वह प्रत्यक्ष प्रमाण मुख्य और संव्यवहार के निमित्त से दो प्रकार का है। उसमें मुख्य प्रत्यक्ष के तीन भेद हैं-अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान। ये ज्ञान अशेष रूप से विशद-स्पष्ट प्रतिभासी हैं और इन्द्रिय आदि की अपेक्षा नहीं रखते हैं। अपने-अपने आवरण विशेष के पृथक् होने से उत्पन्न होते हैं इसलिए ये मुख्य रूप से ‘प्रत्यक्ष’ इस नाम को प्राप्त करने वाले होते हैं। ‘प्रत्यक्षमन्यत्१’ इस सिद्धान्त के अनुरोध से इनकी प्रत्यक्षता अनुपचरित-वास्तविक है, उपचरित नहीं है।
जो इन्द्रिय और मन के निमित्त से होने वाला मतिज्ञान है, वह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहलाता है क्योंकि वह एकदेश विशद-स्पष्ट-निर्मल है। समीचीन प्रवृत्तिरूप व्यवहार संव्यवहार कहलाता है। उसको आश्रय लेकर प्रवृत्ति होने से इस मतिज्ञान में प्रत्यक्षता मानी गई है। यह प्रत्यक्षता उपचार से ही है अर्थात् यह मतिज्ञान उपचार से ही प्रत्यक्ष है। ‘आद्ये परोक्षम्’ इस सूत्र में जो मतिज्ञान को परोक्ष कहा है वह मुख्य कथन है अर्थात् मतिज्ञान मुख्यरूप से परोक्ष ही है इसलिए यहाँ उसे सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष मानने में सिद्धान्त विरुद्ध कथन नहीं है। ऐसा समझना चाहिए।
भावार्थ-सिद्धान्त ग्रंथ तत्त्वार्थसूत्र में प्रत्यक्ष प्रमाण से अवधि आदि तीन ज्ञान लिये हैं और परोक्ष से मति, श्रुत इन दो ज्ञानों को लिया है। यहाँ पर अकलंकदेव ने प्रत्यक्ष प्रमाण के दो भेद किये हैं-मुख्य और सांव्यवहारिक। मुख्यरूप से अवधि आदि तीनों ज्ञानों को ले लिया है और सांव्यवहारिक से मतिज्ञान को लिया है। टीकाकार अभयचंद्रसूरि यह स्पष्ट कर रहे हैं कि यह सांव्यवहारिक मतिज्ञान उपचार से ही प्रत्यक्ष है, मुख्य रूप से नहीं। इसलिए यहाँ सिद्धान्त विरुद्ध कथन करने का दोष नहीं आता है।