तप्परदो गंतूणं पण्णाससहस्सजोयणाणं च।
होंति हु दिव्ववणाणिं इंदपुराणं चउदिसासुं१।।४२९।।
पुव्वादिसु ते कमसो असोयसत्तच्छदाण वणसंडा।
चंपयचूदाण तहा पउमद्दहसरिसपरिमाणा।।४३०।।
एक्केक्का चेत्ततरू तेसु असोयादिणामसंजुत्ता।
णग्गोहतरुसरिच्छा वरचामरछत्तपहुदिजुदा।।४३१।।
पोक्खरणीवावीहिं मणिमय भवणेहिं संजुदा विउला।
सव्वउडुजोग्गपल्लवकुसुमफला भांति वणसंडा।।४३२।।
इसके आगे पचास हजार योजन जाकर इन्द्रपुरों की चारों दिशाओंं में दिव्य वन हैं।।४२९।। पूर्वादिक दिशाओं में क्रम से वे अशोक, सप्तच्छद, चंपक और आम्र वृक्षों के वनखण्ड हैं। इन वनों का प्रमाण पद्म द्रह के वनों के समान है।।४३०।। उन वनों में अशोकादि नामों से संयुक्त और उत्तम चमर-छत्रादि से युक्त न्यग्रोध तरु के सदृश एक-एक चैत्यवृक्ष है।।४३१।।
पुष्करिणी वापियों व मणिमय भवनों से संयुक्त तथा सब ऋतुओं के योग्य पत्र, कुसुम एवं फलों से परिपूर्ण विपुल वनखण्ड शोभायमान हैं।।४३२।।