जो ज्ञान आत्मा से ही उत्पन्न होता है उसे पारमार्थिक या मुख्य प्रत्यक्ष कहते हैं। पारमार्थिक प्रत्यक्ष या मुख्य प्रत्यक्ष सम्पूर्ण रूप से विशद होता है; क्योंकि यह आत्मनैर्मल्य से उत्पन्न होता है। इसमें सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष की भाँति इन्द्रिय और मन के व्यापार की आवश्यकता नहीं होती किन्तु यह आत्मस्वरूप से उत्पन्न होता है। इसी कारण इसे मुख्य प्रत्यक्ष भी कहते हैं। सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष इन्द्रियजन्य और मनोजन्य होने के कारण वस्तुत: परोक्ष है किन्तु लोक में जैनेतर दर्शन उसे प्रत्यक्ष मानते हैं अत: लोकव्यवहार के अनुरोध से जैनदर्शन ने उसे भी प्रत्यक्ष माना है। पारमार्थिक प्रत्यक्ष दो प्रकार का है—१. विकल प्रत्यक्ष और २. सकल प्रत्यक्ष।
१. विकल प्रत्यक्ष—जो वस्तुत: प्रत्यक्ष हो किन्तु विकल अर्थात् अधूरा या अपूर्ण हो उसे विकल प्रत्यक्ष कहते हैं। विकलप्रत्यक्ष भी दो प्रकार का है—(१) अवधिज्ञान और २. मन:पर्ययज्ञान।
(१) अवधिज्ञान—द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से जिसके विषय की सीमा हो उसको अवधिज्ञान कहते हैं। इसी कारण से आगम में इसको सीमाज्ञान कहा गया है। इसके दो भेद हैं—१. भवप्रत्यय और २. गुणप्रत्यय। यह ज्ञान इन्द्रियों की सहायता के बिना ही पुद्गलादि रूपी पदार्थों को द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादा लिए हुए एकदेश स्पष्ट जानता है। आत्मा आदि अरूपी द्रव्यों को नहीं जानता है। भवप्रत्यय अवधिज्ञान देव और नरक भव (पर्याय) के कारण उत्पन्न होता है अतएव यह देव और नारकियों के होता है तथा तीर्थंकरों के भी होता है और यह सम्पूर्ण अंगों से उत्पन्न होता है और मनुष्य तथा तिर्यंचों के होता है। इसमें अवधिज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम निमित्त होता है। यह नाभि के ऊपर शंख, पद्म, वङ्का, स्वस्तिक, कलश आदि जो शुभ चिह्न होते हैं उस जगह के आत्मप्रदेशों में होता है। भव प्रत्यय अवधिज्ञान सम्पूर्ण आत्मप्रदेशों से होता है। गुण प्रत्यय या क्षयोपशमनिमित्तक अवधिज्ञान अनुगामी आदि के भेद से छह प्रकार का होता है। अवधिज्ञान के देशावधि, परमावधि और सर्वावधि ये तीन भेद भी किये गये हैं। भवप्रत्यय अवधि नियम से देशावधि ही होता है और दर्शनविशुद्धि आदि गुणों के निमित्त से होने वाला गुणप्रत्यय अवधिज्ञान देशावधि, परमावधि और सर्वावधि इस तरह तीनों प्रकार का होता है। देशावधि ज्ञान संयत तथा असंयत दोनों प्रकार के मनुष्य और तिर्यंचों के होता है। उत्कृष्ट देशावधि ज्ञान संयत जीवों के ही होता है किन्तु परमावधि और सर्वावधि चरमशरीरी (उसी भव से मोक्ष जाने वाले) तथा महाव्रती मुनिराज के ही होता है। देशावधि ज्ञान प्रतिपाती होता है अर्थात् केवलज्ञान उत्पन्न होने के पहले ही छूट जाता है परन्तु सर्वावधि और परमावधि अप्रतिपाती होते हैं। अवधिज्ञान सूक्ष्म रूप से एक परमाणु को विषय करता है।
(२) मन:पर्ययज्ञान—जो किसी की सहायता के बिना ही अन्य पुरुष के मन में स्थित रूपी पदार्थों को एकदेश स्पष्ट जानता है उसे मन:पर्ययज्ञान कहते हैं। यह ज्ञान भूतकाल में चिन्तवन किये गये अथवा जिसका भविष्यत् काल में चिन्तवन किया जाएगा अथवा वर्तमान में जिसका चिन्तवन किया जा रहा है इत्यादि अनेक भेद स्वरूप दूसरे के मन में स्थित पदार्थ को एकदेश स्पष्ट जानता है। मन का कार्य चिन्तन करना है अत: मन के चिन्तन की जितनी भी पर्याय या अवस्थाएँ होती हैं उनको मन:पर्ययज्ञानी जान लेता है इसीलिए इस ज्ञान को मन:पर्यय कहा गया है। मन:पर्ययज्ञान ऋजुमति और विपुलमति के भेद से दो प्रकार का है। ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान मन, वचन और काय की सरलता से चिन्तित, दूसरे के मन में स्थित पदार्थ को जान लेता है तथा विपुलमति मन:पर्ययज्ञान सरल तथा जटिल रूप से पर के मन में स्थित पदार्थ को जानता है। ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान वर्तमान में जिसका चिन्तन किया जा रहा है ऐसे पदार्थ को जानता है और विपुलमति ज्ञान भूत, भविष्यत् तथा वर्तमान में चिन्तित पदार्थ को भी जानता है। ऋजुमति की अपेक्षा विपुलमति में आत्मा के भावों की शुद्धता अधिक होती है तथा ऋजुमति होकर छूट भी जाता है पर विपुलमति केवलज्ञान के पहले नहीं छूटता। अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान में विशुद्धि, क्षेत्र, स्वामी और विषय की अपेक्षा विशेषता होती है अर्थात् अवधिज्ञान की अपेक्षा मन:पर्ययज्ञान में अधिक विशुद्धता पाई जाती है, क्षेत्र भी अधिक होता है। स्वामी की अपेक्षा मन:पर्ययज्ञान उत्तम ऋद्धिधारी मुनियों के ही होता है पर अवधिज्ञान चारों गतियों के जीवों के हो सकता है और मन:पर्ययज्ञान का विषय भी अधिक सूक्ष्म होता है।
२, सकलप्रत्यक्ष—जो सम्पूर्ण हो अर्थात् जो ज्ञान समस्त पदार्थों और उनकी त्रिकालवर्ती समस्त पर्यायों को एक ही समय में एक ही साथ जानता है उसे सकल प्रत्यक्ष कहते हैं। यह सकल प्रत्यक्ष केवलज्ञान रूप है। जो ज्ञान सब द्रव्यों तथा उनकी सब त्रैकालिक पर्यायों को एक साथ स्पष्ट जानता है वह केवलज्ञान कहलाता है। यह केवलज्ञान सम्पूर्ण, समग्र, केवल, प्रतिपक्षरहित, सर्व पदार्थगत और लोकालोक में अन्धकार रहित होता है। यह ज्ञान आत्ममात्र सापेक्ष होता है अर्थात् आत्मा की पूर्ण विशुद्धता होने पर यह ज्ञान प्रकट होता है। इसमें इन्द्रिय आदि की अपेक्षा नहीं होती है। यह पूर्णत: निर्मल और अतीन्द्रिय ज्ञान है। यह कर्मों के क्षय से होता है। इसको प्राप्त करने वाला महापुरुष केवली या सर्वज्ञ कहलाता है। जिस महापुरुष को सर्वज्ञता प्राप्त हो जाती है वह पूर्ण ज्ञाता हो जाता है।
जैनदर्शन में सर्वज्ञता का विशिष्ट स्थान है किन्तु चार्वाक और मीमांसक ये दो ही दर्शन ऐसे हैं जो सर्वज्ञता को स्वीकार नहीं करते, शेष सभी भारतीय दर्शन सर्वज्ञता को सप्रमाण स्वीकार करते हैं। जैन दार्शनिक और आगम ग्रंथों में सर्वज्ञता का विस्तृत विवेचन किया गया है। सर्वप्रथम आचार्य श्री कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार के ज्ञानतत्त्व—प्रज्ञापनाधिकार में विश्लेषणात्मक ढंग से सर्वज्ञता की सिद्धि की है। इसके पश्चात् इनके उत्तरवर्ती महान् दार्शनिक आचार्य श्री समन्तभद्र, सिद्धसेन, अकलंक, हरिभद्र, विद्यानन्दि आदि ने अनेक पुष्ट प्रमाणों और तर्कों के आधार पर सर्वज्ञसिद्धि की है। मीमांसा दर्शन के लिए तो सर्वज्ञता का विषय बहुत ही विवादास्पद रहा है। इस दर्शन ने सर्वज्ञता के निषेध में अनेक तर्क प्रस्तुत किये हैं; किन्तु जैन दार्शनिकों ने उन तर्कों का खण्डन बड़ी युक्तियों से करते हुए सर्वज्ञता की सिद्धि में अपनी विशेष प्रतिभा का परिचय दिया है।
अस्पष्ट अथवा अविशद ज्ञान को परोक्ष कहते हैं। जिस ज्ञान में इन्द्रिय, मन, प्रकाशादि पर साधनों की अपेक्षा रहती है वह परोक्ष कहलाता है। वास्तव में जो ज्ञान स्व-पर प्रकाशक या स्व-पर का निश्चायक होते हुए भी अस्पष्ट होता है उसे परोक्ष प्रमाण कहा गया है।
जैनदर्शन में जिस इन्द्रिय सापेक्ष ज्ञान को परोक्ष कहा गया है उस ज्ञान को जैनेतर दर्शनों में अथवा लोक में प्रत्यक्ष कहा गया है और जिस इन्द्रिय निरपेक्ष या इन्द्रिय व्यापार रहित ज्ञान को जैनदर्शन में प्रत्यक्ष कहा गया है उस ज्ञान को जैनेतर दर्शनों में अथवा लोक में परोक्ष कहा गया है। वस्तुत: ‘परोक्ष’ शब्द से तो यही अर्थ प्रतीत होता है कि जो ज्ञान इन्द्रियादि पर की अपेक्षा से होता है वह परोक्ष प्रमाण है। इस विषय का समन्वयात्मक विश्लेषण आचार्य श्री अकलंक देव ने अपने ही ढंग से किया है।
परोक्ष प्रमाण के पाँच भेद हैं—स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम।
१. स्मृति—संस्कार का उद्बोध होने पर स्मृति उत्पन्न होती है अर्थात् धारणा रूप संस्कार के जागृत होने पर स्मृति ज्ञान उत्पन्न होता है। यह ज्ञान किसी भी प्रमाण से पहले जाने हुए पदार्थ को ही जानता है और तत् (वह) इस प्रकार से उसका उल्लेख किया जाता है। मतलब यह है कि धारणा नाम के संस्कार से होने वाले और ‘तत्’ (वह) इस प्रकार से उल्लेखी ज्ञान को स्मृति कहते हैं। जैसे—वह देवदत्त। किसी व्यक्ति ने पहले देवदत्त नामक व्यक्ति को देखा और उसने उसके सम्बन्ध में धारणा कर ली। बाद में धारणा रूप संस्कार उद्बुद्ध हुआ और उसे स्मरण आया कि वह देवदत्त है। इस प्रकार पहले जानी हुई वस्तु के स्मरण को स्मृति कहते हैं। यद्यपि स्मरण का विषयभूत पदार्थ सामने नहीं है, फिर भी वह हमारे पूर्व अनुभव का विषय तो था ही और उस अनुभव का दृढ़ संस्कार हमें सादृश्य आदि अनेक निमित्तों से उस पदार्थ को मन में अंकित कर देता है। स्मरण के कारण ही समस्त लोक व्यवहार चलता है।
बौद्ध, मीमांसकादि दर्शन स्मृतिज्ञान को प्रमाण नहीं मानते। उनका कथन है कि गृहीतग्राही और अर्थ से अनुत्पन्न होने के कारण स्मृतिज्ञान प्रमाण नहीं है पर उनकी यह मान्यता लोक व्यवहार में बाधक है तथा स्मृति को प्रमाण माने बिना अनुमान प्रमाण भी नहीं बनेगा क्योंकि वह व्याप्ति के स्मरण से उत्पन्न होता है। लेन—देन आदि के लौकिक व्यवहार भी स्मृति की प्रमाणता के बिना बिगड़ जाएँगे अत: स्मृति की प्रमाणता स्वत: सिद्ध है।
२. प्रत्यभिज्ञान—प्रत्यक्ष और स्मरण की सहायता से जो संकलनात्मक या जोड़रूप ज्ञान होता है उसे प्रत्यभिज्ञान कहते हैं। जैसे—यह वही देवदत्त है, गवय गौ के समान होता है, भैंस गौ से विलक्षण होती है, यह उससे दूर है, इत्यादि जितने भी इस तरह के जोड़ रूप ज्ञान होते हैं वे सब प्रत्यभिज्ञान हैं। इन उदाहरणों का स्पष्टीकरण इस प्रकार है—सामने देवदत्त को देखकर पहले देखे हुए देवदत्त का स्मरण आने से यह ज्ञान होता है कि यह वही देवदत्त है। इस ज्ञान के होने में प्रत्यक्ष और स्मरण दोनों कारण होते हैं तथा यह ज्ञान पहले देखे हुए देवदत्त में और वर्तमान में सामने विद्यमान देवदत्त में रहने वाले एकत्व को विषय करता है इसलिए इसे एकत्व प्रत्यभिज्ञान कहते हैं। किसी मनुष्य ने गवय नाम का पशु देखा, देखते ही उसे पहले देखी हुई गौ का स्मरण हुआ, इसके पश्चात् ‘गौ के समान यह गवय है’ ऐसा ज्ञान होता है। यह सादृश्य प्रत्यभिज्ञान है। भैंस देखकर गौ का स्मरण हो आने पर ‘भैंस गौ से विलक्षण होती है’ इस प्रकार से होने वाला यह ज्ञान वैसादृश्य प्रत्यभिज्ञान कहा जाता है। इसी तरह प्रत्यक्ष और स्मरण के विषयभूत पदार्थों में परस्पर की अपेक्षा को लिये हुए जितने भी जोड़रूप ज्ञान होते हैं, जैसे—यह उससे दूर है, यह उससे पास है, यह ऊँचा है या यह उससे नीचा है आदि, ये सब प्रत्यभिज्ञान हैं।
नैयायिक सादृश्य को जानने वाले उपमान नामक प्रमण को अलग मानते हैं; किन्तु उनकी यह मान्यता ठीक नहीं; क्योंकि ऐसा मानने पर तो एकता, विलक्षणा आदि को जानने वाले प्रमाण भी अलग—अलग मानने पडेंगे। कई लोग प्रत्यभिज्ञान को स्वतन्त्र प्रमाण नहीं मानते, पर एकता और सदृशता दूसरे किसी भी प्रमाण से नहीं जानी जाती, अतएव उसे पृथक््â प्रमाण मानना ही चाहिए।
३. तर्क—व्याप्ति के ज्ञान को तर्क कहते हैं अर्थात् उपलम्भ और अनुपलम्भ से होने वाला, त्रिकालसम्बन्धी व्याप्ति को जानने वाला, ‘यह उसके होने पर ही होता है, इसके अभाव में नहीं होता है’ इत्यादि आकार वाला ज्ञान तर्क है। इसके चिन्ता, ऊहा, ऊहापोह आदि नामान्तर भी हैं। जैसे—अग्नि के होने पर धूम होता है अग्नि के अभाव में धूम नहीं होता। जहाँ—जहाँ धूम होता है वहाँ—वहाँ अग्नि होती है। इस प्रकार के अविनाभाव सम्बन्ध को व्याप्ति कहते हैं। यह अविनाभाव सम्बन्ध त्रैकालिक होता है। जिस ज्ञान से इस सम्बन्ध का निर्णय होता है उसे तर्क कहते हैं। तर्कज्ञान उपलम्भ और अनुपलम्भ से उत्पन्न होता है। धूम और अग्नि को एक साथ देखना उपलम्भ है और अग्नि के अभाव में धूम का अभाव जानना अनुपलम्भ है। बार—बार उपलम्भ और बार—बार अनुपलम्भ होने से व्याप्ति का ज्ञान (तर्क) उत्पन्न हो जाता है।
नैयायिकादि तर्क को भी प्रमाण नहीं मानते किन्तु यदि तर्क ज्ञान को प्रमाण न माना जाए तो अनुमान प्रमाण की उत्पत्ति नहीं हो सकती। तर्क से धूम और अग्नि का अविनाभाव सम्बन्ध निश्चित हो जाने पर ही धूम से अग्नि का अनुमान किया जा सकता है अतएव अनुमान को प्रमाण मानने वाले उक्त सभी दार्शनिकों को तर्क को भी प्रमाण मानना चाहिए।
४. अनुमान—साधन से होने वाले साध्य के ज्ञान को अनुमान कहते हैं। साधन को िंलग और साध्य को िंलगी भी कहते हैं अत: ऐसा भी कह सकते हैं कि लिंग से िंलगी के ज्ञान को अनुमान कहते हैं। िंलग अर्थात् चिह्न और िंलगी अर्थात् उस चिह्न वाला। जैसे—धूम से अग्नि को जान लेना अनुमान है। यहाँ धूम साधन अथवा िंलग है और अग्नि साध्य अथवा लिंगी है। अग्नि का चिह्न धूम है। कहीं धुआँ उठता दिखाई दे तो ग्रामीण लोग भी धुएँ को देखकर यह अनुमान कर लेते हैं कि वहाँ आग जल रही है; क्योंकि बिना आग के धुआँ नहीं उठ सकता अत: ऐसे किसी अविनाभावी चिह्न को देखकर उस चिह्न वाले को जान लेना अनुमान है। िंलगग्रहण और व्याप्तिस्मरण के अनु—पश्चात् या पीछे होने वाला, मान—ज्ञान अनुमान कहलाता है।
साधन ऐसा होना चाहिए जो साध्य का अविनाभावी रूप से सुनिश्चित हो अर्थात् साध्य के होने पर ही हो और साध्य के न होने पर न हो। ऐसा साधन ही साध्य की ठीक प्रतीति करता है इसीलिए श्री अकलंक देव ने साधन को ‘साध्याविनाभावाभिनिबोधक लक्षण’ कहा है अर्थात् साध्य के साथ सुनिश्चित अविनाभाव ही साधन का प्रधान लक्षण है। इसी को हेतु भी कहते हैं। अन्यथानुपपत्ति भी इसी का नाम है। अन्यथा अर्थात् साध्य के अभाव में साधन की ‘अनुपपत्ति’ अर्थात् अभाव को अन्यथानुपपत्ति कहते हैं। अविनाभाव भी वही कहलाता है, अविनाभाव का पदच्छेद (अ + विना + भाव) पूर्वक इस प्रकार अर्थ किया जा सकता है—अविनाभाव अर्थात् (विना / यानि साध्य के अभाव में, अ यानि साधन का न, भाव यानी होना अर्थात् साध्य के अभाव में साधन का न होना अविनाभाव है। अविनाभाव, अन्यथानुपपत्ति, व्याप्ति—ये सब एकार्थवाचक शब्द हैं। अविनाभाव सम्बन्ध को व्याप्ति कहते हैं और सहभाव नियम तथा क्रमभाव नियम को अविनाभाव कहते हैं। यह अविनाभाव ही अनुमान का मूलाधार है। सहभावी रूप, रसादि तथा वृक्ष और िंशशपा आदि व्याप्य—व्यापक भूत पदार्थों में सहभाव नियम होता है। नियतपूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती कृत्तिकोदय और शकटोदय में तथा कार्य—कारणभूत अग्नि और धूम आदि में क्रमभाव नियम होता है अत: जो साध्य के अभाव में न रहता हो और साध्य के सद्भाव में ही रहता हो वही साधन सच्चा साधन या हेतु है। वही साध्य की सिद्धि करने में समर्थ है। ऐसे साधन से ही साध्य के ज्ञान को अनुमान प्रमाण कहते हैं।
इस प्रकार जैनदर्शन में अनुमान के लक्षण के साथ हेतु का निर्दोष लक्षण किया गया है।
जैनदर्शनमान्य हेतु के उक्त लक्षण के विषय में जैनेतर दार्शनिकों के विभिन्न मत उपलब्ध होते हैं। इस विषय में बौद्धों का कहना है कि हेतु का जो ‘साध्याविनाभाव’ लक्षण किया गया है, वह ठीक नहीं है। हेतु का एक लक्षण नहीं है, किन्तु उसके तीन लक्षण हैं—१. पक्षधर्मत्व, २. सपक्षसत्व और ३. विपक्षव्यावृत्ति। हेतु को पक्ष का धर्म होना चाहिए, सपक्ष में रहना चाहिए और विपक्ष में नहीं ही रहना चाहिए। जिसमें ये तीनों लक्षण पाये जाते हैं, वही हेतु सम्यक््â हेतु है। जैसे इस पर्वत में अग्नि है; क्योंकि यह धूम वाला है। जहाँ—जहाँ धूम होता है वहाँ—वहाँ अग्नि अवश्य होती है, जैसे रसोईघर। और जहाँ अग्नि नहीं होती है वहाँ धूम भी नहीं होता, जैसे तालाब। इस अनुमान में ‘पर्वत’ पक्ष है। ‘अग्नि’ साध्य है, ‘धूमवाला’ हेतु है, रसोईघर सपक्ष है और तालाब विपक्ष है। जहाँ साध्य की सिद्धि की जाती है उसे पक्ष कहते हैं। जैसे ऊपर के अनुमान में पर्वत में अग्नि सिद्ध करता है अत: पर्वत पक्ष है जहाँ साधन के सद्भाव से साध्य का सद्भाव दिखाया जाये उसे सपक्ष कहते हैं। जैसे—रसोईघर। जहाँ साध्य के अभाव में साधन का भी अभाव दिखाया जावे उसे विपक्ष कहते हैं, जैसे तालाब। ऊपर के अनुमान में धूमवत्व हेतु पर्वत (पक्ष) में रहता है, सपक्ष रसोईघर में भी रहता है, किन्तु विपक्ष तालाब में नहीं रहता। अत: वह निर्दोष हेतु है। हेतु के पक्ष में रहने से असिद्धता नाम का दोष नहीं रहता, सपक्ष में रहने से विरुद्धता नाम का दोष नहीं रहता और विपक्ष में न रहने से अनैकान्तिक नाम का दोष नहीं रहता। यदि हेतु पक्ष में न रहे तो असिद्धता दोष दूर नहीं हो सकता, यदि हेतु सपक्ष में न रहे तो विरुद्धता दोष दूर नहीं हो सकता और यदि हेतु विपक्ष में भी रहता है तो अनैकान्तिक दोष दूर नहीं हो सकता अत: ‘त्रैरूप्य’ ही हेतु का लक्षण ठीक है।
किन्तु त्रैरूप्य हेतु के लक्षण का निराकरण करते हुए जैनदर्शन का मत है कि हेतु का लक्षण पक्षधर्मत्व आदि त्रैरूप्य नहीं है; क्योंकि त्रैरूप्य तो सदोष हेतुओं में भी पाया जाता है। जैसे यदि अग्नि का लक्षण ‘सत्त्व’ किया जाय तो वह ठीक नहीं है; क्योंकि सत् तो प्रत्येक पदार्थ होता है। इसी तरह पक्षधर्मत्व आदि त्रैरूप्य हेत्वाभास (सदोष हेतु) में भी रह जाता है अत: त्रैरूप्य हेतु का लक्षण ठीक नहीं है किन्तु ‘साध्याविनाभाव’ या अन्यथानुपपत्ति ही हेतु का समीचीन लक्षण है, बौद्धकल्पित त्रैरूप्य हेतु का लक्षण समीचीन नहीं है। इसी से आचार्य पात्रकेसरी ने उक्त त्रिलक्षण या त्रैरूप्य का कदर्थन (खण्डन) करने के लिए ‘त्रिलक्षणकदर्थन’ नाम का ग्रंथ रचा था और इसी ग्रंथ में उन्होंने कहा है कि ‘जहाँ अन्यथानुपपत्ति या अविनाभाव है वहाँ त्रैरूप्य या त्रिरूपता से क्या प्रयोजन है ? अर्थात् त्रैरूप्य मानने से कोई लाभ नहीं और जहाँ अन्यथानुपपत्ति नहीं है वहाँ त्रिरूपता होने से भी क्या प्रयोजन है ? अर्थात् उसका होना या न होना दोनों ही बराबर हैं।
नैयायिकों के मतानुसार हेतु का लक्षण—
नैयायिकों ने बौद्धों के त्रैरूप्य की तरह पाँचरूप्य को हेतु का लक्षण माना है। वे पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्व, विपक्षव्यावृत्ति, अवाधित विषयत्व और असत्प्रतिपक्षत्व इस प्रकार पंच रूप वाला हेतु मानते हैं। उनका कहना है कि हेतु का पक्ष में रहना, समस्त सपक्षों में या किसी एक सपक्ष में रहना, किसी भी विपक्ष में नहीं पाया जाना, प्रत्यक्षादि से साध्य का बाधित नहीं होना और तुल्यबल वाले किसी प्रतिपक्षी हेतु का नहीं होना ये पाँच बातें प्रत्येक सद् हेतु के लिए नितान्त आवश्यक हैं किन्तु जैनदर्शन के अनुसार हेतु का यह पाँचरूप्य लक्षण भी ठीक नहीं है। हेतु के इन पाँच लक्षणों में से पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्व और विपक्षव्यावृत्ति इन तीन का तो खण्ड किया जा चुका है, अब शेष हैं—अवाधितविषयत्व और असत्प्रतिपक्षत्व। इन दोनों का भी जैनदर्शन निराकरण करता है। अन्यथानुपपत्ति अथवा साध्याविनाभाव नियम के बिना न तो हेतु अबाधित विषय होता है और न असत्प्रतिपक्ष होता है। ‘अबाधित’ विषय का अर्थ होता है—हेतु का साध्य किसी प्रमाण से बाधित नहीं। जैसे—अग्नि ठण्डी होती है; क्योंकि द्रव्य है, जैसे जल। इस अनुमान में अग्नि का ठण्डापन साध्य है किन्तु यह साध्य प्रत्यक्ष प्रमाण से बाधित है; क्योंकि प्रत्यक्ष से अग्नि उष्ण सिद्ध है अत: यह बाधित विषय है; क्योंकि ‘जो जो द्रव्य हो वह—वह ठण्डा हो’ ऐसा कोई अविनाभाव नियम नहीं है। द्रव्य ठण्डे भी होते हैं और गरम भी होते हैं अत: अविनाभाव के अभाव के बिना कोई हेतु बाधित विषय नहीं हो सकता। बाधित विषय और अविनाभाव का परस्पर में विरोध है। साध्य के सद्भाव में ही हेतु का पक्ष में रहना अविनाभाव है और साध्य के अभाव में हेतु का रहना बाधित विषय है। असत्प्रतिपक्ष का अर्थ है—जिसका कोई प्रतिपक्ष न हो। जैसे—किसी ने कहा कि यह जगत् किसी बुद्धिमान का बनाया हुआ है; क्योंकि कार्य है। दूसरे ने कहा—यह जगत् किसी का बनाया हुआ नहीं है; क्योंकि उसका कोई कर्ता नहीं है। यह सत्प्रतिपक्ष है। अब यहाँ यह विचारणीय है कि असत्प्रतिपक्षता से तुल्य बल वाले प्रतिपक्ष का निषेध इष्ट है अथवा अतुल्य बल वाले प्रतिपक्ष का निषेध इष्ट है ? यदि पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों समान बल वाले हों तो उनमें बाध्य—बाधक भाव नहीं हो सकता; क्योंकि जो समान बल वाले होते हैं उनमें बाध्य—बाधक भाव नहीं होता, जैसे समान बलशाली दो राजाओं में। यदि पक्ष और प्रतिपक्ष अतुल्य बल वाले हैं तो उनके अतुल्य बल होने का कारण क्या है—एक में पक्षधर्मता वगैरह का होना और एक में उनका न होना अथवा अनुमान बाधा ? प्रथम पक्ष ठीक नहीं है क्योंकि पक्षधर्मता आदि दोनों अनुमानों में पायी जाती है। जैसे—एक ने कहा—‘यह मनुष्य मूर्ख है; क्योंकि अमुक—का पुत्र है।’ दूसरे ने कहा—‘यह मनुष्य मूर्ख नहीं है; क्योंकि शास्त्र का व्याख्यान करता है।’ इन दोनों अनुमानों में पक्षधर्मता आदि पाई जाती है। दूसरा पक्ष भी ठीक नहीं है क्योंकि जब दोनों अनुमानों में पक्षधर्मता आदि पाई जाती है तो उसमें से एक बाधित और एक बाधक नहीं हो सकता, अन्यथा दोनों में से कोई भी बाध्य और कोई भी बाधक हो जाएगा तथा अन्योन्याश्रय नाम का दोष भी आता है—क्योंकि जब दोनों अनुमान अतुल्य बल सिद्ध हों तो अनुमान बाधा आए और जब अनुमान बाधा हो तो अतुल्यबलत्व सिद्ध हो अत: हेतु का लक्षण अविनाभाव नियम निश्चय ही मानना चाहिए।
जैनदर्शन में हेतु का रूप—
जैनदर्शन में हेतु का एक रूप ही माना है और वह है अविनाभाव नियम। उसका कहना है कि जब तीन अथवा पाँच रूपों के नहीं होने पर भी कुछ हेतु गमक हो सकते हैं तो अविनाभाव नियम को ही हेतु का लक्षण मानना चाहिए, तीन या पाँच रूप तो अविनाभाव का ही विस्तार है।
इस प्रकार हेतु का पाँच रूप वाला लक्षण ठीक नहीं है अतएव आचार्य श्री विद्यानन्द ने आचार्य श्री पात्रकेसरी के त्रैरूप्य के खण्डन की तरह नैयायिकों के उक्त पाँच रूप्य का खण्डन करते हुए कहा है—‘जहाँ (कृतिकोदय आदि हेतुओं में) अन्यथानुपपन्नत्व या अविनाभाव है वहाँ पंच रूपों से क्या लाभ ? पंचरूप न भी हों तो भी कोई हानि नहीं और जहाँ (मैत्री—तनयत्व आदि हेतुओं में) पंचरूप है और अन्यथानुपपन्नत्व नहीं है, वहाँ पंच रूप मानने से क्या लाभ ? वे व्यर्थ हैं।
इसी प्रकार इन त्रैरूप्य और पाँचरूप्य हेतु लक्षणों के अतिरिक्त भी कुछ दार्शनिक द्विलक्षण, चतुर्लक्षण और षड्लक्षण आदि हेतु लक्षणों को स्वीकार करते हैं, तर्क ग्रंथों में उल्लेख पाया जाता है, किन्तु हेतु लक्षणों की ये मान्यताएँ ठीक नहीं हैं, इनका तर्कपूर्ण ढंग से सहज ही में निराकरण किया जा सकता है।
परोक्ष प्रमाण का अन्तिम भेद आगम प्रमाण है। जैन आगमिक परम्परा में इसका प्राचीन नाम ‘श्रुत’ है अत: श्रुतज्ञान या शब्द ज्ञान को आगम कहते हैं। आप्तवचन या द्रव्य श्रुत को भी आगम कहा जाता है किन्तु वास्तव में आगम वह ज्ञान है जो श्रोता या पाठक को आप्त की मौखिक या लिखित वाणी से होता है।
जैनदर्शन के अनुसार आप्त के वचनादि के निमित्त से होने वाले पदार्थ ज्ञान को आगम कहते हैं। कर्मों के विनाशक, वीतराग, सर्वज्ञ, हितोपदेशी आत्मा के वचनों से तथा हाथ की अँगुली आदि की संज्ञाओं, संकेतों आदि से होने वाले द्रव्य, गुण और पर्यायों के ज्ञान को आगम प्रमाण कहते हैं। व्यवहार में भी ‘यो यत्रावंचक: स: तत्राप्त:’ अर्थात् जो जहाँ अवंचक है वह वहाँ आप्त है, इस व्याख्यान के अनुसार अविसंवादी, अवंचक और प्रामाणिक पुरुष के वचनों को सुनकर जो अर्थबोध होता है, वह भी आगम की मर्यादा में आता है इसीलिए आचार्य श्री अकलंकदेव ने आप्त का व्यापक अर्थ करते हुए कहा है कि जो जिस विषय में अविसंवादक है, वह उस विषय में आप्त है, उससे भिन्न अनाप्त है। आप्तता के लिए तद्विषयक ज्ञान और उस विषय में अविसंवादकता या अवंचकता का होना आवश्यक है इसलिए व्यवहार में अवंचक आप्त या प्रामाणिक पुरुष के द्वारा किये गये कथन का ज्ञान भी आगम प्रमाण ही माना जाएगा। इसी दृष्टि से आप्त के दो भेद किये गये हैं—१. लौकिक आप्त और २. लोकोत्तर आप्त। लोक व्यवहार में माता—पिता आदि प्रामाणिक पुरुष लौकिक आप्त हैं और मोक्षमार्ग के उपदेष्टा सर्वज्ञ तीर्थंकर, गणधर आदि प्रामाणिक होते हैं इसलिए वे लोकोत्तर आप्त हैं। इस प्रकार आप्त वचन को आगम कहा गया है।
२.५.१ मीमांसा दर्शन सर्वज्ञ को नहीं मानता—उसके अनुसार कोई भी पुरुष कभी भी सर्वज्ञ नहीं हो सकता किन्तु उनकी यह मान्यता ठीक नहीं है; क्योंकि आप्तोक्त होने से ही कोई वचन प्रमाण हो सकता है, अन्यथा नहीं।
वैशेषिक और बौद्ध दर्शन आगम ज्ञान या शब्द प्रमाण को भी अनुमान का ही रूप मानते हैं। जैनदर्शन को यह बात मान्य नहीं क्योंकि पूर्व अभ्यास की स्थिति में शब्द—ज्ञान व्याप्ति निरपेक्ष होता है। एक व्यक्ति खोटे—खरे सिक्के को जानने वाला है, वह उसे देखते ही पहचान लेता है। उसे ऊहापोह की आवश्यकता नहीं होती। यही बात शब्दज्ञान के लिए है। शब्द सुनते ही सुनने वाला समझ जाता है, वह अनुमान नहीं होता। शब्द सुनने पर उसका अर्थबोध न हो, उसके लिए व्याप्ति का सहारा लेना पड़े तो वह अवश्य अनुमान होगा, शब्द नहीं। प्रत्यक्ष के लिए भी यही बात है। प्रत्येक वस्तु के लिए ‘यह अमुक होना चाहिए’ ऐसा विकल्प बने तब यह ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं होगा, आगम व्याप्ति निरपेक्ष होने के कारण अनुमान के अन्तर्गत नहीं आता।
जैनदर्शन के अनुसार आगम स्वत: प्रमाण, पौरुषेय और आप्तप्रणीत होता है।