साहित्य की दृष्टि में मानव जीवन का सार्थक उत्कर्ष सम्यग्ज्ञान से होता है। इसके क्रमिक विकास रत्नकरण्ड श्रावकाचार के ज्ञानाधिकार प्रकरण में मानव के पुरुषार्थसाध्य श्रुतज्ञान की विवक्षा की गई है। श्रुतज्ञान द्रव्यश्रुत पर आधारित है और द्रव्यश्रुत प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग तथा द्रव्यानुयोग इन चार वर्गों में विभक्त है। उस ग्रंथ में चारों अनुयोगों के पृथक्-पृथक् लक्षण दिये गये हैं। इससे ज्ञात होता है कि चारों अनुयोगों द्वारा समस्त शास्त्रों का वर्गीकरण सर्वप्रथम आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी ने किया है। प्रथमानुयोग के विषय में उल्लेख है कि जिसमें तीर्थंकर भगवन्तों, चक्रवर्ती, कामदेव आदि त्रेसठ शलाका पुरुषों के चरित्र का निरूपण किया गया हो, वह प्रथमानुयोग कहलाता है।
प्रथमानुयोगमर्थाख्यानं चरितं पुराणमपिपुण्यम्।
बोधिसमाधिनिधानं बोधति बोध: समीचीन:।।४३।।
अर्थात् सम्यक् श्रुतज्ञान परमार्थ विषय का कथन करने वाले एक पुरुषाश्रित कथा और (पुराण) त्रेसठ शलाका पुरुष सम्बन्धी कथारूप पुण्यवर्धक तथा बोधि और समाधि के निधान को प्रथमानुयोग कहते हैं।
उक्त श्लोक के टीकाकार आचार्य श्री प्रभाचन्द्र ने उक्त विषय के सन्दर्भ में उल्लेख किया है कि जिसमें एक पुरुष से सम्बन्ध रखने वाली वार्ता—कथा होती है, उसे चरित कहते हैं। जैसे—श्रेणिक चरित, श्रीपाल चरित, प्रद्युम्नचरित आदि तथा जिसमें त्रेसठ शलाका पुरुषों से सम्बन्ध रखने वाली कथा होती है, उसे पुराण कहते हैं। चरित ग्रन्थ और पुराण ग्रंथ दोनों ही प्रथमानुयोग शब्द से अभिहित हैं। यह प्रथमानुयोग उपन्यास की तरह कल्पित अर्थ का वर्णन नहीं करता, परमार्थ विषय का वर्णन करता है इसलिए इसे अर्थाख्यान कहते हैं। इसके पढ़ने और सुनने वाले जीवों को पुण्यबन्ध होता है इसलिए इसे पुण्य कहते हैं। इसके सिवाय यह प्रथमानुयोग बोधि अर्थात् रत्नत्रय की प्राप्ति और समाधि अर्थात् धर्म्य और शुक्लध्यान की प्राप्ति का निधान (भण्डार) है अत: सम्यग्ज्ञान ऐसे प्रथमानुयोग को जानता है।
तीर्थंकर प्रमाण हैं यह प्रथमानुयोग ही बतायेगा-
प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव अयोध्या में हुये हैं। उन्होेंने असि, मसि आदि छह प्रकार से आजीविका का उपाय बतलाया था। दीक्षा लेकर मुनिमार्ग को दिखाया था। भगवान महावीर स्वामी अंतिम तीर्थंकर थे। वे आज से लगभग २५०० वर्ष पूर्व इस भारत वसुन्धरा पर जन्मे थे, उन्होंने बारह वर्ष तक तपश्चरण करके केवलज्ञान को प्राप्त किया। इत्यादि रूप से तीर्थंकरों के आदर्श जीवन को जाने बगैर उनके वचनों में श्रद्धा वैâसे हो सकती है ? अर्थात् नहीं हो सकती। अतएव जिनागम को प्रमाण मानने के लिए प्रथमानुयोग का अध्ययन अतीव आवश्यक हो जाता है।
शंका-इन कथा पुराणों से सम्यक्त्व की उत्पत्ति नहीं हो सकती ?
समाधान-सम्यक्त्व के दश भेदों में जो ‘उपदेश सम्यग्दर्शन’ नाम का तीसरा भेद है उसका लक्षण यही है कि ‘तीर्थंकर आदि शलाका पुरुषों के उपदेश को सुनकर जो तत्त्व श्रद्धान होता है उसे ‘उपदेश सम्यग्दर्शन’ कहते हैं।
इसी प्रकार से जातिस्मरण आदि के निमित्त से उत्पन्न होने वाले सम्यक्त्व के उदाहरणों को प्रथमानुयोग में ही देखा जा सकता है।
विदेह क्षेत्र में प्रभाकरी नगरी के समीप पर्वत पर राजा प्रीतिवर्धन ठहरे हुए थे। वहाँ पर मासोपवासी पिहितास्रव मुनिराज को आहारदान दिया। उस समय देवों द्वारा पंचाश्चर्य किये गये। इस दृश्य को देखकर वहीं पर्वत पर एक सिंह था उसे जातिस्मरण हो गया उसने सम्यक्त्व और श्रावक के व्रत ग्रहण कर चतुराहार त्यागकर सल्लेखना ग्रहण कर ली। कालान्तर में वही सिंह का जीव भरत चक्रवर्ती हुआ है।
नकुल, सिंह, वानर और सूकर इन चारों जीवों को भी आहारदान देखने से जातिस्मरण हो गया जिससे वे सभी संसार से विरक्त हो दान की अनुमोदना के फल से भोगभूमि में आर्य हुये। अनंतर आठवें भव में श्री वृषभदेव के पुत्र होकर मोक्ष चले गये।
मारीचि कुमार ने मान कषाय से मिथ्यात्व का प्रचार करके असंख्य भवों तक त्रस स्थावर योनियों में परिभ्रमण किया। अनंतर सिंह की पर्याय में जब वह हरिण का शिकार कर रहा था। उस समय अजितंजय और अमितगुण नामक चारण मुनियों के द्वारा धर्मोपदेश को प्राप्तकर सम्यग्दर्शन ग्रहण कर लिया। श्रीगुणभद्रसूरि कहते हैं कि-‘सिंह की आँखों से बहुत देर तक अश्रुरूपी जल गिरता रहा जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो हृदय में सम्यक्त्व को स्थान देने के लिए मिथ्यात्व ही बाहर निकल रहा है।
इस पर्याय में सम्यक्त्व, देशसंयम और बालपण्डितमरणरूप सल्लेखना को ग्रहण कर उस िंसह ने देव पद प्राप्त किया। इस सिंह से दशवें भव में वह भगवान महावीर हुआ। इन उदाहरणों से स्पष्ट हो जाता है कि मुनियों का दर्शन, उनका उपदेश सम्यक्त्वोत्पत्ति में कारण बन गया।
किसी समय अरिंवद महाराज ने विरक्त होकर दीक्षा ले ली और संघ सहित सम्मेदशिखर की यात्रा को जा रहे थे। मार्ग में एक वन में प्रतिमायोग से वे मुनि विराजमान हो गये। उन्हें देखकर मदोन्मत्त हाथी (मरुभूति का जीव) उन्हें मारने के लिए दौड़ा। किन्तु उनके वक्षस्थल पर श्रीवत्स का चिन्ह देखते ही उसे जातिस्मरण हो गया। पुन: उसने शांतचित्त होकर मुनिराज के मुख से धर्मोपदेश श्रवण कर श्रावक के व्रत ग्रहण कर लिये। इस हाथी की पर्याय में सम्यक्त्व को प्राप्त कर वह जीव उससे आठवें भव में श्री पार्श्वनाथ तीर्थंकर हुआ।
इन उदाहरणों से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि गुरुओं के उपदेश से मनुष्य ही नहीं तिर्यंच भी लाभ लेते थे तथा आचार्य भी संघ सहित सम्मेदशिखर की यात्रा करते थे।
इन अचेतन भी तीर्थस्वरूप सम्मेदशिखर आदि की भक्ति में श्री गौतमस्वामी ने बहुत ही सुंदर सूत्रवाक्यों का उच्चारण किया है यथा-
‘‘उड्ढमहतिरियलोए सिद्धायदणाणि णमंसामि, सिद्धिणिसीहियाओ अट्ठावयपव्वए सम्मेदे उज्जंते चंपाए पावाए मज्झिमाए हत्थिवालियसहाए जाओ अण्णाओ काओ वि णिसीहियाओ जीवलोयम्मि।’’
‘ऊर्ध्व, अधो, मध्यलोक में जो सिद्धायतन हैं-कृत्रिम-अकृत्रिम जिनमंदिर हैं और जो सिद्धों की निषीधिकायें हैं अर्थात् निर्वाण क्षेत्र हैं, ये कौन-कौन हैं ? अष्टापद-वैâलाशपर्वत, सम्मेदपर्वत, ऊर्जयंत-गिरनारपर्वत, चम्पानगरी, पावानगरी, मध्ययानगरी और हस्तिवालिकामंडप ये मुक्त जीवों की निर्वाणभूमि हैं, इनसे अतिरिक्त और भी जो निर्वाणभूमियाँ इस ढाई द्वीप में हैं उन सबको मैं नमस्कार करता हूँ।’
शंका-मुनि तीर्थों की वंदना करें किन्तु वे किसी विधान आदि उत्सवों में तो सम्मिलित नहीं हो सकते ?
समाधान-क्यों नहीं हो सकते ? देखिये गुणभद्रसूरि कहते हैं कि ‘‘अयोध्या के अधिपति, ‘आनंद’ महावैभव के धारक मण्डलेश्वर राजा हुये हैं। इन्होंने किसी समय वसंत ऋतु की आष्टान्हिका में ‘महापूजा’ कराई। उसे देखने के लिये वहाँ पर विपुलमति नाम के महामुनिराज पधारे थे। उन्होंने राजा के प्रश्नानुसार ‘अचेतन रत्नादि की मूर्तियाँ अचिन्त्य फल देने वाली हैं’ इस विषय पर बहुत ही विस्तृत उपदेश दिया था पुन: अकृत्रिम चैत्यालयों का वर्णन करते हुये सूर्य विमान में स्थित अकृत्रिम जिनालय का वर्णन किया था।’’ वह सब सुनकर आनंदराजा ने भक्ति से विभोर हो सूर्यविमान बनवाकर उसमें स्थित चैत्यालय बनवाया और उसमें जिनप्रतिमायें विराजमान करके उसकी नित्यपूजा करने लगा। राजा को उस सूर्य के मंदिर की पूजा करते देख अज्ञानी लोग उसके रहस्य को न समझकर सूर्य को अर्घ्य चढ़ाना आदि पूजा करने लगे यह ‘सूर्य पूजा’ तभी से चल पड़ी है इत्यादि।’’ ये ही आनंद महाराज तृतीय भव में पार्श्वनाथ तीर्थंकर हुये हैं।
यदि हम प्रथमानुयोग का स्वाध्याय न करें तो हमारी इन शंकाओं का समाधान कैसे हो ?
इन पुराणों के पढ़ने से तत्काल में महान् पुण्य का संचय होता है और अशुभकर्मों की निर्जरा हो जाती है। चूँकि ये भी जिनवचन हैं। बारहवें अंग के पाँच२ भेदों में से यह ‘प्रथमानुयोग’ तृतीय भेदरूप है इसलिये द्वादशांग के अंतर्गत ही है।
पद्मपुराण में मर्यादापुरुषोत्तम रामचंद्र का जीवन पढ़कर सहज ही भावना उत्पन्न हो जाती है कि उनके गुणों में से कुछ भी गुणों का अंश मुझे प्राप्त होने का सौभाग्य मिले। रावण के दुराग्रह को पढ़कर कोई भी मनुष्य रावण बनने का इच्छुक नहीं होता है प्रत्युत् रामचंद्र के जीवन को ही अपने में उतारने की भावना करता है। पिता के आदेश को पालन करने के लिये अपने लिये उचित और योग्य ऐसे राज्य का मोह छोड़ना व वन में विचरण करना यह उदाहरण हर किसी को पिता की आज्ञा पालने की शिक्षा देता है।
सीता के आदर्श जीवन से महिलायें अपने सतीत्व की रक्षा के प्रति उत्साहित होती हैं। अहो! शील का माहात्म्य क्या है ? कि जिसने अग्नि को क्षणमात्र में जल का सरोवर बना दिया। कुलीन महिलायें इन पुराणों के आधार से ही अपने शील रत्न को सुरक्षित रख लेती हैंं।
‘पिता के लिये अपने सर्वस्व को तिलांजलि दे देना यह भीष्म पितामह का आजीवन ब्रह्मचर्यव्रतरूप कठोर त्याग पितृभक्ति को उद्वेलित किये बिना नहीं रहता है।’३ लक्ष्मण की भ्रातृभक्ति देखकर भाई-भाई आपस में प्रेम करने का उदाहरण ग्रहण करते हैं।
ब्राह्मी, सुंदरी, अनंतमती, चंदना आदि के उदाहरण बालिकाओं को ब्रह्मचर्य व्रत की प्रेरणा के स्रोत बन जाते हैं। इन आदर्श नारियों का इतिहास पढ़ने वाली महिलायें कभी भी सूर्पनखा बनने की भावना नहीं करती हैं प्रत्युत् चंदना, मनोरमा बनने की ही भावना भाती हैं।
अकलंक निकलंक नाटक देखने वाले नवयुवकों में धर्म की रक्षा के लिए बलिदान का भाव जाग्रत हो उठता है। जैसे-आजकल सिनेमा और टेलीविजन के अश्लील दृश्य तथा रेडियो के अश्लील गाने सुनकर नवयुवक व नवयुवतियाँ चारित्र च्युत होते हुये दिखाई देते हैं ऐसे ही धार्मिक कथायें और नाटक भी बेमालूम कुछ न कुछ संस्कार अवश्य ही छोड़ देते हैं।
यद्यपि यह नियम है कि पानी का प्रवाह स्वभावत: नीचे की ओर ही जाता है। प्रयोग से, यंत्रों के निमित्त से ही वह ऊपर जाता है। उसी प्रकार से मन अनादिकालीन अविद्या के संस्कार से सदैव नीचे-अशुभ प्रवृत्तियों की ओर ही झुकता है उसको ऊपर की ओर उठाने के लिये इन महापुरुषों का आदर्श सामने रखना ही चाहिये। इसका अभिप्राय यही है कि प्रतिदिन प्रथमानुयोग ग्रंथ अवश्य पढ़ने चाहिए। इससे चारित्र की प्रेरणा मिलती है तथा अपने में अन्यों को चारित्र में स्थिर करने की युक्ति सूझती है।
‘एक बार राजा श्रेणिक ने समवसरण में एक मुनि के बारे में प्रश्न किया, उत्तर में श्री गौतमस्वामी ने कहा-राजन्! तुम शीघ्र ही वहाँ जावो, उन मुनि के ध्यान में इस समय रौद्र भावना चल रही है यदि अंतर्मुहूर्त काल यही स्थिति रही तो उनके नरकायु का बंध हो जायेगा अत: तुम जाकर उन्हें संबोधन करो। राजा श्रेणिक ने जाकर उन्हें संबोधित किया उसी समय वे मुनि रौद्रध्यान से हटकर धर्मध्यान में आये और तत्क्षण ही शुक्लध्यान में आरुढ़ हो गये, अंतर्मुहूर्त में ही उन्हें केवलज्ञान प्रगट हो गया।’’
सुकुमाल, गजकुमार आदि मुनियों ने उपसर्ग के समय भी धैर्य से अपने परिणामों को संभाला और सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हो गये। सल्लेखना के समय क्षपक मुनि को निर्यापकाचार्य ऐसे-ऐसे उदाहरण सुनाकर धर्मभावना में स्थिर करते हैं। अकंपनाचार्य आदि सात सौ मुनियों का उपसर्ग दूर करने के लिये श्री विष्णुकुमार महामुनि ने अपना वेष छोड़ दिया और अपनी विक्रिया ऋद्धि के बल से उन मुनियों की रक्षा की। यह घटना भी धर्मात्माओं के प्रति वात्सल्य का एक ज्वलंत उदाहरण ही है।
तीर्थंकर होने वाले महापुरुष भी कितने भव तक पुरुषार्थ करते हैं-
सम्यग्दर्शन होते ही मोक्षप्राप्ति सुलभ नहीं है। तीर्थंकरादि महापुरुषों ने भी कई भव तक दीक्षा ले-लेकर घोर तपश्चरण किया है जब कहीं सिद्धि मिली है। यह बात प्रथमानुयोग से ही तो जानी जाती है। देखिये-
भगवान वृषभदेव के जीव ने महाबल विद्याधर की पर्याय में स्वयंबुद्ध मंत्री के सम्बोधन से आठ दिन आष्टान्हिक पूजा करके २२ दिन की सल्लेखना ग्रहण की, पुन: ललितांग देव हुआ था। वहाँ से आकर वङ्काजंघ राजा होकर श्रीमती रानी के साथ चारण मुनियों को आहार देकर जो पुण्य संचित किया उसके फलस्वरूप भोगभूमि में उत्पन्न हुये, तब तक उन्हें सम्यक्त्व नहीं था। भोगभूमि में मुनियों के उपदेश से सम्यक्त्व प्राप्त किया पुन: श्रीधर देव हुये, अनंतर सुविधि राजा होकर पुत्र (श्रीमती के जीव केशव) के मोह में पड़कर दीक्षा न ले सकने के कारण श्रावक के उत्कृष्ट व्रत (क्षुल्लक) तक धारण करके अंत में दीक्षा लेकर सल्लेखना से मरण कर अच्युतेन्द्र हुये। पुन: वङ्कानाभि चक्रवर्ती होकर छह खंड का राज्य भोगकर उसका त्याग करके दीक्षित हो गये। उनके पिता वङ्कासेन तीर्थंकर थे उनके समवसरण में दीक्षा लेकर ‘सम्पूर्ण द्वादशांगरूप’१ श्रुत का अध्ययन करके सोलहकारण भावनाओं द्वारा तीर्थंकर के पादमूल में तीर्थंकर प्रकृति बांध ली व जिनकल्पी मुनि होकर विचरण करने लगे। एक समय ध्यान में आरुढ़ थे उस समय उपशम श्रेणी पर चढ़ गये और ग्यारहवें गुणस्थान में पहुँचकर यथाख्यात चारित्र के धारक पूर्ण वीतरागी हो गये। पुन: वहाँ से उतरकर वापस सातवें-छठे गुणस्थान में आ गये।
‘पुनरपि द्वितीय बार उपशम श्रेणी में आरोहण करके पृथक्त्ववितर्क शुक्लध्यान को पूर्णकर उत्कृष्ट समाधि को प्राप्त हुये। उसी समय उनकी आयु पूर्ण हो गई और उस ग्यारहवें गुणस्थान में मरण कर सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हो गये।’ वहाँ से चयकर भगवान वृषभदेव हुये हैं।
इस प्रकार से भगवान के इन दश भवों को पढ़ने के बाद यह निश्चित हो जाता है कि जब तीर्थंकर होने वाले महापुरुषों को इतनी तैयारी करनी पड़ती है। अहो! पूर्वभव में दो बार उपशम श्रेणी में आरोहण करने की उत्कृष्ट विशुद्धि को प्राप्त कर लेना पुन: अविरति हो जाना कितनी विचित्रता है। फिर तीर्थंकर के भव में भी हजार वर्ष तक तपश्चरण करना पड़ा तब कहीं जाकर घातिया कर्मों के नाश हेतु क्षपक श्रेणी पर आरोहण कर पाये और उत्कृष्ट आत्मध्यान के ध्याता हो पाये।
‘महाबल विद्याधर के चार मंत्रियों में तीन मंत्री मिथ्यादृष्टि थे उनमें से संभिन्नमति और महामति तो मिथ्यात्व के पाप से निगोद में चले गये और शतमति नरक में चला गया। उस नरक में जाने वाले मंत्री के जीव को तो श्रीधर देव ने धर्म का उपदेश देकर सम्यक्त्व ग्रहण करा दिया किन्तु निगोद में वैâसे सम्बोधन दिया जा सकता है ?’१
इस उदाहरण को पढ़कर मिथ्यात्व से कितना भय उत्पन्न होता है, अहो! यदि मैं िंकचित् भी जिनवाणी के प्रति अश्रद्धा करके मिथ्यात्व को प्राप्त हो जाऊँगा तो पुन: यदि निगोद में चला गया तो क्या होगा ? मुझे कौन उपदेश देगा ? इसलिये शास्त्र के वाक्यों पर अश्रद्धा करके अपने सम्यक्त्व को नहीं गंवाना चाहिये।
जिनप्रतिमा के अपमान से अंजना ने बाईस वर्ष तक पति वियोग का दु:ख सहन किया। िंकचित् मुनिनिंदा के पाप से वेदवती ने जो निकाचित बंध किया उसके फलस्वरूप सीता की पर्याय में लोकापवाद को प्राप्त होकर देश निष्कासन का दु:ख सहन किया। लक्ष्मीमती आदि अनेकों महिलाओं ने मुनियों का अपमान करके कुष्ट रोग से पीड़ित होकर तिर्यंच योनियों के और नरकों के घोर दु:ख सहे हैं। पुन: मुनियों के उपदेश से रोहिणी व्रत, सुगंधदशमी व्रत आदि के अनुष्ठान से उत्तम गति पाई है। मैनासुंदरी ने पति के कुष्ट रोग को दूर करने के लिए मुनि के उपदेश से सिद्धचक्र विधान का अनुष्ठान किया था। मैनासुंदरी भी सम्यग्दृष्टि थी और वैसा संकट दूर करने का उपाय बतलाने वाले मुनि भी सम्यग्दृष्टि भावश्रमण ही थे।
राजा सुभौम ने जीवन के लोभ से महामंत्र का अपमान कर सप्तम नरक को प्राप्त कर लिया। जीवंधर के द्वारा दिये गये महामंत्र को सुनकर कुत्ते ने प्राण छोड़े तो यक्षेन्द्र हो गया और जीवन भर जीवंधर स्वामी के प्रति कृतज्ञ होकर उपकार करता रहा। रात्रि भोजन त्याग करने मात्र से सियार ने तिर्यंच योनि छोड़कर मनुष्य पर्याय पाकर प्रीतिंकर कुमार होकर उसी भव से मोक्ष प्राप्त कर लिया।
इस प्रकार से पुण्य और पाप के फलस्वरूप नाना उदाहरणों को देखकर सहज ही पाप से भय उत्पन्न होता है तथा धर्म में श्रद्धा, अनुराग और गाढ़ भक्ति जाग्रत हो जाती है।
अत: श्रावकों को ही नहीं, मुनि आर्यिकाओं को भी प्रतिदिन प्रथमानुयोग का स्वाध्याय करना चाहिए।
प्राकृत भाषा में निबद्ध साहित्य-
१. पउमचरिउ विमलसूरि कृत-उक्त ग्रंथ में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्र के जीवन चरित्र पर प्रकाश डाला गया है। श्रीरामचन्द्र की धर्म न्यायनीति एवं सत्य पर पूर्ण निष्ठा का उत्तम आदर्श विश्व के लिए प्रेरक एवं मार्गदर्शक है। धर्म में प्रवृत्ति बढ़ाने वाला है।
२. नेमिचन्द्र सूरिकृत—‘महावीर चरिउ’—इस ग्रंथ में भगवान् महावीर के पूर्व भवों का वर्णन करते हुए बताया है कि जिनशासन की विराधना से मारीचि के जीव को अनेक योनियों में जन्म लेना पड़ा था अत: धर्म की विराधना नहीं करने का सन्देश प्राप्त होता है।
३. सोमप्रभ सूरिकृत—‘सुमतिनाह चरियं’—इसमें भगवान् सुमतिनाथ के जीवनचरित का वर्णन किया गया है।
४. वर्धमानसूरिकृत—‘आदिनाह चरियं’—इस ग्रंथ में तीर्थंकर ऋषभदेव के जीवनचरित का वर्णन कर विश्व समाज को मार्गदर्शन दिया है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पुरुषार्थ को समझाया है।
५. अनन्त हंसकृत कुम्मापुत चरियं—इस ग्रंथ में दान, शील, तप और भाव शुद्धि की महत्ता का वर्णन किया है।
अपभ्रंश साहित्य में-सिरहर कृत ‘‘वड्ढमाण चरिउ” ग्रंथ में भगवान् महावीर के जीवनचरित पर प्रकाश डाला गया है तथा वर्तमान समय के प्राणियों को सन्मार्ग का उपदेश दिया गया है।
प्रथमानुयोग साहित्य में संस्कृत भाषा में निबद्ध चरितकाव्य निम्न प्रकार हैं:-
१. रविषेणकृत पद्मचरित, २. जटासिंहनन्दिकृत वरांगचरित, ३. गुणभद्रकृत जिनदत्तचरित, ४. वीरनन्दिकृत चन्द्रप्रभचरित, ५. महासेनकृत प्रद्युम्नचरित, ६. असगकविकृत वर्धमानचरित, ७. वादिराजकृत पार्श्वनाथ चरित, यशोधरचरित, ८. मल्लिषेणकृत नागकुमार चरित, ९. हेमचन्द्रकृत त्रिशष्ठिशलाका पुरुष चरित, कुमारपाल चरित। १०. नेमिचन्द्रकृत-धर्मनाथ चरित, ११. गुणभद्रमुनिकृत-धन्यकुमार चरित, १२. देवप्रभसूरिकृत पाण्डव चरित, १३. जिनपालकृत सनत्कुमार चरित, १४. माणिक्यचन्दसूरिकृत पार्श्वनाथ चरित, १५. अमरसूरिकृत चतुा\वशति जिनेन्द्रदत्त चरित १६. वर्धमानसूरि कृत वासुपूज्य चरित, १७. वर्धमान भट्टारककृत वरांगचरित, १८. पद्मनन्दिकृत वर्धमान चरित, १९. भट्टारक सकलकीर्तिकृत वीर वर्धमान चरित, २०. यशोधर देवकृत चन्द्रप्रभ चरित, २१. नेमिचन्द्रकृत अनन्तनाथ चरित, २२. देवचन्द्रकृत शान्तिनाथ चरित, २३. जिनेवरकृत मल्लिनाथ चरित, २४. श्रीचन्द्र कृत मुनिसुव्रत चरित आदि अनेक चरित ग्रंथों में प्रथमानुयोग का वर्णन कथानकों के द्वारा जगत् के जीवों के कल्याणार्थ हुआ है। संस्कृत के चरित ग्रंथों के रचनाकार, संस्कृत भाषा के प्रौढ़ पंडित आचार्य सकलकीर्ति के निम्नलिखित चरित ग्रन्थों से अिंहसा धर्म का महत्त्व प्रतिपादित होता है, सदाचार के परिपालन में दृढ़ता प्राप्त होती है। वे इस प्रकार हैं—१. शान्तिनाथ चरित, २. वर्द्धमान चरित, ३. मल्लिनाथ चरित, ४. यशोधर चरित, ५. धन्यकुमार चरित, ६. सुकुमाल चरित, ७. जम्बूस्वामी चरित, ८. सुदर्शन चरित, ९. श्रीपाल चरित, १०. वृषभनाथ चरित।
अन्य आचार्यों द्वारा रचित चरित ग्रंथों का उल्लेख इस प्रकार है-
विद्यानंदिकृत सुदर्शन चरित, ज्ञानसागरकृत विमल चरित, रत्नकीर्तिकृत भद्रवाहु चरित, कविराज मल्लकृत जम्बूस्वामी चरित, रत्नचन्द्रमणिकृत प्रद्युम्न चरित, ज्ञानविमलसूरिकृत श्रीपाल चरित, पं. भूरामल शास्त्रीकृत समुद्रदत्त चरित आदि ग्रंथों से उत्तम आचरण एवं पापों से बचने की भावना जाग्रत होती है। चरित ग्रंथों के आधार पर धर्माचरण का उन्नयन होता है तथा जो ग्रंथों का स्वाध्याय करने में समर्थ नहीं होते, उन्हें भी विशेष लाभ नाटक साहित्य से प्राप्त होता है। इसी दृष्टि से जैनधर्म की महत्ता बढ़ाने वाले मैनासुन्दरी नाटक, सोमा सती नाटक, चन्दनबाला नाटक, सीता की अग्नि परीक्षा आदि अनेक नाटक हैं जो धर्म की महिमा बढ़ाने वाले हैं। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पांच व्रतों की महिमा के अनेकों कथानकों व उदाहरणों को प्राणियों के कल्याणार्थ प्रस्तुत किया गया है।
पुराण ग्रंथों में प्रतिपादित जैनधर्म के सिद्धान्तों को महिमामण्डित कर यथार्थता का बोध कराने में महनीय योगदान प्राप्त हुआ है। संक्षेप में प्रमुख आचार्यों द्वारा रचित पुराणों का उल्लेख इस प्रकार है-
१. आचार्य रविषेणकृत पदमपुराण—इसमें मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का आदर्श चरित एवं राम और सीता की धर्मपरायण मिसाल लोक के लिए प्रेरक है।
२. आचार्य जिनसेनकृत—आदिपुराण-इसमें वर्णित भगवान् आदिनाथ के जीवनचरित के साथ-साथ कर्मयुग के प्रारम्भ में सम्पूर्ण शिक्षाएँ देकर आदिनाथ ने जगत् के जीवों का उद्धार किया है।
३. आचार्य गुणभद्र कृत—उत्तरपुराण-इसमें तीर्थंकरों के जीवनचरित के वर्णन के साथ नारायण आदि का वर्णन कर जीवन को आदर्शमय बनाने का सन्देश दिया है।
४. आचार्य जिनसेन कृत—हरिवंश पुराण-इसमें भगवान् नेमिनाथ के साथ नारायण और बलभद्र पद के धारक श्रीकृष्ण तथा बलराम (बलदेव) के भी कौतुकावह चरित इसमें लिखे गये हैं। पाण्डवों तथा कौरवों का लोकप्रिय चरित इसमें बड़ी सुन्दरता के साथ अंकित है।
५. पाण्डव पुराण-इस ग्रन्थ में पाण्डवों के जीवन आदर्शों का वर्णन किया गया है।
६. आचार्य श्रीभूषणकृत शान्तिनाथ पुराण—इस पुराण ग्रंथ में १६वें तीर्थंकर श्री शान्तिनाथ भगवान् के पूर्व भवों का वर्णन किया गया है। तीर्थंकर, कामदेव और चक्रवर्ती उक्त तीन पद के धारी का जीवनदर्शन संसार के लिए एक आदर्श जीवन जीने की शिक्षा देता है। लोककल्याण के साथ-साथ स्वयं मुक्ति को वरण करने का परम पुरुषार्थी बन जाता है।
इसमें निम्नलिखित कथाएं उल्लेखनीय हैं—(१) पुण्याश्रव कथाकोष, (२) व्रत कथाकोष, (३) आराधना कथाकोष, (४) रात्रि भोजन त्याग कथा, (५) नागकुमार कथा, (६) पुष्पाञ्जलिव्रत कथा, (७) रविव्रत कथा, (८) भट्टारक विद्याधरकथा, (९) अष्टांग सम्यक्त्व कथा, (१०) सप्तव्यसन कथा (११) मौनव्रत कथा, (१२) द्वादशी कथा, (१३) दशलक्षण कथा, (१४) पल्ली विधान कथा, (१५) नि:शल्याष्टमी कथा, (१६) श्रुतस्कन्ध कथा, (१७) मौन एकादशी कथा, (१८) जिनकथा, (१९) लवणांकुश कथा, (२०) अनन्तव्रत कथा, (२१) सुगन्धदशमी व्रत कथा,(२२) नन्दीश्वर व्रत कथा, (२३) षोडशकारण व्रत कथा, (२४) रत्नत्रय व्रत कथा, (२५) कर्मनिर्जरचतुर्दशीव्रत कथा, (२६) मुकुटसप्तमी कथा, (२७) षटरस कथा, (२८) सप्तपरमस्थान कथा, (२९) काञ्जिका व्रत कथा, (३०) रक्षा विधान कथा, (३१) अक्षयनिधिदशमी व्रत कथा, (३२) ज्येष्ठ जिनवर कथा, (३३) आकाशपंचमी कथा, (३४) रोहिणीव्रत कथा, (३५) धनकलश कथा, (३६) निर्दोषसप्तमी कथा, (३७) लब्धिविधान कथा, (३८) पुरन्दर विधान कथा।
इस प्रकार प्रथमानुयोग जिनवाणी का एक प्रमुख अंग है। कथा के माध्यम से वस्तुस्वरूप का प्रतिपादन करने वाला यह अंग प्राथमिक जीवों के लिए अत्यन्त हितकारी है, इसे सुनकर सुनने वाले जीवों को बोधि और समाधि की प्राप्ति होती है। सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति को बोधि कहते हैं। प्राप्त तत्त्वों को अच्छी तरह जानना अथवा धर्म्म और शुक्लध्यान की प्राप्त होना समाधि है। प्रथमानुयोग में दोनों का निधान (भण्डार) है। प्रथमानुयोग बांचने और सुनने वाले जीवों की मानसिक पवित्रता का कारण होने से पुण्य रूप होता है। जम्बूूस्वामी चरित, प्रद्युम्नचरित, महापुराण, उत्तरपुराण, पद्मपुराण आदि इसके उदाहरण हैं।
मोक्षमार्गप्रकाशक के आठवें अधिकार में उल्लेख किया गया है कि प्रथमानुयोग में तो संसार की विचित्रता, पुण्य-पाप का फल, महन्त पुरुषों की प्रवृत्ति आदि के निरूपण से जीवों को धर्म में लगाया है। जो जीव तुच्छ बुद्धि हों, वे भी उससे धर्म सम्मुख होते हैं क्योंकि वे जीव सूक्ष्म निरूपण को नहीं पहचानते हैं, लौकिक कथाओं को जानते हैं, वहाँ उनका उपयोग लगता है। प्रथमानुयोग में लौकिक प्रवृत्ति रूप ही निरूपण होने से उसे वे भली-भाँति समझ पाते हैं तथा लोक में राजादि की कथाओं में पाप का पोषण होता है।