शशिप्रभा-बहन कनकलता! उपकार का बदला प्रत्युपकार से अवश्य ही चुकाना चाहिए।
कनकलता–हाँ बहन! जो उपकारी का उपकार भूल जाते है और उसका प्रत्युपकार नहीं करते हैं वे महापापी कहलाते हैं। सुनो, प्रत्युपकारी सुग्रीव की कथा मैं तुम्हें सुनाती हूँ।
किष्विंधापुरी का राजा सुग्रीव आपत्ति से घबराया हुआ श्रीरामचन्द्र की शरण में आया। शिष्टाचार के उपरान्त सब लोग अमृततुल्य वाणी से परस्पर वार्तालाप करने लगे। तदनन्तर सुग्रीव के मंत्री जाम्बूनद ने समस्त वृत्तांत निवेदन किया। उसने कहा कि-
हे राजन्! सुग्रीव की महादेवी सुतारा के रूप से मोहित हुआ कोई पापी विद्याधर माया से सुग्रीव का रूप बनाकर सुतारा के महल में प्रविष्ट हुआ, उसे देख महासती सुतारा ने भयभीत हो अपने परिजनों से कहा कि कोई दुष्ट मायाचारी विद्याधर विद्या से सुग्रीव का रूप धरकर आया है, इसका निष्कासन करो। उस समय वह सुग्रीव राजदरबार में सिंहासन पर जाकर बैठ गया। इधर सभी मंत्रीवर्ग और परिजन शंका में झूलते हुए चिंतित हो गये। इसी बीच सच्चा सुग्रीव राज दरबार में आया और वहाँ की चिंता तथा अपने रूपधारी व्यक्ति को देखकर क्रोधित हुआ गर्जना करने लगा, तब वह कृत्रिम सुग्रीव भी क्रोध से लालमुख होकर कठोर गर्जना करने लगा पुन: ओठों को कसते हुए उन दोनों बलवानों को युद्ध में उद्यत हुए देख मंत्रियों ने शान्तिपूर्वक शीघ्र ही उन्हें रोक दिया। तत्पश्चात् सुतारा ने कहा कि यह कोई दुष्ट विद्याधर है। शरीर, बल, कांति, आदि के तुल्य दिखने पर भी मेरे पति के शरीर में जो शंख, कलश आदि लक्षण हैं वे इसमें नहीं हैं, अत: यह मायावी है। उस समय दोनों की सदृशता के कारण शंकित हुए मंत्रियों ने सुतारा के इन शब्दों की अवज्ञा कर दी। उन मंत्रियों ने सलाह किया कि मद्यपापी, वेश्या, अत्यन्त वृद्ध, बालक, व्यसनी और स्त्रियों के वचनों का विद्वान् को विश्वास नहीं करना चाहिए। लोक में गोत्र की शुद्धि अत्यन्त दुर्लभ है, उसके बहुत बड़े राज्य से भी प्रयोजन नहीं है, निर्मल गोत्र पाकर शीलादि आभूषणों से विभूषित हुआ जाता है इसलिए इस निर्मल अन्त:पुर की प्रयत्नपूर्वक रक्षा करना चाहिए।
उस समय मंत्रियों ने अपकीर्ति के भय से उन दोनों का विभाग कर दिया। अङ्ग नाम का पुत्र पिता की भ्रान्ति से बनावटी सुग्रीव के पास चला गया और अंगद नाम का पुत्र माता के अनुरोध से सत्य सुग्रीव के पास चला गया। संशय के वश में पड़ी सात अक्षौहिणी सेनाएँ एक सुग्रीव के आश्रय गर्इं और सात दूसरे सुग्रीव के आश्रय गर्इं। नगर के दक्षिण भाग में कृत्रिम सुग्रीव रखा गया और उत्तर भाग में सत्य सुग्रीव। सब ओर रक्षा करने वाले बालि के पुत्र चंडरश्मि ने संशय उपस्थित होने पर यह प्रतिज्ञा की कि इन दोनों में जो भी सुतारा के भवन के द्वार पर जावेगा, वह मेरी तलवार से मारा जावेगा।
अनन्तर स्त्री के विरह से व्याकुल सत्य सुग्रीव अनेकों बार खरदूषण के पास गया। खरदूषण की मृत्यु के बाद यह सुग्रीव हनुमान के पास गया। हनुमान ने आकर युद्ध करना चाहा, किन्तु दोनों की अत्यन्त सदृशता देखकर सोचने लगा कि ऐसा न हो कि मेरे द्वारा सच्चे सुग्रीव का ही वध हो जावे, इस प्रकार मुहूर्त भर मंत्रियों के साथ विचारकर वह हनुमान उदासीन भाव से वापस चला गया, तब सत्य सुग्रीव बहुत ही शोकातुर हुआ। हे राघव! यह अब आपको आश्रित जन वात्सल समझकर आपकी शरण में आया है।
इस घटना को सुनकर रामचन्द्र ने विचार किया कि अरे! यह तो मुझसे भी कहीं अधिक दु:खी है, क्योंकि इसका शत्रु तो इसके सामने ही बाधा पहुँचा रहा है पुन: राम ने कहा कि कृत्रिम सुग्रीव को मारकर तुम्हें तुम्हारी सुतारा से मिलाए देता हूँ। हे भद्र! उसे प्राप्त करने के बाद तुम मेरी प्राणाधिका सीता का पता चला सको, तो उत्तम बात है। यह सुनकर सुग्रीव ने कहा कि यदि मैं सात दिन के भीतर आपकी प्रिया का पता न चला दूँ तो अग्नि में प्रवेश कर लूँ। सुग्रीव के इन वचनों से राम परम आल्हाद को प्राप्त हुए। हम दोनों परस्पर में एक-दूसरे के मित्र हैं, इस प्रकार आदर के साथ उन दोनों ने जिनालय में जिन धर्मानुसार शपथ ग्रहण कर ली।
महासामन्तों से सेवित राम-लक्ष्मण सुग्रीव के साथ किष्किन्धापुर आ गये। कृत्रिम सुग्रीव के साथ भयंकर युद्ध शुरू हो गया। दोनों सुग्रीवों का परस्पर युद्ध होते-होते बनावटी सुग्रीव ने दूसरे पर गदा का प्रहार किया तब यह मूच्र्छित हो गया। वह मरा हुआ जानकर नगर में आ गया, इधर सत्य सुग्रीव को शिविर में लाकर शीतोपचार से सचेत किया गया, तब वह राम से बोला-हे नाथ! हाथ में आया चोर जीवित ही पुन: मेरे नगर में कैसे चला गया? जान पड़ता है कि अब मेरे दु:खों का अंत नहीं है। राम ने कहा कि मैं उस समय तुम दोनों का अंतर नहीं जान सका, इसीलिए मैंने उसको नहीं मारा है। जिनागम का उच्चारण कर तू मेरा परममित्र हुआ है तो कहीं अज्ञान से तुझे ही न मार दूँ इस भय से चुप रहा हूँ।
अनन्तर पुन: युद्ध में कृत्रिम सुग्रीव का सामना स्वयं राम ने किया। कुछ क्षण में राम (बलभद्र) को आया देख वैताली विद्या उस कृत्रिम सुग्रीव के शरीर से निकलकर भाग गई, तब उसकी आकृति पहले के सदृश हो गई अर्थात् वह वानरवंशी ‘साहसगति’ नाम का राजा था। कुतूहल से भरे सब विद्याधरों ने आकर उस ‘साहसगति’ विद्याधर को पहचान लिया। इसके बाद उत्कृष्ट हर्ष के धारक सुग्रीव ने लक्ष्मण सहित रामचन्द्र की पूजा की तथा मनोहर स्तुतियों से स्तुति की।
पुन: अपनी स्त्री सुतारा को पाकर वह सुग्रीव भोगों में इतना मग्न हो गया कि वह सब कुछ भूल गया। इधर रामचन्द्र आदि उसी नगर के आनन्द नामक उद्यान में आ गये और वहाँ के चन्द्रप्रभ चैत्यालय की पूजा करके वहाँ रहने लगे। वहाँ पर सुग्रीव ने अपनी तेरह पुत्रियाँ रामचन्द्र को प्रदान कर दीं, वे कन्याएँ नाना प्रकार के संगीत-नृत्य आदि से रामचन्द्र का मन हरण करने का उद्यम किया करती थीं किन्तु वे रामचन्द्र उस समय सीता का ही ध्यान किया करते थे। उन्हें एक सीता की चर्चा के सिवाय और कुछ नहीं भाता था। वे पास में खड़ी हुई किसी स्त्री से बोलते भी थे, तो सीता समझकर ही बोलते थे। वे कभी मधुर वाणी में कौवे से पूछते थे कि हे भाई! तू समस्त देश में भ्रमण करता है अत: तूने कहीं सीता को तो नहीं देखा? देखो! राज्य और स्त्री को पाकर वह सुग्रीव मेरा दु:ख भूलकर स्वयं आनन्द सागर में निमग्न हो गया है। ऐसा विचार करते-करते जिनके नेत्र आँसुओं से व्याप्त हो गये थे, ऐसे रामचन्द्र के अभिप्राय को लक्ष्मण समझ गये।
तत्क्षण ही क्रोध से युक्त हाथ में नंगी तलवार लेकर पृथ्वीतल को कंपाते हुए राज्य के समस्त अधिकारी मनुष्यों को अपने वेग से गिराकर सुग्रीव के घर में प्रविष्ट हुए और कहने लगे-अरे पापी! जब कि रामचन्द्र स्त्री के दु:ख में निमग्न हैं, तब रे दुर्बुद्धे! तू स्त्री के साथ सुख में मग्न हो रहा है। ओ दुष्ट नीच! विद्याधर! मैं तुझे अभी वहीं पहुँचाता हूँ कि जहाँ राम ने तेरी आकृति वाले बनावटी सुग्रीव को पहुँचाया है। इस प्रकार क्रोधाग्नि के कणों के समान उग्रवचन बोलते हुए लक्ष्मण को सुग्रीव ने नमस्कार कर क्षमायाचना करते हुए शान्त किया, काँपती हुई उसकी स्त्रियों ने हाथ में अघ्र्य लेकर आकर नमस्कार करते हुए उनके क्रोध को शान्त किया, तब लक्ष्मण ने उसे प्रतिज्ञा का स्मरण दिलाते हुए उसे सावधान किया।
तदनन्तर लक्ष्मण को आगे कर वह सुग्रीव रामचन्द्र के समीप आकर नमस्कार करके क्षमायाचना करने लगे और तमाम विद्याधरों को बुलाकर कहा कि तुम लोग शीघ्र ही भूतल में, आकाश में, जम्बूद्वीप में, धातकीखंडादि द्वीपों में सर्वत्र जा-जाकर सीता देवी का पता लगाओ। सीता के भाई भामण्डल को भी विद्याधर द्वारा समाचार गये और वे यहाँ आकर अत्यन्त व्याकुल हुए। सुग्रीव स्वयं भी सीता की खोज के लिए निकल पड़े। जम्बूद्वीप के एक पर्वत की शिखर से उपलक्षित आकाश में हवा से उड़ती हुई ध्वजा उसे दिखी, उसने नीचे उतरकर धूलि से धूसरित रत्नकेशी विद्याधर को देखा। उसने बताया कि हे सत्पुरुष! दुष्ट रावण ही सीता को हर कर ले जा रहा था। उसके रुदन को सुनकर मैं रावण से भिड़ गया, तब उसने मेरी समस्त विद्याएँ छीनकर मुझे यहाँ डाल दिया।
इस समाचार को सुनते ही सुग्रीव उसे विमान में बिठाकर रामचन्द्र के पास आ गये और उन्हें सीता हरण के समाचार कह सुनाये। बहन! यह सुग्रीव रावण के युद्ध के समय भी रामचन्द्र के साथ रहे हैं, इन्होंने उपकार का बदला प्रत्युपकार से चुकाकर अपना नाम अमर किया है। अन्त में ये सुग्रीव मुनि होकर तुंगीगिरी पर्वत से मोक्ष चले गये हैं।
शशिप्रभा-बहन! सुग्रीव ने बहुत ही अच्छा कार्य किया है।
कनकलता-हाँ बहन! ऐसे-ऐसे महापुरुषों का जीवन अनुकरणीय होता है।