जिनदेव का वंदन पाप को नाशे, पुण्यरतन बरसाये। जिनदेव का वन्दन।।
सर्वप्रथम मैं करूँ वंदना अरहंतों की, सिद्धों की।
आचार्यों की, उपाध्याय, गुरु, सर्वसाधु गुणवंतों की।।
ये मंगलकारी लोक में उत्तम शरणभूत कहलायें। जिनदेव का वन्दन।।
सरस्वती की करूँ वंदना, मन में आश लगा के।
जिनवचनामृत के बादल बन सूक्ति सुधा बरसा दे।।
उसको शीश झुका भक्ती से वाणी विमल कराये। जिनदेव का वन्दन।।
द्वितीय दृश्य
स्थान—राजा का दरबार। समय—मध्याह्न। (विदेह क्षेत्र की पुण्डरीकिणी नगरी में राजा घनरथ अपने राज्य सिंहासन पर विराजमान हैं। पास में ही युवराज पुत्र मेघरथ और उनके छोटे भाई दृढ़रथ बैठे हुए हैं। आजू-बाजू में मन्त्री, सामन्त, पुरोहित और सभासद लोग बैठे हुए हैं। राजा घनरथ तीर्थंकर के अवतार हैं, इसलिये वे अवधिज्ञानी हैं। उनके पुत्र मेघरथ भी अवधिज्ञान से सहित हैं। राजसभा में कुछ धर्मचर्चायें चल रही हैं।)
युवराज मेघरथ—हे पूज्यपाद! आप साक्षात् तीर्थंकर के अवतार हैं। स्वयंबुद्ध हैं। आपके जीवन में आपका कोई भी गुरु नहीं हो सकता है। हे तात! आज सभासद लोग आपके श्रीमुख से आत्मा के स्वरूप को सुनना चाहते हैं, सो आप कृपाकर अपनी अमृतवाणी से हम लोगों को तृप्ति प्रदान कीजिये।
राजा घनरथ—(मंद-मंद मुस्कराकर) हे आयुष्मन्तो! सुनो, आत्मा का लक्षण है उपयोग। चैतन्यानुविधायी परिणाम उपयोग कहलाता है। इस उपयोग के दो भेद हैं—ज्ञान और दर्शन। ज्ञान के मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल ऐसे पाँच भेद हैं तथा आदि के तीन ज्ञान मिथ्यात्व के संसर्ग से मिथ्याज्ञान भी हो जाते हैं। दर्शन के चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन ये चार भेद हैं। कुल मिलाकर उपयोग के १२ भेद हो जाते हैं।
युवराज मेघरथ—प्रभो! जब ज्ञान का स्वभाव है जानना, तब वह मिथ्या कैसे हो जायेगा।
राजा घनरथ—युवराज! जैसे कड़ुवी तूमड़ी के संसर्ग से दूध भी कड़ुवा हो जाता है, वैसे ही मिथ्यात्व के संसर्ग से ज्ञान के स्वभाव में भी विपरीतता आ जाती है। देखो, संसार में जो हिंसा के कारण ऐसे नाना यन्त्रों का निर्माण कर देते हैं, खोटे काव्यों में जिनकी प्रतिभा दौड़ती है उनके कुश्रुतज्ञान के प्रभाव से ही यह सब होता है।
सभासद नं. १—हे भगवन्! हमारे में कितने उपयोग हैं ?
राजा घनरथ—तुम्हारे में मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन ऐसे चार उपयोग हैं।
सभासद नं. २—प्रभो! हमारे प्रिय युवराज मेघरथ में कितने ज्ञान हैं ?
राजा घनरथ—इन मेघरथ कुमार में तीन ज्ञान हैं, चूँकि इनके अवधिज्ञान प्रगट हो चुका है।
मंत्री नं. १—भगवन्! तीर्थंकरों के सिवाय अन्य गृहस्थ मनुष्यों को भी क्या अवधिज्ञान हो सकता है ?
राजा घनरथ—हाँ, परिणामों की विशुद्धि से और अवधिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम विशेष से गृहस्थावस्था में भी अवधिज्ञान प्रगट हो जाता है। देखो, सम्राट् भरत को भी गृहस्थावस्था में अवधिज्ञान प्रगट हो गया था।
सामन्त—अहो! हम लोग बहुत ही पुण्यशाली हैं जो कि आप जैसे तीर्थंकर महाराज और मेघरथ जैसे युवराज की राज्यसभा में बैठने का सौभाग्य मिला है।
राजपुत्र दृढ़रथ—हे पूज्य पिताजी! इस जीवात्मा के कितने भेद हैं ?
राजा घनरथ—इस जीवात्मा के बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा ऐसे तीन भेद हैं। बहिरात्मा शरीर और आत्मा को एक समझता है। अन्तरात्मा सम्यग्दर्शन के प्रगट हो जाने से शरीर और आत्मा को पृथक् समझता है तभी वह अन्तरात्मा रत्नत्रय के बल से अपनी आत्मा को परमात्मा बनाने का पुरुषार्थ करता है।
सभासद नं. १—भगवन्! क्या हम जैसे संसारी आत्मा भी परमात्मा बन सकते हैं ?
राजा घनरथ—अवश्य, यह रत्नत्रय धर्म हर किसी आत्मा को परमात्मा बना देता है।
युवराज मेघरथ—(हर्ष से) अहो! रत्नत्रय धर्म की बहुत बड़ी महिमा है। (इसी बीच सुषेणा दासी अपने मुर्गे को लेकर दरबार में प्रवेश करती है। सभा में सन्नाटा छा जाता है। सभी लोग उन्हें देखने लगते हैं। साथ में आयी हुई दासियाँ घुटने टेककर नमस्कार करके एक तरफ खड़ी हो जाती हैं। तब सुषेणा कहती है।)
सुषेणा—(राजा की ओर देखते हुए) प्रभो! मेरी स्वामिनी का यह घनतुण्ड नाम का मुर्गा है। यह युद्धकला में बहुत ही कुशल है। मेरे इस मुर्गे को यदि किसी दूसरों के मुर्गे जीत लें तो मैं एक हजार दीनार दूँगी। (इतना सुनकर कांचना दासी आगे बढ़कर कहती है।)
कांचना—हाँ, मेरी रानी का मुर्गा इससे भी अधिक सुन्दर, बलवान और युद्धप्रिय है, मैं अभी लिए आती हूँ। (इतना कहकर दासी चली जाती है और मुर्गे को लेकर आ जाती है।)
कांचना—(हाथ जोड़कर) हे देव! मेरी स्वामिनी का यह वङ्कातुण्ड नाम का मुर्गा है। अब मैं इसकी युद्धकुशलता आपको दिखाना चाहती हूँ। (राजा की दृष्टि का इशारा पाते ही मन्त्री मुर्गों के युद्ध के लिये मैदान साफ करा देते हैं। दोनों मुर्गे आपस में लड़ना शुरू कर देते हैं। सभा में सभी लोग कौतुक से देख रहे हैं।
राजा घनरथ—(मन में) अहो! कहाँ तो राजसभा में अभी-अभी धर्मचर्चा चल रही थी और कहाँ यह घमासान युद्ध छिड़ गया है। यह युद्ध इन दोनों मुर्गों के लिये तो दु:ख का कारण है ही। साथ ही देखने वालों के लिये भी हिंसानन्द आदि रौद्रध्यान कराने वाला है अत: यह धर्मात्माओं के देखने योग्य नहीं है। अच्छा, भव्यों को शांति प्राप्त हो मैं ऐसा ही उपाय करता हूँ। (प्रगट) हे पुत्र मेघरथ! भला ये मुर्गे किस कारण से ऐसा घमासान युद्ध कर रहे हैं।
युवराज मेघरथ—(अवधिज्ञान से विचार करके) हे सभासदों! पूज्य पिताजी ने आप सबको सही स्थिति का बोध कराने के लिये ही ऐसा प्रश्न रखा है। आप सब लोग ध्यानपूर्वक सुनो। मैं इन दोनों मुर्गों का सही इतिहास सुनाता हूँ। इसी जम्बूद्वीप के ऐरावत क्षेत्र में एक रत्नपुर नाम का नगर है। वहाँ पर भद्र और धन्य नाम के दो सगे भाई रहते थे। दोनों ही गाड़ी चलाने का कार्य करते थे। एक दिन वे दोनों ही भाई श्रीनदी के किनारे बैल के निमित्त से लड़ पड़े और परस्पर में एक दूसरे को मारकर मर गये। क्लेश परिणाम से मरकर दोनों ही कांचन नदी के किनारे श्वेतकर्ण और ताम्रकर्ण नाम के जंगली हाथी हो गये। वहाँ पर भी पूर्वभव के बंधे हुए क्रोध के संस्कार से दोनों लड़ने लगे और मरकर अयोध्या नगरी में नन्दिमित्र गोपाल के यहाँ भैंसों के झुण्ड में भैंसे हो गये। ये दोनों भैंसे बहुत ही अहंकारी थे और पूर्व के वैर का संस्कार चला आ रहा था। अत: ये दोनों आपस में लड़कर मरे और पुन: अयोध्या नगरी के शक्तिवरसेन और शब्दवरसेन नामक के राजपुत्रों के मेढा हो गये। उनके मस्तक वङ्का के समान मजबूत थे। ये दोनों मेढे भी क्रोध से आपस में लड़कर मरे और ये दोनों मुर्गे हो गये हैं। मेरी रानी प्रियमित्रा की दासी सुषेणा यह घनतुण्ड मुर्गा लाई है और मेरी दूसरी रानी मनोरमा की दासी कांचना यह वङ्कातुण्ड मुर्गा लाई है। ये दोनों मुर्गे पूर्वभवों के बैर के संस्कार से ही ऐसा भयंकर युद्ध कर रहे हैं।
दृढरथ—हे अग्रज! तत्काल का यह युद्ध देखते हुए यह नहीं प्रतीत होता है कि ये मुर्गों की ही शक्ति है। ऐसा लगता है कि इनमें कोई दैवी शक्ति संचार कर गयी हो।
युवराज मेघरथ—(हँसकर) हाँ भाई! तुम्हारा अनुमान बिल्कुल सही है। अपनी-अपनी विद्याओं से युक्त दो विद्याधर छिपकर इन्हें ऐसा भयंकर युद्ध करा रहे हैं।
दृढ़रथ—बन्धुवर! उन विद्याधरों के लड़ाने का क्या कारण है और वे कौन हैं ?
युवराज मेघरथ—हाँ, सुनो! इसी जम्बूद्वीप सम्बन्धी भरतक्षेत्र के विजयार्ध पर्वत की उत्तर श्रेणी पर एक कनकपुर नाम का नगर है। वहाँ के विद्याधर राजा गरुड़देव के दिवितिलक और चन्द्रतिलक नाम के दो पुत्र थे। एक दिन ये दोनों सिद्धकूट पर विराजमान चारण मुनियों के पास पहुँचे। वहाँ गुरुदेव की संस्तुति करके विनयपूर्वक उनसे अपने पूर्वभव के सम्बन्ध में पूछने लगे। मुनिराज के मुख से विस्तार से पूर्वभवों को सुनकर उन्होंने पूछा—भगवन्! पूर्वभव के मेरे पूज्य पिता इस समय कहाँ पर जन्मे हैं। मुनिराज ने कहा कि वे पूर्व विदेह में तीर्थंकर का अवतार लेकर जन्मे हैं। वे इस समय राजा घनरथ के नाम से प्रसिद्ध हैं और अपने पुत्र-पौत्रों के साथ राजसभा में मुर्गों का युद्ध देख रहे हैं। इतना सुनकर वे दोनों विद्याधर यहाँ आ गये और कौतूहलवश अपनी विद्या के बल से छिपकर इन दोनों को विशेष रूप से लड़ा रहे हैं। (इतना सुनते ही वे दोनों विद्याधर प्रगट होकर राजा घनरथ और मेघरथ को नमस्कार करते हैं।)
दिवितिलक—हे पूज्य तात! आपका दर्शन करके मेरा मन मयूर नाच उठा है।
चन्द्रतिलक—पूज्य पिताजी! आपके पूर्वजन्म में डाले गये सत्संस्कारों से ही आज हम विद्याधर विभूति को पाकर भी उसमें आसक्त नहीं हुए हैं।
घनरथ—हे आयुष्मन्तों! तुम्हारा धर्मप्रेम बहुत ही श्रेष्ठ है। वह यहाँ के सभासदों को भी धर्मभावना में दृढ़ करेगा।
दोनों विद्याधर—(खड़े होकर हाथ जोड़कर) हे तीर्थंकर के अवतार! धर्मधुरा के धारक, आपको बारम्बार प्रणाम हो। (पुन: थाल में अघ्र्य लेकर राजा को समर्पित करके भाव भक्ति से उनकी पूजा करके कहते हैं—हे भगवन्! अब हम दोनों श्री गोवर्धन मुनिराज के समीप जाकर जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण करना चाहते हैं। सो अब आप आज्ञा प्रदान कीजिये।) इतना कहकर नमस्कार करके दोनों विद्याधर चले जाते हैं। दोनों मुर्गे भी अपने पूर्वभवों को सुनकर परस्पर का बैर छोड़ देते हैं और युद्ध में घायल हो जाने से गिर जाते हैं। ये दोनों साहस के साथ अपने मन में सन्यास ग्रहण कर लेते हैं।
दृढ़रथ—अहो! अब ये बेचारे मृतप्राय हो चुके हैं। हे अग्रज! अब इन्हें संबोधन देकर सल्लेखना ग्रहण करा दीजिये जिससे कि इनकी अगली गति सुधर जाये।
युवराज मेघरथ—बन्धु! ये दोनों मुर्गे अपने पूर्वभवों को सुनकर स्वयं ही शान्तचित्त हो गये हैं। अब इन्होंने अपने वैरभाव को बिल्कुल ही छोड़ दिया है और मरणासन्न होने से सन्यास ले चुके हैं।
मंत्रीगण—(आश्चर्य से) ओहो! ये बेचारे मुर्गे सन्यास ग्रहण कर चुके हैं। क्या अब ये नहीं बचेंगे ?
युवराज मेघरथ—नहीं मन्त्रियों! अब ये नहीं बचेंगे। (मुर्गों को सम्बोधन करते हुए) हे मुर्गों! अब तुम्हारा अन्त समय आ चुका है अत: अब तुम इस पशु योनि के निकृष्ट शरीर से बिल्कुल ममता छोड़ दो। इसमें हो रही वेदना को, कष्ट को अपनी मत समझो। देखो, तुम्हारी आत्मा नित्य है, निरंजन है, निराकार है, न उस आत्मा को शरीर है, न व्याधि है, न वेदना है और न मृत्यु ही है। आत्मा तो अजर, अमर, अविनाशी है। यह आत्मा अनन्त ज्ञान दर्शन का पिण्ड है। अनन्तसुख और अनन्तवीर्य से सहित है। बस अब तुम दोनों उसी आत्मा का ध्यान करो और अब मात्र जिनेन्द्रदेव के नाम का स्मरण करो। इस महामन्त्र को ध्यान से सुनो जो कि सर्व पापों का नाश करके उत्तम गति में पहुँचाने वाला है—
(सभी मिलकर बहुत ही मधुर ध्वनि से णमोकार मन्त्र बोल रहे हैं। कुछ ही क्षण में उसी स्थान पर दो देव आते हैं और वे राजा घनरथ को नमस्कार करके मेघरथ को नमस्कार करते हैंं। सब लोग आश्चर्यचकित होकर देखने लगते हैं।)
देव—हे परमपावन! हे दु:खीजन वत्सल! आपकी जय हो, जय हो। आप धन्य हैं। आपके पादमूल में युद्ध करने वाले ये तिर्यंच मुर्गे भी धन्य हो गये। (ऐसा कहते हुए दोनों देव बहुत-सी पूजन सामग्री लेकर युवराज मेघरथ की पूजा करने लगते हैं।)
दृढ़रथ—अग्रज! मुझे कौतुक हो रहा है। कहिये, ये दोनों दिव्य पुरुष कौन हैं ? और यहाँ इन मुर्गों की सल्लेखना के बीच में ही ये कैसे आ गये। (मेघरथ अवधिज्ञान से सारी घटना जानकर मुस्कुराते हुए देवों की ओर देखते हैं। सभी देव मेघरथ का अभिप्राय समझकर स्वयं कहते हैं।)
देव—हे महानुभावों! हम कौन हैं ? और यहाँ कैसे आये हैं, सो हमारा इतिहास हमारे मुख से ही आप लोग सुनिये। ये दोनों मुर्गे हम ही तो हैं। अभी-अभी युवराज मेघरथ के उपदेश को सुनकर हम दोनों ने सल्लेखना ग्रहण कर ली और अभी-अभी आप सभी के मुख से णमोकार मंत्र सुनते हुए हम दोनों मुर्गों के प्राण निकल गये। तत्क्षण ही हम दोनों भूतरमण और देवरमण नामक वन में भूतजाति में व्यंतरदेव हो गये हैं। हमारा नाम ताम्रचूल है और हमारे भाई का नाम कनकचूल है। वहाँ पर दिव्य उपपाद शय्या से जन्म लेते ही हमें अवधिज्ञान प्रगट हो गया। हमने अपने मुर्गे के जन्म का सारा वृतान्त जान लिया और आप सभी अभी भी इन मुर्गों को णमोकार मन्त्र सुना रहे हैं ऐसा देख लिया। बस वहाँ पर अपने नियोग कार्य स्वरूप जिनपूजा को करके हम दोनों उसी क्षण यहाँ आ गये हैं। धन्य है यह जैनधर्म और धन्य है आप जैसे महापुरुषों का धर्मानुराग, कि जिसके माहात्म्य से आज हम दोनों ने इस तुच्छ योनि से छूटकर देवयोनि प्राप्त कर ली है।
दृढ़रथ—अहो! इतनी जल्दी आप लोग यहाँ आकर अपनी कृतज्ञता व्यक्त कर रहे हैं। यह भी बड़े आश्चर्य की बात है।
ताम्रचूल देव—हे नरोत्तम! लोक में जो जिसके प्रसाद से कोई भी लाभ प्राप्त कर लेता है तो वह उस जीवन में उसका ऋणी बन जाता है। फिर हम दोनों ने तो एक सर्वोत्तम धर्मरूपी अमृत को जिनसे पाया है उनके पास आकर उनके चरणों के दासानुदास बन जावें, इसमें भला क्या आश्चर्य है ?
दृढ़रथ—यह सब आपकी सज्जनता का ही सूचक है।
ताम्रचूल देव—(मेघरथ से) हे नरश्रेष्ठ! हे धर्मधुर्य! अब हमें आप आज्ञा दीजिये। हम आपकी क्या सेवा करें ?
युवराज मेघरथ—देव! धर्म के प्रसाद से हमें सब कुछ उपलब्ध है। भला हमें अब और क्या चाहिये। जहाँ धर्म हो वहाँ तो सब कुछ है ही।
कनकचूल देव—(हाथ जोड़कर) फिर भी प्रभो! आप हमें निराश न कीजिये। हमें कुछ न कुछ सेवा का अवसर अवश्य दीजिये।
ताम्रचूल देव—हाँ सुनिये! आप सपरिवार (विमान को दिखाकर) इस विमान में बैठिये, हम आपको मानुषोत्तर पर्वत के भीतर में समस्त संसार को दिखाएंगे।
कनकचूल देव—(प्रसन्नता से) हाँ, हाँ प्रभो! आप इस विमान में बैठिये, चलिये, हम मत्र्यलोक के सम्पूर्ण जिनमंदिरों का दर्शन करायेंगे।
युवराज मेघरथ—तथास्तु। (मेघरथ की स्वीकृति पाते ही देव उस विमान में उनको परिवार सहित बिठाते हैं और आप भी उसी में बैठकर विमान आकाश में उड़ा देते हैं।) पटाक्षेप
तृतीय दृश्य
(यहाँ दृश्य में छत तक ऊँचा सुमेरू पर्वत दिखाना चाहिये और सुमेरू के चारों तरफ बढ़िया उद्यान बनाकर उसमें दक्षिण-उत्तर दिशा में कल्पवृक्ष दिखाने चाहिये। मेरू से ईशान कोण में जम्बूद्वीप और नैऋत्य कोण में शाल्मलि वृक्ष दिखाना चाहिये। देवविमान एक तरफ रखा हुआ है। सुमेरू के पास में मेघरथ, उनका परिवार, ताम्रचूल और कनकचूल देव खड़े हुए चर्चा कर रहे हैं।)
ताम्रचूल देव—हे राजवंशतिलक! यह देखो, जम्बूद्वीप के ठीक बीचोंबीच यह सुदर्शन मेरु पर्वत है। यह इस मध्यलोक का मापदण्ड है। यह एक लाख योजन ऊँचा है और पृथ्वीतल में दस हजार योजन विस्तृत है। इस पर्वत में भूमि पर तो भद्रसाल वन है। यह देखो इसके चारों दिशाओं में चार चैत्यालय हैं। इस भद्रसाल वन से पाँच सौ योजन ऊपर में नन्दनवन है। इस वन में भी चार चैत्यालय हैं। इस वन से साढ़े बासठ हजार योजन ऊपर सौमनस वन है। यहाँ भी चारों दिशाओं में चार जिनमंदिर हैं। इस वन से छत्तीस हजार योजन ऊपर जाकर पाण्डुकवन है वहाँ पर भी चारों दिशाओं में चार जिनमंदिर हैं और चारों विदिशाओं में चार शिलायें हैं जिनके नाम हैं—पाण्डुक शिला, पाण्डुकंबला शिला, रक्ताशिला और रक्तकंबला शिला।
दृढ़रथ—(मेघरथ से) अग्रज! इन्हीं शिलाओं पर ही तो तीर्थंकरों का जन्माभिषेक होता है।
युवराज मेघरथ—हाँ बन्धु! ईशान दिशा की पाण्डुक शिला पर तो भरतक्षेत्र में जन्म लेने वाले तीर्थंकरों का अभिषेक होता है। पाण्डुकंबला पर पश्चिम विदेह के तीर्थंकरों का, रक्ताशिला पर पूर्व विदेह के तीर्थंकरों का और रक्तकंबला पर ऐरावत क्षेत्र के तीर्थंकरों का अभिषेक होता है।
कनकचूल देव—आपके पूज्य पिता घनरथ तीर्थंकर का जन्माभिषेक इन्द्रों ने इसी रक्तकंबला शिला पर ही किया होगा।
मेघरथ—(हँसकर) अवश्य, मेरे पूज्य पिता के जन्माभिषेक की चर्चा आज भी शहर के पूर्वज लोग किया करते हैं। (सभी उत्तर की ओर बढ़ जाते हैं।)
ताम्रचूल देव—हे प्रभो! यह देखिये सामने यह जम्बूवृक्ष शोभ रहा है। यह ८ योजन ऊँचा है। इसके परिवार वृक्ष एक लाख पन्द्रह हजार एक सौ उन्नीस हैं। इस जम्बूवृक्ष के निमित्त से ही इस द्वीप का नाम जम्बूद्वीप सार्थक है। यह जम्बूवृक्ष उत्तरकुरु भोगभूमि में स्थित है।
कनकचूल देव—जम्बूवृक्ष की उत्तरी शिखा पर जिनमंदिर है। (सब दक्षिण की ओर आ जाते हैं।)
ताम्रचूल देव—इधर देखिये, मेरू से दक्षिण में यह देवकुरू नाम की उत्तम भोगभूमि है। यहाँ पर यह जम्बूवृक्ष सदृश ही वैभवशाली शाल्मलि वृक्ष दिख रहा है। इसकी दक्षिणी शाखा पर जिनमंदिर हैं।
कनकचूल देव—हे नरपुंगव! इस सुमेरू पर्वत के दक्षिण और उत्तर में देवकुरु-उत्तरकुरु नाम से उत्तम भोगभूमि है। यहाँ पर दश प्रकार के कल्पवृक्ष लगे हुए हैं। सभी भोगभूमिया स्त्री-पुरुष इन कल्पवृक्षों से ही नाना प्रकार की उत्तम-उत्तम भोग सामग्री प्राप्त कर लेते हैं।
युवराज मेघरथ—अच्छा आओ, अब हम सब सुमेरु पर्वत के भद्रशाल वन में जो चैत्यालय हैं। उनमें जो जिनेन्द्रदेव की प्रतिमाएँ विराजमान हैं, उनका वंदन करें, पूजन करें कि जिससे अपना मानव जीवन सफल हो जावे। पटाक्षेप
सुदर्शन-मेरु-वंदना मेरु सुदर्शन महातीर्थ को नितप्रति शीश झुकाता हूँ।
तीर्थंकर के जन्मन्हवन की सबको याद दिलाता हूँ।।
भद्रशाल वन सुन्दर है, नन्दनवन अति मनहर है।
सौमनस्यवन शोभ रहा, पाँडुकवन मनमोह रहा।
इनमें चैत्यालय भासें, जिनमें जिनप्रतिमा राजें।
चार दिशा में चार कहे, सब मिल सोलह भास रहे।
प्रति जिनगृह में जिनप्रतिमा, इस सौ आठ अतुल महिमा।
सबको नित्य नमन मेरा, कोटि कोटि वंदन मेरा।
पाण्डुकवन की विदिशा में, पाण्डुक आदि शिला तामें।
तीर्थंकर शिशु को लाके, इन्द्र न्हवन करते आके।
ऐसे पावन महामेरु को भक्तिप्रसून चढ़ाता हूँ।
‘सम्यग्ज्ञानमती’ विकसित हो यही भावना भाता हूँ।।
चतुर्थ दृश्य
(छह खण्ड का हिस्सा बड़ा-सा सुन्दर दिखाना चाहिये जिसमें हिमवान पर्वत हो उसके पद्म सरोवर से गंगा-सिन्धु नदियाँ निकल रही हों और बीच में विजयार्ध पर्वत हो। छह खण्ड व्यवस्था दिखाकर उसके मध्य के आर्यखण्ड में विश्व का नक्शा और विजयार्ध पर्वत से इधर मध्य के म्लेच्छ खण्ड में वृषभाचल पर्वत दिखाना चाहिये। विमान एक तरफ रखा है, मेघरथ ताम्रचूल देव आदि सभी लोग खड़े हैं। देव इन लोगों को हाथ के इशारे से हर एक चीज दिखला रहा है।)
ताम्रचूल देव—हे नरपुंगव! यह देखो, एक लाख योजन व्यास वाले थाली के समान गोलाकार जम्बूद्वीप में दक्षिण की ओर यह सबसे पहला भरत क्षेत्र है। इसका प्रमाण ५२६, ६/१९ योजन है। इसके आगे इससे दुगना चौड़ा और १०० योजन ऊँचा यह हिमवान पर्वत है। यह पर्वत सोने का बना हुआ है। इस पर्वत के ऊपर ग्यारह कूट दिख रहे हैं। इनमें से जो यह पूर्व दिशा में कूट है उस पर अकृत्रिम जिनमंदिर हैं। शेष दश कूट में देवों के भवन बने हुए हैं। यह देखो, इस पर्वत के मध्य भाग पर एक पद्म सरोवर दिख रहा है जिसमें एक बड़ा-सा कमल दिख रहा है।
दृढ़रथ—यह कमल बहुत ही सुन्दर है। इस पर तो भवन बना हुआ है।
ताम्रचूल देव—हाँ बन्धु! यह कमल पृथ्वीकायिक रत्नों से बना हुआ है। इस कमल की कर्णिका पर यह श्री देवी अपने परिवार सहित निवास करती हैं।
कनकचूल देव—हे भ्रात:! इस सरोवर से ही तो गंगा सिन्धु नदियाँ निकलती हैं।
ताम्रचूल देव—हाँ बन्धु! यह देखो, इस पर पद्म सरोवर के पूर्व तोरणद्वार से जो नदी निकलकर नीचे गिरी है इसी का नाम गंगा नदी है और पश्चिम तोरण द्वार से निकलने वाली नदी का नाम ही सिन्धु नदी है।
युवराज मेघरथ—देखो, देखो! जहाँ पर गंगा नदी गिर रही है वहाँ का दृश्य कितना मनोरम है।
ताम्रचूल देव—हाँ, नीचे तलहटी में एक कुण्ड है इसमें एक द्वीप है, उसके मध्य एक पर्वत है। उस पर्वत के ऊपर गंगादेवी का भवन है। इस भवन की छत पर कमलासन पर श्री जिनेन्द्रदेव की प्रतिमा विराजमान हैं।
कनकचूल देव—मित्र! इस जिनप्रतिमा के मस्तक पर जो केशों का आकार है वह जटाजूट जैसा दिख रहा है और यह देखो गंगा नदी की धार ठीक इसी प्रतिमा के जटाजूट पर गिर रही है।
ताम्रचूल देव—हाँ, इसीलिये तो लोक में ऐसी प्रसिद्धि हो रही है कि महादेव के जटाजूट से गंगा नदी निकली है। अब देखो, यह गंगा नदी अपने कुण्ड में गिरकर दक्षिण तोरणद्वार से निकलकर आगे क्षेत्र में बहती हुई विजयार्ध पर्वत की गुफा में प्रवेश कर जाती है।
प्रियमित्रा—यह विजयार्ध पर्वत कितना बड़ा है ?
ताम्रचूल देव—यह विजयार्ध पर्वत पचास योजन चौड़ा और पच्चीस योजन ऊँचा है। इसके दक्षिण-उत्तर में दो-दो कटनी हैं। पहली कटनी पर आभियोग्य जाति के देवों के आवास हैं और दूसरी कटनी पर विद्याधर मनुष्यों के नगर बने हुए हैं। ऊपर में नव वूकूट जिनमें भी पूर्व दिशा केकूटजिनमंदिर हैं और शेष आठों पर देवों के भवन हैं। यह पर्वत चाँदी का बना हुआ है।
कनकचूल देव—इस पर्वत की गुफा से निकलकर यह गंगा नदी कुटिलाकार में बहती हुई पूर्व की तरफ लवण समुद्र में प्रवेश कर रही है।
ताम्रचूल देव—ऐसे ही सिन्धु नदी भी सिन्धु देवी के भवन की छत पर विराजमान जिनप्रतिमा का अभिषेक करते हुए गिरती है। पुन: कुण्ड से निकलकर क्षेत्र में बहती हुई पश्चिम लवण समुद्र में प्रवेश कर जाती है।
युवराज मेघरथ—इसी विजयार्ध पर्वत और गंगा-सिन्धु नदी के निमित्त से इस भरत क्षेत्र के छह खण्ड हो जाते हैं। यह देखो, इसमें मध्य का यह आर्यखण्ड है। इस आर्यखण्ड के बीचोंबीच में अयोध्या नगरी है जहाँ पर ऋषभदेव आदि तीर्थंकर जन्म ले चुके हैं।
दृढ़रथ—हे भ्रात:! शेष खण्डों में क्या है ?
युवराज मेघरथ—शेष पाँच म्लेच्छ खण्ड हैं। वहाँ के रहने वाले मनुष्य जाति से, क्रिया से म्लेच्छ नहीं हैं प्रत्युत क्षेत्र से म्लेच्छ हैं। इन्हीं पाँचों के मध्य वाले म्लेच्छ खण्ड में वृषभाचल पर्वत दिख रहा है। आर्यखण्ड में जन्म लेने वाले चक्रवर्ती जब छह खण्डों की दिग्विजय कर लेते हैं तब इसी पर्वत पर अपनी प्रशस्ति लिखते हैं।
दृढ़रथ—तो क्या भरत, सगर आदि चक्रवर्तियों ने इसी पर ही अपनी प्रशस्तियाँ लिखी हैं ?
युवराज मेघरथ—हाँ, भरतक्षेत्र के सभी चक्रवर्ती इसी पर ही अपनी प्रशस्ति लिखते हैं।
मनोरमा—हे नाथ! अनादिकाल से लेकर आज तक तो अनन्त चक्रवर्ती हो चुके होंगे, पुन: इस पर्वत पर सबकी प्रशस्ति लिखने के लिये जगह कहाँ मिलेगी ?
युवराज मेघरथ—देवी! तुम्हारा प्रश्न बिल्कुल ठीक है। फिर भी प्रत्येक चक्रवर्ती अपनी प्रशस्ति इसी पर लिखते हैं। ऐसी श्रुति है कि भरत चक्रवर्ती जब इस पर्वत के समीप प्रशस्ति लिखने के लिये पहुँचते हैं तो षट्खण्ड वसुधा के विजय का अभिमान उनके हृदय में उद्वेलित हो उठता है किन्तु जैसे ही वे आगे बढ़कर देखते हैं कि इस पर तो नाम लिखने की जगह ही नहीं है तभी उनका मान गलित हो जाता है। वे सोचते हैं ‘‘ओह! मेरे समान अनन्त चक्रवर्ती हो चुके हैं।’’ पुन: वे अपने दण्डरत्न से एक प्रशस्ति मिटाकर उस जगह अपनी प्रशस्ति अंकित करते हैं।
ताम्रचूल देव—(मेघरथ से) हे पूज्य! ऐसे ही आप भी जब आगे शांतिनाथ नाम के १६वें तीर्थंकर और पाँचवें चक्रवर्ती होवेंगे तो आप भी ऐसे ही किसी का नाम मिटाकर अपना अंकित करोगे। (सब हँस पड़ते हैं।) युवराज मेघरथ—(गम्भीर मुद्रा में) ऐसे ही अनादि परम्परा चली आ रही है। यह तो सब विधि के विधानवश करना ही होता है।
पंचम दृश्य
(जम्बूद्वीप का पूरा मॉडल रखा हुआ है। ताम्रचूल देव सभी को हर एक चीज दिखा रहे हैं।)
ताम्रचूल देव—हे नरपुंगव! यह देखो, हिमवान पर्वत के अनन्तर यह हैमवत क्षेत्र है। यहाँ पर जघन्य भोगभूमि है। इसके बाद में यह महाहिमवान पर्वत है। इस पर भी आठ कूट हैं और मध्य में महापद्म सरोवर है। इसके मध्य कमल पर ह्री देवी का निवास है। इस सरोवर के दक्षिण-उत्तर तोरणद्वार से दो नदियाँ निकलती हैं, जिसमें से एक तो रोहित नदी हैमवत क्षेत्र में बहती है और दूसरी हरिकांता नदी हरिवर्ष क्षेत्र में गिरती है। इस हैमवत क्षेत्र में पद्म सरोवर के उत्तरी भाग से गिरती हुई रोहितास्या नदी है। ऐसे इस क्षेत्र में रोहित- रोहितास्या ये दो नदियाँ बह रही हैं।
कनकचूल देव—महाहिमवान पर्वत से आगे हरिवर्ष क्षेत्र है। यहाँ पर मध्यम भोगभूमि है। यहाँ पर हरित-हरिकांता नाम की दो नदियाँ बहती हैं। इस क्षेत्र के आगे निषध पर्वत है। इस पर्वत पर नव कूट हैं। इसके ऊपर भी मध्य में तिन्गिछ सरोवर है। इसके मध्य कमल में धृतिदेवी रहती हैं। इससे आगे विदेह क्षेत्र है। इसमें सीता-सीतोदा नदियाँ बहती हैं। इसके बाद में नील पर्वत है जो वर्ण में वैडूर्यमणि के समान है और सब पूरा का पूरा निषध के सदृश है। इस पर्वत के केसरी सरोवर के कमल में कीर्ति देवी रहती है। इसके बाद में रम्यक क्षेत्र है यहाँ पर नारी-नरकांता नदियाँ हैं। इस क्षेत्र में मध्यम भोगभूमि है। आगे रुक्मी पर्वत है जो कि महाहिमवान सरीखा है। इसके ऊपर महापुण्डरीक सरोवर में बुद्धि देवी का महल बना हुआ है।
ताम्रचूल देव—इसके बाद में शिखरी पर्वत है वह हिमवान पर्वत के समान है। उसके मध्य के पुण्डरीक सरोवर में कमल पर जो देवी निवास करती है उसका नाम लक्ष्मी देवी है। उस पर्वत के आगे ऐरावत क्षेत्र है जिसके मध्य में भी विजयार्ध पर्वत है और पुण्डरीक सरोवर के पूर्व पश्चिम भाग से रक्ता-रक्तोदा नदियाँ निकलती हैं जो कि नीचे गिरकर विजयार्ध की गुफा से निकलकर कुटिलाकार से बहती हुई ऐरावत में भी छह खण्ड कर देती हैं। भरत क्षेत्र के समान ही ऐरावत क्षेत्र की सारी व्यवस्था है।
मनोरमा—इस जम्बूद्वीप में कितने क्षेत्र हैं ?
युवराज मेघरथ—इस जम्बूद्वीप में भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत ऐसे सात क्षेत्र हैं।
प्रियमित्रा—पुन: पर्वत कितने हैं ?
युवराज मेघरथ—हिमवान, महाहिमवान, निषध, नील, रुक्मी और शिखरी ये छह पर्वत हैं। इन्हीं से सात क्षेत्रों का विभाजन हुआ है। अत: इन्हें कुलाचल भी कहते हैं।
सुमति—(दृढ़रथ से) हे स्वामिन्! इस जम्बूद्वीप में महानदियाँ कितनी हैं ?
दृढ़रथ—गंगा-सिन्धु, रोहित-रोहितास्या, हरित-हरिकांता, सीता-सीतोदा, नारी-नरकांता, सुवर्णवूâला-रुप्यवूâला और रक्ता-रक्तोदा। ये चौदह नदियाँ हैं जो कि दो-दो करके भरत आदि सात क्षेत्रों में बहती हैं।
सुमति—ये नदियाँ कहाँ से निकलती हैं ?
दृढ़रथ—जैसा कि अभी देव ने बताया है कि ये नदियाँ कुलाचलों के छह सरोवरों से निकलती हैं। पद्म, महापद्म, तििंगछ, केसरी, महापुण्डरीक और पुण्डरीक ये उन सरोवरों के नाम हैं। पहले और अंतिम सरोवर से तीन-तीन नदियाँ निकलती हैं। शेष चार सरोवरों से दो-दो नदियाँ निकलती हैं।
मनोरमा—इन सरोवरों के कमलों पर निवास करने वाली देवियाँ ही तो भगवान की माता की सेवा करने के लिये आती हैं।
दृढ़रथ—हाँ! श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी ये इनके नाम हैं।
युवराज मेघरथ—आओ चलें, अब हिमवान के षट् कुलाचलों के जिनमंदिरों की वंदना करें। (मंच पर कुछ अँधेरा-सा दिखाना चाहिये।)
नेपथ्य से (परदे के पीछे से)—
जय जय अकृत्रिम जिनभवन अघहरण जग चूड़ामणि।
जय जय अकृत्रिम जिनप्रतिम, सब मूर्तियाँ चिंतामणी।।
जय जय अनादि अनन्त अनुपम त्रिभुवनैक शिखामणी।
जय जय अहि के विष प्रहारण, नाथ! तुम गारुत्मणी।।
(पटाक्षेप)
छठा दृश्य
(विदेह क्षेत्र में ३२ विदेह स्पष्ट हैं। सोलह वक्षार हैं और १२ विभंगा नदियाँ हैं। चार गजदंत हैं। पास में खड़े हुए देव मेघरथ आदि को रचना दिखा रहे हैं।)
ताम्रचूल देव—हे स्वामिन्! यह देखिये, सुमेरु की चारों विदिशाओं में ये चार गजदंत पर्वत हैं। गंधमादन, माल्यवान, विद्युत्प्रभ और सौमनस्य ये इनके सुन्दर नाम हैं। इनमें से दो पर तो नव-नव कूट और दो पर सात-सातकूट। प्रत्येक गजदन्त पर एक-एक जिनमंदिर है और शेषकूट देवों के आवास हैं। हे महाभाग! अब इधर आइये। सुमेरु की पूर्व दिशा में सीता नदी बह रही है जिससे इस पूर्व विदेह के भी दक्षिण और उत्तर ऐसे दो विभाजन हो गये हैं।
दृढ़रथ—इस सीता नदी में पद्म सरोवर के समान सुन्दर सरोवर दिख रहे हैं।
युवराज मेघरथ—हाँ, बन्धु! इन सीता-सीतोदा नदियों में भी पाँच-पाँच सरोवर हैं जिनमें नाम हैं—निषध, देवकुरु, सूर्य, सुलस, विद्युत्प्रभ तथा नीलवान, उत्तरकुरु, चन्द्र, ऐरावत और माल्यवान। इन सरोवरों में भी पृथ्वीकायिक कमल बने हुए हैं जिन पर नागकुमार देव निवास करते हैं।
ताम्रचूल देव—हे राजन्! यह देखिये, सीता नदी के उत्तर में मेरु के निकट से पूर्व विदेह में चित्र, औकूटशैल नाम के चार वक्षार पर्वत हैं। ऐसे सीता नदी के दक्षिण में देवारण्य वन की तरफ से त्रिकूट, कूटवणकूट, अंकूटभ और अंजन ये चार वक्षार पर्वत हैं। इन वक्षारों के मध्य में निषध-नील पर्वतों की तलहटी से कुण्डों से निकली हुई तीन-तीन विभंगा नदियाँ हैं, जिनके नाम हैं—ह्रदा, ह्रदवती, पंकवती, तप्तजला, मत्तजला और उन्मत्तजला। चार वक्षार और तीन-तीन नदियों के मध्य में विदेह के आठ-आठ विभाग हो गये हैं। उन विदेह देशों के नाम क्रम से कच्छा, सुकच्छा, महाकच्छा, कच्छकावती, आवर्ता, लाँगला, पुष्कला और पुष्कलावती हैं। ऐसे ही दक्षिण में वत्सा, सुवत्सा, महावत्सा, वत्सकावती, रम्या, रम्यका, रमणीया और मंगलावती हैं। इनके मध्य की नगरी के नाम हैं—क्षेमा, क्षेमपुरी, अरिष्टा, अरिष्टपुरी, खड्गा, मंजूषा और पुण्डरीकिणी।
कनकचूल देव—(मेघरथ से) हे महाभाग! इस पुण्डरीकिणी नगरी में ही आपके पूज्य पिता राज्य संचालन कर रहे हैं।
युवराज मेघरथ—बिल्कुल ठीक बात है। आज हम लोग वहीं से आए हुए हैं।
ताम्रचूल देव—हे कुमार! आगे देखिये, सीता नदी के दक्षिण में जो आठ विदेहों में आठ नगरियाँ हैं जिनके सुसीमा, कुण्डला, अपराजिता, प्रभंकरा, अंकवती, पद्मावती, शुभा और रत्नसंचया ये सुन्दर-सुन्दर नाम हैं।
दृढ़रथ—इस प्रकार से पूर्व विदेह में सोलह विदेह क्षेत्र दिख रहे हैं।
ताम्रचूल देव—हाँ कुमार, ऐसा ही है। (सभी मेरू के पश्चिम में आ जाते हैं।)
युवराज मेघरथ—इधर सीतोदा नदी बह रही है। नीलवान आदि सरोवर यहाँ दिख रहे हैं। यहाँ पर देखिये, सीतोदा नदी के दक्षिण भाग में देवारण्य की तरफ से श्रद्धावान, विजटावान, आशीविष और सुखावह ये चार वक्षार हैं। पुन: सीतोदा के उत्तर में चन्द्रमाल, सूर्यमाल, नागमाल और देवमाल ये चार वक्षार हैं। इन्हीं के मध्य स्वच्छ जल से भरी हुई विभंगा नदियाँ हैं, जिनके क्षीरोदा, शीतोदा, स्रोतोन्तर्वाहिनी तथा गंधमालिनी, फेनमालिनी और उर्मिमालिनी ये नाम हैं। (दृढ़रथ से) हे बन्धु! इधर देखो, इन आठों वक्षार व छहों नदियों के निमित्त से इधर भी सोलह विदेह दिख रहे हैं जिनके नाम हैं—पद्मा, सुपद्मा, महापद्मा, पद्मकावती, शंखा, नलिना, कुमुदा और सरिता। ये विदेह तो सीतोदा नदी के दक्षिण में हैं। ऐसे ही वप्रा, सुवप्रा, महावप्रा, वप्रकावती, गंधा, सुगंधा, महागंधा और गंधमालिनी ये आठ विदेह सीतोदा के उत्तर-भाग में हैं। इनके मध्य की नगरियों के नाम हैं—अश्वपुरी, सिंहपुरी, महापुरी, विजयपुरी, अरजा, विरजा, अशोका और वीतशोका तथा उत्तर भाग में विजया, वैजयन्ती, जयन्ती, अपराजिता, चक्रपुरी, खड्गपुरी, अयोध्या और अवध्या ये बढ़िया-बढ़िया नाम हैं।
मनोरमा—इस प्रकार तो एक विदेह में ही ३२ विदेह हो गये हैं।
युवराज मेघरथ—हाँ प्रिये! इन ३२ विदेह क्षेत्रों में प्रत्येक के मध्य विजयार्ध पर्वत है जैसा कि तुम्हें भरत क्षेत्र में विजयार्ध पर्वत दिखाया था। देखो, ये सभी विजयार्ध चाँदी के हैं। सब में तीन-तीन कटनियाँ हैं और सभी पर विद्याधरों के नगर बने हुए हैंं। प्रत्येक विदेह क्षेत्र में निषध और नील पर्वत की तलहटी में बने हुए कुण्डों से गंगा-सिन्धु ये दो-दो नदियाँ निकली हुई हैं जो कि इन विजयार्धों की गुफा में प्रविष्ट होकर बाहर निकलकर बहती हुई आगे सीता-सीतोदा महानदियों में मिल जाती हैं। इसी कारण से प्रत्येक विदेह क्षेत्र में छह-छह खण्ड दिख रहे हैं।
प्रियमित्रा—स्वामिन्! इन सभी विदेह क्षेत्रों में क्या व्यवस्था है ?
युवराज मेघरथ—प्रत्येक विदेह क्षेत्र में कर्मभूमि की व्यवस्था है जो कि शाश्वत है अर्थात् अनादिकाल से यहाँ विदेहों में कर्मभूमिया मनुष्य होते रहते हैं। यहाँ की उत्कृष्ट आयु एक कोटि पूर्व वर्षों की है और यहाँ पर सभी के शरीर की ऊँचाई पाँच सौ धनुष प्रमाण है। यहाँ पर हमेशा मोक्षमार्ग चालू रहता है क्योंकि सुषमा-सुषमा आदि षट्काल परिवर्तन यहाँ नहीं होता है।
दृढ़रथ—भाई! यहाँ पर विदेह क्षेत्र में अकृत्रिम जिनमंदिर कितने हैं ?
युवराज मेघरथ—देखो चार गजदन्तों के चार मंदिर हैं। सोलह वक्षारों के सोलह जिनमंदिर हैं और इन ३२ विजयार्धों के ३२ जिनमंदिर हैं। इस प्रकार से ४ ± १६ ± ३२ · ५२ जिनमंदिर हैं।
प्रियमित्रा—पहले हम लोगों ने कितने मंदिरों के दर्शन किये हैं ?
युवराज मेघरथ—पहले सुदर्शन मेरू के १६, जम्बू-शाल्मली वृक्ष के २, षट्कुलाचलों के ६ तथा भरत-ऐरावत क्षेत्र के विजयार्धों के २ ऐसे कुल २६ जिनमंदिरों की वंदना हम लोग कर चुके हैं। ऐसे सब मिलाकर जम्बूद्वीप में ७८ जिनमंदिर हैं। अच्छा, आओ अब चलकर सभी जिनमंदिरों में विराजमान जिन प्रतिमाओं की वंदना करें।
नाथ त्रैलोक्य के पूर्ण चंदा तुम्हें। मैं नमूँ, मैं नमूँ, हे जिनंदा तुम्हें।।
(पटाक्षेप)
सातवाँ दृश्य
(बीच में समुद्र की लहरें उठ रही हैं। इसके चारों ओर गोलाकार में दो-दो मेरू रखे हुए हैं। कुछ वृक्ष, पहाड़, मकान दिख रहे हैं। इनको घेरकर मानुषोत्तर पर्वत है। उसके चारों दिशाओं में मंदिर हैं। इस पर्वत के भीतर ही खड़े होकर मेघरथ आदि वार्ता कर रहे हैं।)
ताम्रचूल देव—हे महाभाग! यह देखो, यह लवण समुद्र है। इसका जल ऊपर में शिखाऊ ढेर के समान ऊँचा उठा हुआ है। इसको घेरकर यह धातकीखण्ड है। यहाँ पर दक्षिण-उत्तर में एक-एक इष्वाकार पर्वत होने से इसके पूर्व धातकीखण्ड और पश्चिम धातकीखण्ड ऐसे दो खण्ड हो गये हैं। यहाँ पर भी विजय और अचल नाम के दो मेरू हैं। हिमवान, महाहिमवान आदि छह-छह कुलाचल हैं। भरत आदि सात-सात क्षेत्र हैं। ऐसे यहाँ पर भी अठहत्तर-अठहत्तर और इष्वाकार के दो ऐसे एक सौ अट्ठावन जिनमंदिर हैं। इस द्वीप को वेष्टित कर कालोदधि समुद्र है। इसका जल भूमि के समतल में ही है, ऊपर उठा हुआ नहीं है। इसे वेष्टित कर यह पुष्करार्ध द्वीप है। इसमें भी मंदर और विद्युन्माली ये दो मेरू हैं। दक्षिण-उत्तर में दो इष्वाकार पर्वत हैं। अत: यहाँ पर भी ७८-७८ और दो ऐसे एक सौ अट्ठावन जिनमंदिर हैं।
कनकचूल देव—इस पुष्करद्वीप के मध्य में चूड़ी के आकार वाला यह मानुषोत्तर पर्वत है। इस पर्वत पर चार जिनमंदिर हैं।
दृढ़रथ—हाँ, यहीं तक मनुष्य लोक है।
युवराज मेघरथ—हाँ, यहीं तक मनुष्यों का निवास है। जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड द्वीप और पुष्कर का आधा द्वीप, ये ढाई द्वीप कहलाते हैं। इन्हीं ढाई द्वीपों में मनुष्य जन्म लेते हैं और इन्हीं द्वीपों की कर्मभूमियों के मनुष्य ही दीक्षा लेकर मोक्ष प्राप्त करने के अधिकारी होते हैं।
दृढ़रथ—भाई! यहाँ तक सर्व अकृत्रिम जिनमंदिर कितने हैं ?
युवराज मेघरथ—जम्बूद्वीप के अठहत्तर, धातकीखण्ड के १५८, पुष्करार्ध द्वीप के १५८ और इस मानुषोत्तर पर्वत के चार ऐसे कुल ३९८ जिनमंदिरों की हम और आप सबने वंदना की है।
प्रियमित्रा—आगे और अकृत्रिम जिनमंदिर कितने हैं ?
युवराज मेघरथ—आगे आठवें नंदीश्वर द्वीप में ५२ जिनमंदिर हैं। ग्यारहवें कुण्डल पर्वत पर चार जिनमंदिर हैं तथा तेरहवें रुचकवर पर्वत पर भी चार जिनमंदिर हैं। कुल साठ जिनमंदिर हैं।
दृढ़रथ—अच्छा, पिताजी ने तो बताया था कि मध्यलोक के सर्व ४५८ जिनमंदिर हैं। उन सबकी व्यवस्था आज स्पष्ट रूप से समझ में आ गयी है।
कनकचूल देव—हे महाभाग! आप लोग मेरे विमान में बैठे रहें। मैं अभी आप सभी को नंदीश्वर द्वीप की भी वंदना कराये देता हूँ।
युवराज मेघरथ—(हँसकर) देव! इस मानुषोत्तर पर्वत के बाहर मनुष्य कदापि नहीं जा सकते हैं, यह नियम है। बस मनुष्यों के जन्म की और गमनागमन की सीमा यहीं तक है। इस पर्वत के आगे विद्याधर और चारण ऋद्धिधारी मुनि भी नहीं जा सकते हैं।
ताम्रचूल देव—हे पूज्य! सुदर्शन मेरू पर्वत तो एक लाख योजन ऊँचा है। उसके पाण्डुक वन तक तो आप सब मनुष्य जा सकते हैं और यह मानुषोत्तर पर्वत तो… योजन ही ऊँचा है, इसका उल्लंघन क्यों नहीं कर सकते ?
युवराज मेघरथ—ताम्रचूल देव! सुनो, वस्तु व्यवस्था ऐसी ही है कि इस मानुषोत्तर पर्वत से परे मनुष्यों का जाना शक्य नहीं है, ऐसा जिनेन्द्रदेव की दिव्यध्वनि में वर्णित है। वह अन्यथा नहीं हो सकता है। अत: आओ अब हम लोग इन जिनमंदिरों की वंदना करके अपने स्थान पर लौट चलें। सब मिलकर स्तुति पढ़ते हैं—
हे चित्स्वरूप जैनबिम्ब! मैं तुम्हें नमूँ। हे आदि अंतशून्य! प्रकृतिरूप मैं नमूँ।।
तुम हो अनादि परंब्रह्म ज्योति स्वरूपी। चैतन्य चिदानन्द सहज रूप अरूपी।।
(पटाक्षेप)
आठवाँ दृश्य
स्थान—राजा घनरथ का राजदरबार समय—मध्यान्ह काल (राजा घनरथ सिंहासन पर आरुढ़ हैं। मंत्री, सभासदगण बैठे हुए हैं। सब लोग पहुँचकर पिताजी को प्रणाम करते हैं।) मेघरथ आदि सभी लोग—पूज्य पिताजी, प्रणाम।
राजा घनरथ—चिरंजीव रहो बेटे! चिरंजीव रहो। (हँसकर) कहो, अकृत्रिम जिनमंदिरों की वंदना कर आये।
युवराज मेघरथ—हे पूज्यवर! हम लोग अकृत्रिम जिनप्रतिमाओं की वंदना के साथ-साथ तमाम नदी, सरोवर, कुण्ड, पर्वत और क्षेत्रों को भी देख आये हैं। सुन्दर-सुन्दर स्थानों का अवलोकन किया है।
दृढ़रथ—पूज्य पिताजी! हम लोगों ने मानुषोत्तर पर्वत तक तो बहुत कुछ रमणीयता देखी है किन्तु उसके आगे नंदीश्वर द्वीप में नहीं जा सके हैं।
मंत्री नं. १—क्यों, वहाँ क्यों नहीं गये ? दृढ़रथ—अग्रज ने मना कर दिया, कह दिया कि इस पर्वत के आगे मनुष्य जा ही नहीं सकते।
घनरथ—बेटा! इन्होंने बिल्कुल ठीक कहा है। इन्हें जैन शास्त्रों का विशेष ज्ञान है साथ ही इन्हें अवधिज्ञान भी है, अत: ये सारी मर्यादाओं को जानते हैं।
दृढ़रथ—तो पिताजी! हमें उनके दर्शन-वंदन का अवसर कैसे मिलेगा ?
घनरथ—आयुष्मान्! तुम श्रुतज्ञान रूपी नेत्र से उसका दर्शन करो, परोक्ष में ही वहाँ पर विराजमान जिनप्रतिमाओं की वंदना करो, पूजा करो, तुम्हें उतना पुण्य बन्ध प्राप्त होगा कि जितना साक्षात् दर्शन वंदन करने वाले को मिलता है।
दृढ़रथ—(खुश होकर) बहुत अच्छा, बहुत अच्छा, अब मुझे पूरी सावधानी हो गयी है।
ताम्रचूल देव—(हाथ जोड़कर) भगवन्! मैं आपके श्रीमुख से युवराज मेघरथ के भविष्य को सुनना चाहता हूँ, सो कृपाकर मेरी अभिलाषा को पूर्ण कीजिये।
घनरथ—अच्छा सुनो, ये मेघरथ मेरे द्वारा दी हुई इस राज्यलक्ष्मी का चिरकाल तक उपभोग करेंगे। मेरे ही समवसरण में जैनेश्वरी दीक्षा लेकर सोलहकारण भावनाओं को भाते हुए तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर लेंगे। अन्त में प्रायोपगमन सन्यास से शरीर छोड़कर सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र पद को प्राप्त करेंगे। पुन: इसी जम्बूद्वीप के कुरूजांगल देश के मध्य हस्तिनापुर नगरी में राजा विश्वसेन की ऐरावती रानी की पवित्र कुक्षि से जन्म लेकर सोलहवें तीर्थंकर श्री शांतिनाथ कहलाएंगे। अपनी आयुधशाला में उत्पन्न हुए चक्ररत्न से भरतक्षेत्र के छहों खण्डों का दिग्विजय कर सारे भारत की केन्द्र हस्तिनापुर राजधानी में विराजते हुए एकछत्र सार्वभौम साम्राज्य का उपभोग करेंगे। पुन: दीक्षा लेकर केवलज्ञान प्राप्त कर धर्मचक्र का प्रवर्तन करेंगे। युग-युग तक शांति की इच्छा से संसारी प्राणी इन शांतिनाथ की स्तुति करते रहेंगे। ताम्रचूल, कनकचूल देव—(हर्ष से गद्गद होकर) जय हो, जय हो, भावी भगवान श्री शांतिनाथ की जय हो।
(दोनों देव मिलकर थाल में अर्घ्य लेकर मेघरथ की पूजा करते हैं। पुन: सब लोग मिलकर स्तुति करते हैं।)