-सोरठा—
जिनवर गुणमणि तेज, सर्वलोक में व्यापता।
हो मुझ ज्ञान अशेष, पुष्पांजलि कर पूजहूँ।।
अथ मंडलस्योपरि प्रथमकोष्ठकस्थाने पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
-शंभु छंद-
श्री आदिनाथ के जन्म समय से, दश अतिशय सुखदाता हैं।
उनके तनु में निंह हो पसेव, यह अतिशय गुण मन भाता है।।
मैं पूजूँ इस अतिशययुत को, वे तीर्थंकर पदधारी हैं।
उन त्रिभुवन गुरु की पूजा ही, भव भय संकट परिहारी है।।१।।
ॐ ह्रीं नि:स्वेदत्वसहजातिशयगुणमंडिताय अतिशायिसम्यग्दर्शनफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
माता की कुक्षी से जन्मे, औदारिक तनु मानव का है।
फिर भी मलमूत्र नहीं तुममें, यह अतिशय पुण्य उदय का है।।
मैं पूजूँ इस अितशययुत को, वे तीर्थंकर पदधारी हैं।
उन त्रिभुवन गुरु की पूजा ही, भव भय संकट परिहारी है।।२।।
ॐ ह्रीं मलरहितसहजातिशयगुणमंडिताय अतिशायिसम्यग्दर्शनफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तन में श्वेत रुधिर पयसम, यह अतिशय तीर्थंकर के हो।
अतएव मात सम त्रिभुवनजन, पोषण करते उदारमन हो।।
मैं पूजूँ इस अतिशययुत को, वे तीर्थंकर पदधारी हैं।
उन त्रिभुवन गुरु की पूजा ही, भव भय संकट परिहारी है।।३।।
ॐ ह्रीं क्षीरसमरुधिरत्वसहजातिशयगुणमंडिताय अतिशायिसम्यग्दर्शनफल-प्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तम संहनन सुवङ्कावृषभ-नाराच कहाता शक्ति धरे।
यह अन्य जनों को सुलभ तथापी, तुममें अतिशय नाम धरे।।
मैं पूजूँ इस अतिशययुत को, वे तीर्थंकर पदधारी हैं।
उन त्रिभुवन गुरु की पूजा ही, भव भय संकट परिहारी है।।४।।
ॐ ह्रीं वङ्काऋषभनाराचसंहननसहजातिशयगुणमंडिताय अतिशायि-सम्यग्दर्शनफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तनु में एक एक अवयव, सब माप सहित अतिशय सुन्दर।
यह समचतुरस्र नाम का ही, संस्थान कहा त्रिभुवन मनहर।।
मैं पूजूँ इस अतिशययुत को, वे तीर्थंकर पदधारी हैं।
उन त्रिभुवन गुरु की पूजा ही, भव भय संकट परिहारी है।।५।।
ॐ ह्रीं समचतुरस्रसंस्थानसहजातिशयगुणमंडिताय अतिशायिसम्यग्दर्शन-फलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिभुवन में उपमारहित रूप, अतिसुन्दर अणुओं से निर्मित।
सुरपति निज नेत्र हजार बना, प्रभु को निरखे फिर भी अतृप्त।।
मैं पूजूँ इस अतिशययुत को, वे तीर्थंकर पदधारी हैं।
उन त्रिभुवन गुरु की पूजा ही, भव भय संकट परिहारी है।।६।।
ॐ ह्रीं अनुपमरूपसहजातिशयगुणमंडिताय अतिशायिसम्यग्दर्शनफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नव चंपक की उत्तम सुगंधि, सम देह सुगंधित प्रभु का है।
यह अतिशय अन्य मनुज तनु में, निंह कभी प्राप्त हो सकता है।।
मैं पूजूँ इस अतिशययुत को, वे तीर्थंकर पदधारी हैं।
उन त्रिभुवन गुरु की पूजा ही, भव भय संकट परिहारी है।।७।।
ॐ ह्रीं सौगन्ध्यसहजातिशयगुणमंडिताय अतिशायिसम्यग्दर्शनफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शुभ एक हजार आठ लक्षण, प्रभु तनु का अतिशय कहते हैं।
यह तीन जगत में भी उत्तम, अतएव इन्द्र सब नमते हैं।।
मैं पूजूँ इस अतिशययुत को, वे तीर्थंकर पदधारी हैं।
उन त्रिभुवन गुरु की पूजा ही, भव भय संकट परिहारी है।।८।।
ॐ ह्रीं अष्टोत्तरसहस्रशुभलक्षणसहजातिशयगुणमंडिताय अतिशायि-सम्यग्दर्शनफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तनु में अनंत१ बल वीर्य रहे, जन्मत ही यह अतिशय प्रगटे।
अतएव हजार-हजार बड़े, कलशों से न्हवन भि झेल सकें।।
मैं पूजूँ इस अतिशययुत को, वे तीर्थंकर पदधारी हैं।
उन त्रिभुवन गुरु की पूजा ही, भव भय संकट परिहारी है।।९।।
ॐ ह्रीं अनंतबलवीर्यसहजातिशयगुणमंडिताय अतिशायिसम्यग्दर्शन-फलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हित मित सुमधुर वाणी प्रभु की, जन मन को अतिशय प्रिय लगती।
त्रिभुवन हितकारी भावों से, यह अद्भुत वचन शक्ति मिलती।।
मैं पूजूँ इस अतिशययुत को, वे तीर्थंकर पदधारी हैं।
उन त्रिभुवन गुरु की पूजा ही, भव भय संकट परिहारी है।।१०।।
ॐ ह्रीं प्रियहितमितमधुरवचनसहजातिशयगुणमंडिताय अतिशायि-सम्यग्दर्शनफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-नरेन्द्र छंद-
केवलज्योति प्रगट होते इक२, दश अतिशय होते हैं।
चारों दिश में सुभिक्ष होवे, चउ चउ सौ कोसों में।।
घातिकर्म के क्षय से अतिशय, प्रगटे उनको पूजूँ।
मुझमें केवलज्ञान सौख्य हो, भव भव दु;ख से छूटूँ।।११।।
ॐ ह्रीं गव्यूतिशतचतुष्टयसुभिक्षताकेवलज्ञानातिशयगुणमंडिताय अतिशायि-सम्यग्ज्ञानफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ज्ञान प्रगट होते ही जिनवर, गगन गमन करते हैं।
बीस हजार हाथ ऊपर जा, अधर सिंहासन पर हैं।।
घातिकर्म के क्षय से अतिशय, प्रगटे उनको पूजूँ।
मुझमें केवलज्ञान सौख्य हो, भव भव दु;ख से छूटूँ।।१२।।
ॐ ह्रीं गगनगमनत्वकेवलज्ञानातिशयगुणमंडिताय अतिशायिसम्यग्ज्ञान-फलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु के गमन शरीर आदि से, प्राणी वध निंह होवे।
करुणासिंधु अभयदाता को, पूजत निर्भय होवें।।
घातिकर्म के क्षय से अतिशय, प्रगटे उनको पूजूँ।
मुझमें केवलज्ञान सौख्य हो, भव भव दु:ख से छूटूँ।।१३।।
ॐ ह्रीं प्राणिवधाभावकेवलज्ञानातिशयगुणमंडिताय अतिशायिसम्यग्ज्ञान-फलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कोटीपूर्व वर्ष आयू में, कुछ कम ही वर्षों में।
केवलि का उत्कृष्ट काल यह, बिन भोजन है तन में।।
घातिकर्म के क्षय से अतिशय, प्रगटे उनको पूजूँ।
मुझमें केवलज्ञान सौख्य हो, भव भव दु:ख से छूटूँ।।१४।।
ॐ ह्रीं कवलाहाराभावकेवलज्ञानातिशयगुणमंडिताय अतिशायिसम्यग्ज्ञान-फलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देव मनुज तिर्यंच आदि उपसर्ग नहीं कर सकते।
केवलि प्रभु के कर्म असाता, साता में ही फलते।।
घातिकर्म के क्षय से अतिशय, प्रगटे उनको पूजूँ।
मुझमें केवलज्ञान सौख्य हो, भव भव दु:ख से छूटूँ।।१५।।
ॐ ह्रीं उपसर्गाभावकेवलज्ञानातिशयगुणमंडिताय अतिशायिसम्यग्ज्ञान-फलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समवसरण की गोल सभा में, चहुंदिश प्रभु मुख दीखे।
चतुर्मुखी ब्रह्मा यद्यपि ये, पूर्व उदङ् मुख तिष्ठें।।
घातिकर्म के क्षय से अतिशय, प्रगटे उनको पूजूँ।
मुझमें केवलज्ञान सौख्य हो, भव भव दु:ख से छूटूँ।।१६।।
ॐ ह्रीं चतुर्मुखत्वकेवलज्ञानातिशयगुणमंडिताय अतिशायिसम्यग्ज्ञानफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
परमौदारिक पुद्गल तनु भी, छाया नहीं पड़े हैं।
केवलज्ञान सूर्य होकर भी, सबको छाँव करे हैं।।
घातिकर्म के क्षय से अतिशय, प्रगटे उनको पूजूँ।
मुझमें केवलज्ञान सौख्य हो, भव भव दु:ख से छूटूँ।।१७।।
ॐ ह्रीं छायारहितकेवलज्ञानातिशयगुणमंडिताय अतिशायिसम्यग्ज्ञानफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नेत्रों की पलकें निंह झपकें, निर्निमेष दृष्टी है।
जो पूजें वे भव्य लहें तुम, सदा कृपादृष्टी हैं।।
घातिकर्म के क्षय से अतिशय, प्रगटे उनको पूजूँ।
मुझमें केवलज्ञान सौख्य हो, भव भव दु:ख से छूटूँ।।१८।।
ॐ ह्रीं पक्ष्मस्पंदरहितकेवलज्ञानातिशयगुणमंडिताय अतिशायिसम्यग्ज्ञान-फलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिभुवन में जितनी विद्या हैं, सबके ईश्वर प्रभु हैं।
जो भवि पूजें वे सब विद्या, अतिशय प्राप्त करे हैं।।
घातिकर्म के क्षय से अतिशय, प्रगटे उनको पूजूँ।
मुझमें केवलज्ञान सौख्य हो, भव भव दु:ख से छूटूँ।।१९।।
ॐ ह्रीं सर्वविद्येश्वरताकेवलज्ञानातिशयगुणमंडिताय अतिशायिसम्यग्ज्ञान-फलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
केश और नख बढ़ें न प्रभु के, चिच्चैतन्य प्रभू हैं।
दिव्यदेह को धारण करते, त्रिभुवन एक विभू हैं।।
घातिकर्म के क्षय से अतिशय, प्रगटे उनको पूजूँ।
मुझमें केवलज्ञान सौख्य हो, भव भव दु:ख से छूटूँ।।२०।।
ॐ ह्रीं नखकेशवृद्धिरहितकेवलज्ञानातिशयगुणमंडिताय अतिशायिसम्यग्ज्ञान-फलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अनुपम दिव्यध्वनी१ त्रय संध्या, मुहूर्त त्रय त्रय खिरती।
चार कोश तक सुनते भविजन, सब भाषामय बनती।।
घातिकर्म के क्षय से अतिशय, प्रगटे उनको पूजूँ।
मुझमें केवलज्ञान सौख्य हो, भव भव दु:ख से छूटूँ।।२१।।
ॐ ह्रीं अक्षरानक्षरात्मकसर्वभाषामयदिव्यध्वनिकेवलज्ञानातिशयगुणमंडिताय अतिशायिसम्यग्ज्ञानफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-शंभु छंद-
प्रभु के श्रीविहार में दश दिश, संख्यात कोश तक असमय में।
सब ऋतु के फल फलते व फूल, खिल जाते हैं वन उपवन में।।
तीर्थंकर जिनका यह माहात्म्य, यह अतिशय सब सुखदायी है।
मैं पूजूँ रुचि से मुझको यह, परमानन्दामृतदायी है।।२२।।
ॐ ह्रीं सर्वर्तुफलादिशोभिततरूपरिणाम-देवोपनीतातिशयगुणमंडिताय अतिशायिसम्यक्चारित्रफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कंटक धूली को दूर करे, जन मन हर सुखद पवन बहती।
प्रभु के विहार में बहुत दूर तक, स्वच्छ हुई भूमी दिखती।।
तीर्थंकर जिनका यह माहात्म्य, यह अतिशय सब सुखदायी है।
मैं पूजूँ रुचि से मुझको यह, परमानन्दामृतदायी है।।२३।।
ॐ ह्रीं वायुकुमारोपशमितधूलकंटकादि-देवोपनीतातिशयगुणमंडिताय अतिशायिसम्यक्चारित्रफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब जीव पूर्व के वैर छोड़, आपस में प्रीती से रहते।
इस अतिशय पूजत कलह वैर, ईर्ष्यादि दोष निश्चित टलते।।
तीर्थंकर जिनका यह माहात्म्य, यह अतिशय सब सुखदायी है।
मैं पूजूँ रुचि से मुझको यह, परमानन्दामृतदायी है।।२४।।
ॐ ह्रीं सर्वजनमैत्रीभाव-देवोपनीतातिशयगुणमंडिताय अतिशायि-सम्यक्चारित्रफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पृथिवी दर्पण तल सदृश स्वच्छ, अरु रत्नमयी हो जाती है।
जहं जहं प्रभु विहरण करते हैं, वह भूमि रम्य मन भाती है।।
तीर्थंकर जिनका यह माहात्म्य, यह अतिशय सब सुखदायी है।
मैं पूजूँ रुचि से मुझको यह, परमानन्दामृतदायी है।।२५।।
ॐ ह्रीं आदर्शतलप्रतिमारत्नमयीमही-देवोपनीतातिशयगुणमंडिताय अतिशायिसम्यक्चारित्रफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुर मेघकुमार सुरभित शीतल, जल कण की वर्षा करते हैं।
इंद्राज्ञा से सब देववृंद, प्रभु का अतिशय विस्तरते हैं।।
तीर्थंकर जिनका यह माहात्म्य, यह अतिशय सब सुखदायी है।
मैं पूजूँ रुचि से मुझको यह, परमानन्दामृतदायी है।।२६।।
ॐ ह्रीं मेघकुमारकृतगंधोदकवृष्टि-देवोपनीतातिशयगुणमंडिताय अतिशायि-सम्यक्चारित्रफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शाली जौ आदिक धान्य भरित, खेती फल से झुक जाती है।
सब तरफ खेत हों हरे-भरे, यह महिमा सुखद सुहाती है।।
तीर्थंकर जिनका यह माहात्म्य, यह अतिशय सब सुखदायी है।
मैं पूजूँ रुचि से मुझको यह, परमानन्दामृतदायी है।।२७।।
ॐ ह्रीं फलभारनम्रशालि-देवोपनीतातिशयगुणमंडिताय अतिशायि-सम्यक्चारित्रफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब जन मन परमानन्द भरें, जहं जहं प्रभु विचरण करते हैं।
मुनिजन भी आत्मसुधा पीकर, क्रम से शिवरमणी वरते हैं।।
तीर्थंकर जिनका यह माहात्म्य, यह अतिशय सब सुखदायी है।
मैं पूजूँ रुचि से मुझको यह, परमानन्दामृतदायी है।।२८।।
ॐ ह्रीं सर्वजनपरमानन्दत्व-देवोपनीतातिशयगुणमंडिताय अतिशायि-सम्यक्चारित्रफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वायूकुमार जिन भक्तीरत, सुख शीतल पवन चलाते हैं।
जिन विहरण में अनुकूल पवन, उससे जन व्याधि नशाते हैं।।
तीर्थंकर जिनका यह माहात्म्य, यह अतिशय सब सुखदायी है।
मैं पूजूँ रुचि से मुझको यह, परमानन्दामृतदायी है।।२९।।
ॐ ह्रीं अनुकूलविहरणवायुत्व-देवोपनीतातिशयगुणमंडिताय अतिशायि-सम्यक्चारित्रफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब कुएं सरोवर बावड़ियाँ, निर्मल जल से भर जाते हैं।
इस चमत्कार को देख भव्य, निज पुण्यकोष भर लाते हैं।।
तीर्थंकर जिनका यह माहात्म्य, यह अतिशय सब सुखदायी है।
मैं पूजूँ रुचि से मुझको यह, परमानन्दामृतदायी है।।३०।।
ॐ ह्रीं निर्मलजलपूर्णकूपसरोवरादि-देवोपनीतातिशयगुणमंडिताय अतिशायि-सम्यक्चारित्रफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आकाश धूम्र उल्कादिरहित, अतिस्वच्छ शरदऋतु सम होता।
जिनवर भक्ती वन्दन करते, भविजन मन भी निर्मल होता।।
तीर्थंकर जिनका यह माहात्म्य, यह अतिशय सब सुखदायी है।
मैं पूजूँ रुचि से मुझको यह, परमानन्दामृतदायी है।।३१।।
ॐ ह्रीं शरत्कालवन्निर्मलाकाश-देवोपनीतातिशयगुणमंडिताय अतिशायि-सम्यक्चारित्रफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब जन ही रोग शोक संकट, बाधाओं से छुट जाते हैं।
जहं जहं प्रभु विहरण करते हैं, सर्वोपद्रव टल जाते हैं।।
तीर्थंकर जिनका यह माहात्म्य, यह अतिशय सब सुखदायी है।
मैं पूजूँ रुचि से मुझको यह, परमानन्दामृतदायी है।।३२।।
ॐ ह्रीं सर्वजनरोगशोकबाधारहितत्व-देवोपनीतातिशयगुणमंडिताय अतिशायिसम्यक्चारित्रफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
यक्षेन्द्र चार दिश मस्तक पर, शुचि धर्मचक्र धारण करते।
उनमें हजार आरे अपनी, किरणों से अतिशय चमचमते।।
तीर्थंकर जिनका यह माहात्म्य, यह अतिशय सब सुखदायी है।
मैं पूजूँ रुचि से मुझको यह, परमानन्दामृतदायी है।।३३।।
ॐ ह्रीं यक्षेन्द्रमस्तकोपरिस्थितधर्मचक्रचतुष्टय-देवोपनीतातिशयगुणमंडिताय अतिशायिसम्यक्चारित्रफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दिश विदिशा में छप्पन सुवर्ण, पंकज खिलते सुरभी करते।
इक पाद पीठ मंगल सुद्रव्य, पूजन सुद्रव्य सुरगण धरते।।
प्रभु के विहार में चरण तले, सुर स्वर्णकमल रखते जाते।
इन तेरह सुरकृत अतिशय को, हम पूजत ही सम सुख पाते।।३४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरदेवचरणकमलतलस्वर्णकमलरचना-देवोपनीतातिशय-गुणमंडिताय अतिशायिसम्यक्चारित्रफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-
दश अतिशय जन्म समय से ग्यारह केवलज्ञान उदय से हों।
देवोंकृत तेरह अतिशय हों, चौंतिस अतिशय सब मिल के हों।।
इनसे महान अतिशयशाली, श्री ऋषभदेव को मैं पूजूँ।
जल चंदन आदिक अर्घ्य चढ़ा, संपूर्ण अमंगल से छूटूँ।।१।।
ॐ ह्रीं चतुस्त्रिंशदतिशयसहिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।