की सामायिक हो जाती है। ऐसा अनेक ग्रंथों में वर्णित है। अत: विधिवत् पूजा करना चाहिए।
(३२) विधिवत्-कृतिकर्म पूर्वक सामायिक करने का विधान धवला, जयधवला, मूलाचार, चारित्रसार आदि ग्रंथों में है। इस विधि से सामायिक करने से योगाभ्यास एवं प्राणायाम भी सहज हो जाते हैं। इस विधि में अनेक बार उठना, बैठना, खड़े होकर विधि करना आदि क्रियाएँ हैं एवं श्वासोच्छ्वासपूर्वक कायोत्सर्ग किये जाते हैं।