जो इन्द्रियों और मन की सहायता के बिना ज्ञान होता है, वह प्रत्यक्ष ज्ञान कहलाता है।
प्रत्यक्ष ज्ञान या प्रमाण दो प्रकार का है—सकलप्रत्यक्ष और देशप्रत्यक्ष। इसमें देश प्रत्यक्ष के दो भेद हैं—अवधिज्ञान एवं मन:पर्ययज्ञान।सर्वप्रत्यक्ष केवलज्ञान है। इसमें भवप्रत्यय और क्षयोपशम निमित्त के भेद से अवधिज्ञान दो प्रकार का है।
भवप्रत्यय अवधि ज्ञान—
भवप्रत्ययोऽवधिर्देवनारकाणाम्।
अर्थ—भव की मुख्यता के कारण जन्म से ही होने वाला अवधिज्ञान देव नारकी जीवों के होता है।
आयु और नाम कर्म के निमित्त से होने वाली जीव की पर्याय को भव कहते हैं। इस प्रकार भव ही जिसका निमित्त होता है उस अवधिज्ञान को भवप्रत्ययअवधि कहते हैं। देव और नारकियों के अवधिज्ञान का कारण भव होता है अत: देव—नारकियों के अवधिज्ञान को भवप्रत्यय अवधि कहते हैं।
जिस प्रकार पक्षियों के आकाशगमन का कारण भव होता है शिक्षा, गुण आदि नहीं, उसी प्रकार देव और नारकियों के अवधिज्ञान का प्रधान कारण भव ही है, क्षयोपशम गौण कारण है। अत: व्रत और नियम के न होने पर भी देव और नारकियों के अवधिज्ञान का प्रधान कारण भव ही है, क्षयोपशम गौण कारण है। अत: व्रत और नियम के न होने पर भी देव और नारकियों के अवधिज्ञान का कारण भव ही होता तो सबको समान अवधिज्ञान होना चाहिए, लेकिन देवों और नारकियों में अवधिज्ञान का प्रकर्ष और अप्रकर्ष देखा जाता है। यदि सामान्य से भव ही कारण हो तो एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय आदि जीवों को भी अवधिज्ञान होना चाहिए। अत: देवों और नारकियों के अवधिज्ञान का कारण भव ही नहीं है, किन्तु कर्म का क्षयोपशम भी कारण है। परन्तु अवधिज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम गौण वा साधारण है, असाधारण कारण भव है, क्योंकि देव—नारकियों के भव का निमित्त पाकर अवधिज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होता ही है।
सम्यग्दृष्टि देव और नारकियों के अवधि होता है और मिथ्यादृष्टियों के विभङ्गावधि।
क्षयोपशमनिमित्त: षड्विकल्प: शेषाणाम्।
अर्थ:—क्षयोपशम की सहायता से होने वाला अवधिज्ञान (नरक और देवगति को छोड़कर) मनुष्य और तिर्यंचों में होता है। इसके ६ भेद हैं— अनुगामी (जो जीव के साथ दूसरे भव में जावे), अननुगामी (जो जीव के साथ पर भव में न जावे), वर्धमान (विशुद्ध परिणाम होने पर जो बढ़ता रहे), हीयमान (जो आर्त्त और रौद्र परिणामों में वृद्धि के कारण घटता रहे) अवस्थित (जो घटे—बढ़े नहीं), अनवस्थित (जो बढ़ता घटता रहे)।
कर्म पुद्गल शक्तियों की क्रम से हानि और वृद्धि को स्पर्धक कहते हैं। अवधिज्ञानावरण कर्म के देशघाती स्पर्धकों का उदय होने पर उदयप्राप्त सर्वघाती स्पर्द्धकों का उदयाभावी क्षय और अनुदय प्राप्त सर्वघाती स्पर्द्धकों का सदवस्थारूप उपशम होने को क्षयोपशम कहते हैं। जिस अवधि का निमित्त क्षयोपशम है उसको क्षयोपशम निमित्त कहते हैं। क्षयोपशम के निमित्तक से होने वाले अवधिज्ञान के छह भेद हैं। यह क्षयोपशम निमित्तक अवधिज्ञान मनुष्य और तिर्यंचों के होता है। यह अवधिज्ञान संज्ञी पर्याप्तकों के ही होता है, सामर्थ्य का अभाव होने ने असंज्ञी और अपर्याप्तकों के अवधिज्ञान नहीं होता। संज्ञी पर्याप्तकों में भी सबके अवधिज्ञान नहीं होता किन्तु पूर्वोक्त सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र लक्षण कारणों का सन्निधान होने पर उपशान्त और क्षीण कर्म वाले जीवों के अवधिज्ञान होता है। अर्थात् अवधिज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होने पर भी होता है। यद्यपि अवधिज्ञान, अवधिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम के निमित्त से होता है तथापि सूत्र में क्षयोपशम पद का ग्रहण यह नियम करने के लिए किया है कि उक्त जीवों के अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम के निमित्त से ही अवधिज्ञान होता है, भव के निमित्त से नहीं।
यह अवधिज्ञान अनुगामी, अननुगामी, वर्धमान, हीयमान, अवस्थित और अनवस्थित के भेद से छह प्रकार का है। कोई अवधिज्ञान जैसे सूर्य का प्रकाश उसके साथ जाता है वैसे अपने स्वामी का अनुसरण करता है, उसे अनुगामी कहते हैं।।१।। कोई अवधिज्ञान अनुसरण नहीं करता किन्तु जैसे विमुख हुए पुरुष के प्रश्न के उत्तरस्वरूप पुरुष जो वचन कहता है वह वहीं छूट जाता है, विमुख पुरुष उसे ग्रहण नहीं करता, वैसे ही यह अवधिज्ञान भी वहीं पर छूट जाता है, भवान्तर में साथ नहीं जाता उसे अननुगामी कहते हैं।।२।। कोई अवधिज्ञान जंगल के निर्मन्थन से उत्पन्न हुई और सूखे पत्तों से उपचीयमान ईंधन के समुदाय से वृद्धि को प्राप्त हुई अग्नि के समान सम्यग्दर्शनादि गुणों की विशुद्धिरूप परिणामों के सन्निधानवश जितने परिणाम में उत्पन्न होता है, उससे असंख्यात लोक जानने की योग्यता होने तक बढ़ता जाता है उसे वर्धमान कहते हैं।।३।। कोई अवधिज्ञान परिमित उपादानसन्ततिवाली अग्निशिखा के समान सम्यग्दर्शनादि गुणों की हानि से हुए आर्त्त रौद्ररूप संक्लेश परिणामों के बढ़ने से जितने परिमाण में उत्पन्न होता है, उससे मात्र अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण जानने की योग्यता होने तक घटता चला जाता है, उसे हीयमान कहते है।।४।। कोई अवधिज्ञान सम्यग्दर्शनादि गुणों के समानरूप से स्थिर रहने के कारण जितने परिणाम में उत्पन्न होता है, उतना ही बना रहता है। पर्याय के नाश होने तक या केवलज्ञान के उत्पन्न होने तक शरीर में स्थ्िात मसा आदि चिह्र के समान न घटता है और न बढ़ता है,उसे अवस्थित कहते हैं।।५।। कोई अवधिज्ञान वायु के वेग से प्रेरित जल की तरंगों के समान सम्यग्दर्शनादि गुणों की कभी वृद्धि और कभी हानि होने से जितने परिमाण में उत्पन्न होता हे, उससे बढ़ता है जहाँ तक उसे बढ़ना चाहिए और घटता है जहाँ तक उसे घटना चाहिए, उसे अनवस्थित कहते है।।६।। ये छह भेद देशावधि के ही हैं। परमावधि और सर्वावधि चरमशरीरी विशिष्ट संयमी के ही होते हैं। इनमें हानि और वृद्धि नहीं होती है। गृहस्थावस्था में तीर्थंज्र्र के और देव तथा नारकियों के देशावधि ही होता है।
मन:पर्ययज्ञान के भेदों के साथ लक्षण—
ऋजुविपुलमती मन:पर्यय:।
अर्थ—मन:पर्यय ज्ञान के दो भेद हैं—ऋजुमति और विपुलमति।
दूसरे के मन को प्राप्त हुए वचन, काय और मनकृत अर्थ के विज्ञान से निवर्तित पुन: छूटने वाली सरलमति ऋजुमति कहलाती है। अर्थात् सरल मन, वचन, काय, कृत परकीय मनोगत अर्थ को जानने वाली ऋजुमति कहलाती है। दूसरे के मन को प्राप्त हुए वचन, काय और मनकृत अर्थ के विज्ञान से अनिवर्तित और वहीं स्थिर रहने वाली मति विपुलमति है। सरल और असरल इन दोनों को जानती है वह विपुलमति कहलाती है। ऋजु है मति जिस मन:पर्यय की वह ऋजुमति और विपुल है मति जिस मन:पर्यय की, वह विपुलमति मन:पर्ययज्ञान कहलाता है। यहाँ पर ऋजु—विपुलमति में पुंवद्भासित आनङ् प्रत्यय करके तुल्य अधिकरण में स्त्रीलिंग बनाया है। यहाँ पर एक ही मति शब्द पर्याप्त होने से दूसरे मति शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है। रूप में रूप प्रविष्ट हो जाता है, उसी प्रकार सरूपों के एक विभक्ति में एक शेष रह जाता है। अथवा ऋजु और विपुल शब्द का कर्मधारय समास करने के बाद इनका मति शब्द के साथ बहुब्रीहि समास कर लेना चाहिए। अर्थात् ऋजु—विपुलमति शब्द ऋजुमति और विपुलमति इन शब्दों से समासित होकर बना है। इस प्रकार यह मन:पर्ययज्ञान दो प्रकार का है—ऋजुमति मन:पर्यय और विपुलमति मन:पर्यय।
मन:पर्ययज्ञान का लक्षण—वीर्यान्तराय और मन:पर्यय ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम और अंगोपाङ्ग नाम कर्म के आलम्बन से आत्मा में जो दूसरे के मन के सम्बन्ध से उपयोग जन्म लेता है उसे मन:पर्ययज्ञान कहते हैं। श्रुतज्ञान के व्याख्यान के अवसर में श्रुतज्ञान के मति—आत्मकत्व का निषेध किया है, अर्थात् जैसे मतिज्ञान की अपेक्षा मात्र से श्रुतज्ञान मतिज्ञान नहीं है, उसीप्रकार मन की अपेक्षा मात्र होने से मन:पर्ययज्ञान मतिज्ञानात्मक है, ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए। मन:पर्ययज्ञान में दूसरे के मन की अपेक्षा मात्र है—इसलिए वह मतिज्ञान नहीं है। अर्थात् दूसरे के मन में स्थित अर्थ को जानता है, इतनी मात्र यहाँ मन की अपेक्षा है।
इनमें ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान काल की अपेक्षा जघन्य से अन्य जीवों के और अपने दो तीन भवों को ग्रहण करता है, गति—आगति को जानता है। उत्कृष्ट से सात आठ भवों का गति—आगति की अपेक्षा कथन करता है। क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य से गव्यूति पृथक्त्व और उत्कृष्ट से योजनापृथक्त्व के भीतर की बात जानता है, उसके बाहर की नहीं। विपुलमति मन:पर्ययज्ञान काल की अपेक्षा जघन्य से सात—आठ भवों को ग्रहण करता है, उत्कृष्ट से गति—आगति की अपेक्षा असंख्यात भवों का कथन करता है। क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य से योजनपृथक्त्व और उत्कृष्ट से मानुषोत्तर पर्वत के भीतर बात जानता है, इससे बाहर की बात नहीं जानता
ऋजुमती से विपुलमती में विशेषता-विशुद्ध्यप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषं।
अर्थ—विशुद्ध (आत्मा के परिणामों की निर्मलता ) और अप्रतिपात (संयम से पतित न होने के कारण) की अपेक्षा ऋजुमती से विपुलमति में विशेषता है।
मन:पर्ययज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होने पर जो आत्मा मेंं निर्मलता आती है, उसे विशुद्धि कहते है। संयम से च्युत होने को प्रतिपात कहते हैं, संयम से नहीं गिरने को अप्रतिपात कहते हैं। उस विशुद्धि और अप्रतिपात की अपेक्षा ऋजुमति और विपुलमति में विशेषता पाई जाती है। उनमें जैसे उपशान्त कषाय जीव का चारित्र मोहनीय के उदय से संयम शिखर छूट जाता है जिससे प्रतिपात होता है और क्षीणकषाय जीव के पतन का कारण न होने से प्रतिपात नहीं होता, उसी प्रकार ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान विपुलमति से विशुद्ध कम है और छूट जाता है—परन्तु विपुलमति नहीं छूटता है। इन दोनों की अपेक्षा ऋजुमति और विपुलमति में भेद है। ऋजुमति से विपुलमति द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा विशुद्धतर है।
यहाँ जो कार्माण द्रव्य का अनन्तवाँ अन्तिम भाग सर्वावधिज्ञान का विषय है उसके भी अनन्त भाग करने पर जो अन्तिम भाग प्राप्त होता है, वह ऋजुमति का विषय है और इस ऋजुमति के विषय के अनन्त भाग करने पर जो अन्तिम भाग प्राप्त होता है, वह विपुलमति का विषय है।
इस प्रकार सूक्ष्म द्रव्य के परिज्ञायक होने से विपुलमति ज्ञान की द्रव्य क्षेत्र काल की अपेक्षा विशुद्धि उत्कृष्ट होती है।भाव की अपेक्षा विशुद्धि उत्तरोत्तर सूक्ष्म द्रव्य को विषय करने वाला होने से ही भाव—शुद्धि जान लेनी चाहिए, क्योंकि इनका उत्तरोत्तर प्रकृष्ट क्षयोपशम पाया जाता है, इसलिए ऋजुमति से विपुलमति में विशुद्धि अधिक होती है। अप्रतिपात की अपेक्षा भी विपुलमति विशिष्ट है; क्योंकि इसके स्वामियाें के प्रवर्धमान चारित्र पाया जाता है। परन्तु ऋजुमति प्रतिपाती है; क्योंकि इसके स्वामियों के कषाय के उदय से घटता हुआ चारित्र पाया जाता है।
अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान में विभिन्न अपेक्षाओं से अन्तर—
विशुद्धिक्षेत्रस्वामिविषयेभ्योऽवधिमन:पर्यययो:।
अर्थ—अवधि और मन:पर्यय ज्ञान में विशुद्धि, क्षेत्र, स्वामी और विषय की अपेक्षा अन्तर है।
विशुद्धि का अर्थ निर्मलता है। जितने स्थान में स्थित भावों को जानता है, वह क्षेत्र है। स्वामी का अर्थ प्रयोक्ता है। विषय ज्ञेय को कहते हैं। इस प्रकार विशुद्धि, क्षेत्र, स्वामी, विषय इन चार की अपेक्षा से अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान में विशेषता पाई जाती है। सूक्ष्म वस्तु का विषय करने वाला (जाननेवाला) होने से अवधिज्ञान से मन:पर्ययज्ञान विशुद्धतर होता है। तीन लोक में स्थित पुद्गल पर्याय और तत्सम्बन्धी जीव पर्याय को जाननेवाला होनेसे अवधिज्ञान का क्षेत्र मन:पर्ययज्ञान की अपेक्षा अधिकतर है। मन:पर्ययज्ञान का क्षेत्र अल्प है—क्योंकि मन:पर्ययज्ञान उत्कृष्ट से मानुषोत्तर पर्वत के भीतरी भाग को जानता है, अवधिज्ञान का विषय (रूपिष्ववधे:) इस सूत्र में कहेंगे। मन:पर्ययज्ञान के विषय का (तदनन्तभागे मन:पर्ययस्य) इस सूत्र के द्वारा कथन करेंगे।
यहाँ स्वामी का विचार कहते हैं—मन:पर्ययज्ञान मनुष्यों में ही उत्पन्न होता है, देव—नारकी और तिर्यंचों में नहीं। मनुष्यों में गर्भज मनुष्यों के होता है, सम्मूर्च्छनों के नहीं। गर्भजों में कर्मभूमिया जीवों के ही मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न होता है, भोगभूमियों के नहीं। कर्मभूमि में भी पर्याप्तकों के ही मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न होता है, अपर्याप्तकों के नहीं। पर्याप्तकों में भी सम्यग्दृष्टियों के ही होता है, मिथ्यादृष्टि सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि आदि के नहीं। सम्यग्दृष्टियों में भी संयतों के होता है, असंयतों के नहीं। संयतो में भी छठे गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान तक होता है तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में नहीं; उनमें भी प्रवर्धमान चारित्र वालों के ही होता है, हीयमान—चारित्रवालों के नहीं। प्रवर्धमान चारित्रवालों में भी सात प्रकार की ऋद्धियों मेंं से किसी एक ऋद्धि के धारी के ही होता है, अनृद्धिधारी के नहीं। ऋृद्धिधारियों में भी किसी के ही होता है, सबके नहीं। अत: मन:पर्ययज्ञान के स्वामी विशिष्ट संयम वाले ही होते हैं। अवधिज्ञान चारों ही गतियों में होता है। इस प्रकार स्वामी के भेद से दोनों में विशेषता है।
मतिश्रुतयोर्निबन्धो द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु।
अर्थ—छह द्रव्यों (जीव, अजीव, धर्म, अधर्म आकाश और काल) की कुछ पर्यायों को जान लेना मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का विषय है।
मति और श्रुत का निबन्ध (विषय) मतिश्रुतनिबन्ध कहलाता है। अर्थात् विषय का निर्धारण, नियंत्रण, मतिश्रुत निबंध कहलाता है। अल्प पर्याय सहित जीव, धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल द्रव्यों में मतिश्रुतज्ञान की प्रवृत्ति है—अर्थात् मतिज्ञान और श्रुतज्ञान द्रव्यों की समस्त पर्यायों को नहीं जानते हैं किन्तु थोड़ी पर्यायों को जानते हैं।
रूपिष्ववधे:।
अर्थ—अवधिज्ञान का विषय मूर्त पदार्थ अथवा उससे संबंधित जीव की कुछ पर्यायों को जानना है।
यह सूत्र नियम के लिए है। इसका यह अर्थ है कि रूपी पुद्गलों में और पुद्गल सम्बन्धित जीव की कुछ पर्यायों को अवधिज्ञान विषय करता है।असर्वपर्याय का सम्बन्ध इस सूत्र में लगाना चाहिए। इसलिए यह अवधिज्ञान अपने योग्य पुद्गल द्रव्यों की अल्प पर्यायों को जानता है परन्तु पुद्गल की एवं कर्म सहित संसारी जीवों की अनन्त पर्यायों में अवधिज्ञान की प्रवृत्ति नहीं होती।
तदनंतभागे मन:पर्ययस्य।
अर्थ—सर्वावधि ज्ञान के द्वारा जाने गये द्रव्य के अनन्तवें भाग को मन:पर्यय ज्ञान जानता है।
उस सर्वावधिज्ञान के द्वारा जाने गये रूपी द्रव्य की पर्यायें है। उसका अनन्तवाँ भाग, मन:पर्ययज्ञान का विषय—निबन्ध होता है, सूक्ष्म विषय होने से। अर्थात् अवधिज्ञान की अपेक्षा मन:पर्ययज्ञान का विषय सूक्ष्म है। अत: अवधिज्ञान के विषय के अनन्तवें भाग में मन:पर्ययज्ञान की प्रवृत्ति होती है।
सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य।
अर्थ—केवलज्ञान का विषय समस्त द्रव्य और उनकी सम्पूर्ण पर्यायें हैं।
धर्म, अधर्म आदि सर्व द्रव्य और उन द्रव्यों की त्रिकालवर्ती सर्व पर्यायों को केवलज्ञान जानता है। जीव अनन्तानन्त हैं, जीव से अनन्तगुणे अणु—स्कन्ध भेद से युक्त पुद्गल द्रव्य हैं। धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये असंख्येय हैं। इन चारों की तीन काल सम्बन्धी पृथक्—पृथक् अनन्तानन्त पर्यायें हैं। उन सब द्रव्यों और उनकी सर्व त्रिकालवर्ती अनन्त पर्यायों को अनन्त महिमा वाला केवलज्ञान एक साथ जानता है।
एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्भ्य:।
अर्थ—एक जीव में एक साथ कम से कम एक और अधिक से अधिक चार ज्ञान हो सकते हैं।
एक अद्वितीय आदि अवयव जिनके हैं, उसको ‘एकादीनि’ कहते हैं। भाज्यानि का अर्थ है— योजना, जोड़ना, लगाना। युगपत् एक साथ—एकस्मिन्—एक आत्मा में चार ज्ञान हो सकते हैं एक जीव में पाँच ज्ञान एक साथ नहीं हो सकते। जब एक ज्ञान होगा तो केवलज्ञान होगा, क्योंकि क्षायिक केवलज्ञान के साथ क्षायोपशमिक शेष चार ज्ञान एक साथ नहीं हो सकते । यदि दो ज्ञान एक साथ होंगे तो मति और श्रुत। जब तीन ज्ञान एक साथ होंगे तो मति, श्रुत, अवधि या मति, श्रुत और मन:पर्यय। जब एक साथ चार होते हैं तो मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मन:पर्यय ये चार होते हैं।
मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च।
अर्थ—मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान ये विपरीत भी होते हैं। (मिथ्यादर्शन के उदय से ये ज्ञान मिथ्याज्ञान के द्वारा जीव पदार्थों को विपरीत रूप से जानता है)।
मिथ्यादर्शन के उदय से ये ज्ञान मिथ्याज्ञान कहलाते हैंं ‘च’ कार शब्द से सम्यग्ज्ञान भी होते हैं। सम्यग् शब्द आदि में ‘‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:’’ इस सूत्र में कहा है। वहाँ से सम्यग् शब्द को ग्रहण करना चाहिए। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान सम्यग्ज्ञान होते हैं, ऐसा सम्बन्ध लगाना चाहिए। अत: सम्यग्ज्ञान है, इससे विपरीत विपर्य्यय होता है। मिथ्याज्ञान अज्ञानरूप होता है। जैसे कड़वी तुम्बी में रखने से दूध कटु हो जाता है, उसीप्रकार मिथ्यादर्शन के संसर्ग से इन ज्ञानों में विपरीतता आ जाती है। यहाँ पर शुष्क तुम्बी के मध्यगत बीजों के निकल जाने पर जो अवशिष्ट (शेष बची) बुक्किका होती है, उसको रज कहते हैं। यदि उस रज सहित तुम्बिका में दूध रखा जाता है तो वह दूध कटु हो जाता है। यदि उस तुम्बिका को संशोधित कर लिया है, रज को निकाल कर फेंक दिया है तो उसमें रखे हुए दूध, घृत आदि पदार्थ कटु नहीं होते हैं, उसी प्रकार मिथ्यादर्शन के नष्ट हो जाने पर जीव में मति आदि ज्ञान मिथ्याज्ञान नहीं होते ।
सदसतोरविशेषाद्यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत्।
अर्थ—विद्यमान और विद्यमान पदार्थ को विशेषता के बिना अपनी इच्छानुसार जानने के कारण मिथ्यादृष्टि का ज्ञान उन्मत्त अर्थात् पागल पुरâष के ज्ञान की तरह है।
सत् (प्रशस्त) तत्त्वज्ञान, असत्—अप्रशस्त तत्त्वज्ञान को सत्—असत् कहते हैं। तत्त्व और अतत्त्व का निर्णय न करके स्वेच्छा से जो ग्रहण होता है, जैसे उन्मत्त मानव सत्—असत् का निर्णय न करके इच्छानुसार कुछ भी बकवास करता है वैसे ही मिथ्यादृष्टि कुछ भी बोलता है, तत्त्व—अतत्त्व का भेद नहीं कर सकता।
सत् और असत् सम्बन्धी विशेषता न करके यदृच्छा से ग्रहण करने से विपर्यय होता है। कदाचित् रूपादिक विद्यमान है तो भी उन्हें अविद्यमान मानता है और कदाचित् अविद्यमान वस्तु को भी विद्यमान कहता है। कदाचित् सत् को सत् और असत् को असत् ही मानता है। यह सब निश्चय मिथ्यादर्शन के उदय से होता है। जैसे पित्त के उदय से आकुलित बुद्धिवाला मनुष्य माता को भार्या और भार्या को माता मानता है। जब अपनी इच्छा की लहर के अनुसार माता को माता और भार्या को भार्या भी मानता है। घोड़े को गाय और गाय को घोड़ा मानता है। कभी अश्व को अश्व और गाय को गाय भी मानता है। तब भी वह ज्ञान सम्यग्ज्ञान नहीं है। इस प्रकार मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान का भी रूपादिक में विपर्यय जानना चाहिए।