भव्यात्माओं! संसार के रंगमंच पर अनन्त प्राणी अपना-अपना जीवन व्यतीत करके चले जाते हैं और पुन: पुन: चारों गति में परिभ्रमण करते हुए चौरासी लाख योनियों में दु:ख भोगते रहते हैं।
कभी कोई बिरले पुण्यात्मा जीव होते हैं जो मानव जीवन में जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर अपने जन्म को सार्थक कर लेते हैं। ऐसे पुण्यात्मा जीवों में एक थे-बीसवीं सदी के प्रथमाचार्य चारित्रचक्रवर्ती श्री शांतिसागर जी मुनि महाराज। जिन्होंने दिगम्बर जैन मुनियों की निर्दोष चर्या का पालन करके मुनि परम्परा का पुनरुद्धार किया।
प्रस्तुत है उन्हीं गुरूणां गुरु का संक्षिप्त जीवनवृत्त-
सुनो हम कथा सुनाते हैं-२,
प्रथमाचार्य शांतिसागर की, गाथा गाते हैं।। सुनो…।।टेक.।।
दक्षिण भारत के भोजग्राम, में भीमगौंड पाटिल थे।
वे सत्यवती पत्नी के संग, सुखदुख में शामिल थे।।
उन्हीं का पुण्य बताते हैं,
इस पुत्र को दे जन्म बड़ा वे, हर्ष मनाते हैं।।सुनो..।।१।।
सन् अट्ठारह सौ बहत्तर, आषाढ़ कृष्ण षष्ठी थी।
तेजस्वी बालक को पा, माँ सत्यवती हर्षी थीं।
दान तब पिता लुटाते हैं,
नाम सातगौंडा रख पुत्र का, उत्सव मनाते हैं।।सुनो..।।२।।
शैशव से बाल्य अवस्था, पाई बालक ने जैसे।
इक कन्या के संग उसका, रच दिया ब्याह बस सबने।।
दुखद इक बात बताते हैं,
पत्नी की मृत्यू छह मास के ही, बाद दिखाते हैं।।सुनो..।।३।।
इस बाल विवाह से उनका, संबंध न कोई रहा था।
ब्रह्मचारी रहकर उनने, दूजा न विवाह किया था।।
सातगौंडा बतलाते हैं,
जिनधर्म की रक्षा के लिए वे, आगे आते हैं।।सुनो..।।४।।
पितुमात के मोह के कारण, घर त्याग नहीं कर पाए।
लेकिन स्वाध्यायादिक कर, नित मन वैराग्य बढ़ाए।।
धर्म का पथ अपनाते हैं,
वे ‘‘चंदनामति’’ माता-पिता का, मन न दुखाते हैं।।सुनो..।।५।।
(२)
गृहस्थ जीवन एवं परोपकार भावना
बंंधुओं! आपने बीसवीं सदी के प्रथम दिगम्बर जैनाचार्य चारित्रचक्रवर्ती श्री शांतिसागर जी महाराज के विषय में प्रारंभिक जानकारी प्राप्त की है कि दक्षिण भारत में उनका जन्म हुआ था। पुन: ९ वर्ष की अल्प आयु में ही उनका विवाह एक ६ वर्ष की कन्या से कर दिया गया और वह भी ६ माह के बाद मृत्यु का ग्रास बन गई अर्थात् उस युग में बालविवाह की परम्परा भारत की धरा पर पनप रही थी, जिस पर आगे चलकर सरकारी स्तर पर विरोध कानून भी लागू हुआ है। सातगौंडा नाम के बालक ने उसके बाद समझदार होने पर भी दूसरा विवाह नहीं किया अत: उनका पूरा जीवन बालब्रह्मचारी के रूप में ही व्यतीत हुआ।
उन्होंने ४० वर्ष तक घर में ही माता-पिता के पास रहकर अपना जीवन किस प्रकार कर्तव्यपालन में व्यतीत किया, यह आप सुनें इस काव्य में-
प्यारे भाईयों एवं बहनों! परोपकार की उत्कट भावना से ओतप्रोत सातगौंडा पाटिल का पुण्य प्रभाव आपने सुना और जाना है कि वे पशु-पक्षियों तक के प्रति भी कितनी करुणा प्रदर्शित करते थे।
आगे जाकर सन् १९१२ तक उनके माता-पिता का स्वर्गवास हो गया, उनके दोनों बड़े भाइयों का विवाह हो गया। फिर वे स्वतंत्र होकर मोक्षमार्ग की ओर अग्रसर हो गये अर्थात् अब उन्होंने जैनेश्वरी दीक्षा के लिए कदम बढ़ाए, उसी का प्रतिफल रहा कि हम सबने पाया शांतिसागर नामक एक जिनशासन सूर्य-
तर्ज-अरे रे………
सुनो इक संत कहानी, कहूँ निर्ग्रन्थ कहानी,
श्री शांतिसागर मुनिराज की।।
शांतिसागर शांतिसागर बोलो बारम्बार,
बोलो सभी मिलके उनकी जयजयकार।
मुनिचर्या इनसे ही हुई है साकार,
उन गुरूणां गुरु को है नमस्कार।।सुनो.।।टेक.।।
ईसवी सन् उन्निस सौ बारह तक में,
उनके माता-पिता गये स्वर्गलोक में।
उनके सभी भाइयों का ब्याह हो गया,
सातगौंडा को अब घर से मोह न रहा।।सुनो.।।१।।
सन उन्निस सौ चौदह ज्येष्ठ शुक्ला तेरस थी,
उत्तूर में आये देवेन्द्रकीर्ति मुनि श्री।
उनसे विनयपूर्वक क्षुल्लक दीक्षा ले लिया,
Dापनी मनोकामना को पूर्ण कर लिया।।सुनो.।।२।।
फिर तो कई नगरों का उद्धार हो गया,
क्षुल्लक सातगौंडा का प्रचार हो गया।
सन् उन्निस सौ बीस में यरनाल आ गये,
वहाँ अपने गुरु जी को फिर से पा गये।।सुनो.।।३।।
गुरुवर से दीक्षा का निवेदन किया था,
अपने त्याग भाव का प्रदर्शन किया था।
फाल्गुन शुक्ला चौदस मुनिदीक्षा हो गई,
शांतिसागर नाम से प्रसिद्धी हो गई।।सुनो.।।४।।
पुन: मूलाचार आदि ग्रंथ पढ़ लिया,
अपने गुरु को भी उसी रूप कर लिया।
यह थी मुनि शांतिसागर की विशेषता,
‘‘चन्दनामती’’ ये रत्नत्रय का तेज था।।सुनो.।।५।।
(४)
सर्प उपसर्ग, दो शिष्यों का समागम एवं आचार्यपद
जय बोलो प्रथमाचार्य श्री शांतिसागर महाराज की जय।
मुनियों की सच्ची चर्या का पालन किया था मुनि श्री शांतिसागर जी ने, उनकी साक्षात् चर्या को अपनी आँखों से देखने वाले लोग आज भी देश में विद्यमान हैं। हम सभी चतुर्थकाल के मुनियों की बात तो सुनते और पढ़ते हैं कि अग्नि- उपसर्ग, पशु आदि के उपसर्गों को मुनिगण सहन करते थे किन्तु पंचमकाल के इस युग में भी सर्प, मनुष्य और चीटियों का उपसर्ग सहने वाले आचार्य शांतिसागर महाराज सचमुच ही जिनकल्पी मुनियों की प्रतिकृति थे।
तर्ज-तीरथ करने चली सती…..
दीक्षा लेकर बने शांतिसागर निजकर्म जलाने को।
वैâसे होते हैं मुनिवर, यह बतला दिया जमाने को।।दीक्षा..।।टेक.।।
एक बार कोन्नूर गुफा में, शांतिसिंधु ध्यानस्थ हुए।
नागराज आकर मुनिवर के, पावन तन पर भ्रमण करे।।
मानो वे पाषाण बन गये, निज आतम निधि पाने को
निज आतम निधि पाने को……।।दीक्षा…।।१।।
दो ब्रह्मचारी एक बार, मुनिवर के सम्मुख पहुँच गये।
बोले कलियुग में नहिं ऋद्धि, अत: आप मुनिवर नहिं हैं।।
गुरु ने आम्रवृक्ष का उदाहरण, दिया उन्हें समझाने को,
दिया उन्हें समझाने को।।दीक्षा…।।२।।
वे ही आगे बने वीरसागर व चन्द्रसागर मुनिवर।
शांतिसिंधु जैसा गुरु पाकर, किया उन्होंने जन्म सफल।।
बने तभी आचार्य प्रथम वे, चउविध संघ चलाने को,
चउविध संघ चलाने को।।दीक्षा…।।३।।
संघ सहित करके विहार, गुरुवर कुंथलगिरि पहुँच गये।
वहाँ देशभूषण कुलभूषण, मुनि चरणों के दर्श किये।।
उनकी प्रतिमा बनवाई, उनका इतिहास बताने को,
उनका इतिहास बताने को।।दीक्षा…।।४।।
जिनशासन का भाग्य खिल गया, ऐसे तपसी गुरु पाकर।
सहे बहुत उपसर्ग परीषह, गुरुवर ने मुनि पद पाकर।।
बने ‘‘चन्दनामती’’ और भी, मुनि मुक्तीपद पाने को,
मुनी मुक्तिपद पाने को।।दीक्षा…।।५।।
(५)
सेठ पूनमचंद घासीलाल द्वारा अणुव्रत ग्रहण एवं संघ भक्त बनकर मुनिसंघ को सम्मेदशिखर यात्रा कराना
भव्यात्माओं! जिनशासन के इस सूर्य का प्रकाश पूरी धरती पर पैâला और कई भव्यात्माओं ने मुनिदीक्षा धारणकर आचार्य शांतिसागर महाराज को अपना गुरु बनाया।
आचार्यश्री के सान्निध्य को पाकर कई श्रावकों ने अणुव्रत भी धारण किये, उनमें से बम्बई के एक सेठ पूनमचंद घासीलाल का नाम बहुत प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ है।
सन् १९२७ में आचार्यश्री ने सप्तऋषि मुनियों के साथ संघ सहित दक्षिण से उत्तर भारत की ओर विहार किया था उसका संक्षिप्त कथानक इस काव्य कथा के माध्यम से प्रस्तुत है-
तर्ज-चलो सम्मेदशिखर चालो……..
सुनो इक पुण्यकथा सुन लो, पंचअणुव्रत की कथा सुन लो,
अणुव्रत का अतिशय लख तुम अणुव्रत धारण कर लो।।सुनो.।।टेक.।।
इक श्रावक ने गुरु से पंचअणुव्रत ग्रहण किया।
सत्य अिंहसा अरु अचौर्य, ब्रह्मचर्य का नियम लिया।।
परिग्रह का प्रमाण सुन लो,
पाँच पाप स्थूल त्याग का, चमत्कार सुन लो।।सुनो..।।१।।
परिग्रह सीमा बढ़ी तो श्रावक, मुनिसंघ में आए।
वे पूनमचंद घासीलाल जी, श्रेष्ठी कहलाए।।
गुरुभक्ती की कथा सुन लो,
श्री सम्मेदशिखर यात्रा का, भाव बना सुन लो।।सुनो..।।२।।
श्री आचार्य शांतिसागर का, संघ चला आगे।
संघभक्त वे श्रावक भी चले, यात्रा करवाने।।
यही इतिहास सभी सुन लो,
उत्तर भारत में मुनिसंघ विहार कथा सुन लो।।सुनो..।।३।।
यह सम्मेदशिखर की यात्रा, बनी चमत्कारी।
प्रथम पंचकल्याण महोत्सव, हुआ वहाँ भारी।।
गुरु उपकार कथा सुन लो,
परतंत्र के युग में स्वतंत्र मुनि संघ कथा सुन लो।।सुनो..।।४।।
राजाखेड़ा में प्राणांतक, हमला हुआ संघ पर।
फिर भी अभयदान दे सबको, क्षमा धरी उन पर।।
गुरु की महिमा तुम सुन लो,
संकट अरु उपसर्ग सहन की, शक्ति प्रगट कर लो।।सुनो..।।५।।
संघपती जौहरी श्री मोतीलाल ने दीक्षा ली।
जिनमंदिर बनवा गेंदनमल, ने भी दीक्षा ली।।
यही संस्कार कथा सुन लो,
ऐसे गुरु के चरण ‘‘चन्दनामती’’ सदा नम लो।।सुनो..।।६।।
(६)
बाहुबली प्रतिमा निर्माण एवं षट्खण्डागम को ताम्रपट्ट पर उत्कीर्ण करने की प्रेरणा
कहते हैं कि ‘‘गुरु की महिमा वरणी न जाय, गुरु नाम जपो मन वचन काय’’ अर्थात् एक गुरु के निमित्त से न जाने कितने प्राणियों का हृदय परिवर्तन हो जाता है और वे हैवान से इंसान ही क्या भगवान् तक भी बन जाते हैं।
इसी प्रकार आचार्य श्री शांतिसागर महाराज ने जहाँ अनेक गृहस्थ मनुष्यों को सदाचारी बनाया, अनेक श्रावक-श्राविकाओं को व्रती, क्षुल्लक, मुनि, आर्यिका बनाया, वहीं उन्होंने कुम्भोज में भगवान बाहुबली की प्रतिमा निर्माण हेतु प्रेरणा दी, षट्खण्डागम ग्रंथ को ताम्रपट्ट पर उत्कीर्ण कराकर उसे युग-युग व्ाâे लिए स्थायित्व प्रदान किया। इन्हीं सब बातों का वर्णन है इस काव्य कथानक में-
तर्ज-एक था बुल और एक थी बुलबुल…..
प्रथमाचार्य शांतिसागर की, गुणगाथा सब मिल गाओ।
हे भव्यात्मन्! उनकी गौरव-गाथा सबको बतलाओ।।
प्रथमाचार्य…..।।टेक.।।
श्री कुम्भोज में बाहुबली, प्रतिमा निर्माण प्रेरणा दी।
श्री समन्तभद्र मुनिवर को, तीर्थ विकास प्रेरणा दी।।
कहा उन्होंने कल्पवृक्ष सम प्रतिमा तीर्थ पे पधराओ।।
प्रथमाचार्य….।।१।।
सन् उन्निस सौ चव्वालिस में, गुरुवर को यह ज्ञात हुआ।
ताड़पत्र पर लिखित धवल, ग्रंथों का बहुतहि घात हुआ।।
बोले श्रुत की रक्षा हेतू विद्वानों को बुलवाओ।।
प्रथमाचार्य….।।२।।
संघपती ने खोज कराकर, उन ग्रंथों को मंगवाया।
ताम्रपट्ट पर उत्कीरण कर, उन्हें सुरक्षित करवाया।।
गुरु ने कहा अब हिन्दी में अनुवाद सभी का करवाओ।।
प्रथमाचार्य….।।३।।
श्रुतरक्षा के प्रति गुरु का, उपकार सदा स्मरण करो।
फल्टण अरु बम्बई में विराजित, उन ग्रंथों को नमन करो।।
अपने मंदिर में भी हिन्दी सहित ग्रंथ को पधराओ।।
प्रथमाचार्य….।।४।।
हीरक जन्म महोत्सव गुरु का, फल्टन नगरी में आया।
हाथी पर धवला ग्रंथों का, महाजुलूस निकलवाया।।
आज भी तुम ‘‘चन्दनामती’’ गुरु उपकारों को दरशाओ।।
प्रथमाचार्य….।।५।।
(७)
आचार्य शांतिसागर जी का अंतिम प्रवचन
महानुभावों! आचार्यश्री शांतिसागर महाराज ने क्षुल्लक और ऐलक अवस्था में ६ वर्ष बिताए और मुनि अवस्था में ३५ वर्ष ६ माह तक कठिन तपस्या की। अर्थात् ४१ वर्ष ६ माह का उनका जीवन पिच्छी-कमण्डलु सहित व्यतीत हुआ तथा लगभग इतना ही समय उनका घर में भी वैराग्य भाव के साथ बीता था। मतलब यह है कि लगभग ८२ वर्ष की आयु तक आचार्यश्री मनुष्य पर्याय में रहे और अंतिम समाधि से १० दिन पूर्व २६वें उपवास में उन्होंने अपना अंतिम संदेश सम्पूर्ण जैन समाज के लिए प्रस्तुत किया था, जो टेपरेकार्डर में रेकार्ड हुआ और आज भी वैâसेट-सी.डी. आदि के माध्यम से सुना जाता है-
तर्ज-माई रे माई……..
प्रथमाचार्य शांतिसागर का, अन्तिम प्रवचन सुन लो।
हो जाएगा जन्म सफल, गुरुवाणी मन में धर लो।।
बोलो गुरुवाणी की जय, बोलो जिनवाणी की जय।।टेक.।।
जिनवर के लघु नन्दन मुनिवर, मुनिव्रत पालन करते।
उग्र-उग्र तप करने हेतू, किये अनेकों व्रत थे।।
दस हजार उपवास की संख्या, सुनकर चिंतन कर लो।
हो जाएगा जन्म सफल, गुरुवाणी मन में धर लो।।
बोलो गुरुवाणी की जय, बोलो जिनवाणी की जय।।१।।
बारह वर्षीय सल्लेखना, धारण की थी गुरुवर ने।
अन्त समाधि से दस दिन पहले, प्रवचन किया था उनने।।
वही अमर संदेश था अंतिम, ध्यान से उसको सुन लो।
हो जाएगा जन्म सफल, गुरुवाणी मन में धर लो।।
बोलो गुरुवाणी की जय, बोलो जिनवाणी की जय।।२।।
वीर सिन्धु मुनिवर को अपना पट्टाचार्य बनाया।
संघपति से पत्र लिखाकर जयपुर में भिजवाया।।
पट्टाचार्य प्रथम की महिमा, भी ग्रंथों में पढ़ लो।
हो जाएगा जन्म सफल, गुरुवाणी मन में धर लो।।
बोलो गुरुवाणी की जय, बोलो जिनवाणी की जय।।३।।
बिन संयम सम्यक्त्व के जीवन, में संभव न समाधी।
संयम धारण करो-डरो मत, मिटेगी तब भव व्याधी।।
कहा धर्म का मूल दया, ‘चन्दनामती’ सब सुन लो।
हो जाएगा जन्म सफल, गुरुवाणी मन में धर लो।।
बोलो गुरुवाणी की जय, बोलो जिनवाणी की जय।।४।।
(८)
आचार्य की समाधि एवं ज्ञानमती माताजी को गुरुदेव का दर्शन लाभ
बंधुवर! यह संक्षिप्त जीवन परिचय और आचार्यश्री का कृतित्व कुछ काव्यों के माध्यम से प्रदर्शित किया गया है।
सन् १९५५ में चारित्रचक्रवर्ती आचार्यश्री शांतिसागर जी महाराज ने कुंथलगिरि सिद्धक्षेत्र पर यमसल्लेखना ली थी। आज उनकी औदारिक काया संसार में हमारे समक्ष नहीं है किन्तु उनकी अमर यश:काया सदैव जीवन्त रहेगी अत: उनके उपदेशों को अमल में लाकर सदैव गुरु भक्ति करते हुए अपने जीवन को सफल बनाने हेतु गुरुवर की अंतिम समाधि का चित्रण इस काव्य कथानक के माध्यम से श्रवण कीजिए-