इह जम्बूमति द्वीपे भरते खचराचलात्।
दक्षिणे मध्यमे खण्डे कालसन्धौ पुरोदिते।।८।।
पूर्वोक्तकुलकृत्स्वन्त्यो नाभिराजोऽग्रिमोऽप्यभूत्।
व्यावर्णितायुरुत्सेधरूपसौन्दर्यविभ्रम: ।।९।।
तस्यासीन्मरुदेवीति देवी देवीव सा शची।
रूपलावण्यकान्तिश्रीमतिद्युतिविभूतिभि:२।।१२।।
तस्या: किल समुद्वाहे सुरराजेन चोदिता:।
सुरोत्तमा महाभूत्या चक्रु: कल्याणकौतुकम्३।।५९।।
ताभ्यामलंकृते पुण्ये देशे कल्पांघ्रिपात्यये।
तत्पुण्यैर्मुहुराहूत: पुरुहूत: पुरीं व्यधात्४।।६९।।
संचस्करुश्च तां वप्रप्राकारपरिखादिभि:।
अयोध्यां न परं नाम्ना गुणेनाप्यरिभि: सुरा:१।।७६।।
प्राचीव बन्धुमब्जानां सा लेभे भास्वरं सुतम्।
चैत्रे मास्यसिते पक्षे नवम्यामुदये रवे:२।।२।।
त्रिबोधकिरणोद्भासिबालार्कोऽसौ स्फुरद्द्युति:।
नाभिराजोदयादिन्द्रादुदितो विबभौ विभु:३।।४।।
सुरेन्द्रानुमतात् कन्ये सुशीले चारुलक्षणे।
सत्यौ सुरुचिराकारे वरयामास नाभिराट्४।।६९।।
तन्व्यौ कच्छमहाकच्छजाभ्यौ सौम्ये पतिंवरे।
यशस्वती सुनन्दाख्ये स एवं पर्यणीनयत्१।।७०।।
अथान्यदा महादेवी सौधे सुप्ता यशस्वति।
स्वप्नेऽपश्यन् महीं ग्रस्तां मेरुं सूर्यं च सोडुपम्२।।१००।।
सर: सहंसमब्धिं च चलद्वीचिकमैक्षत।
स्वप्नान्ते च व्यबुद्धासौ पठन् मागधनि: स्वनै:३।।१०१।।
शुभे दिने शुभे लग्ने योगे दुरुदुराह्वये।
सा प्रासोष्ट सुताग्रण्यं स्फुरत्साम्राज्यलक्षणम्४।।१४१।।
प्रमोदभरत: प्रेमनिर्भरा बंधुता तदा।
तमाह्वद् भरतं भावि समस्तभरताधिपम्५।।१५८।।
तन्नाम्ना भारतं वर्षमिति हासीज्जनास्पदम्।
हिमाद्रेरासमुद्राच्च क्षेत्रं चक्रभृतामिदम्१।।१५९।।
अथ क्रमाद् यशस्वत्यां जाता: स्रष्टुरिमे सुता:।
अवतीर्य दिवो मूर्ध्नस्तेऽहमिन्द्रा: पुरोहिता:२।।१।।
इत्येकान्नशतं पुत्रा बभूवुर्वृषभेशिन:।
भरतस्यानुजन्मानश्चरमाङ्गा महौजस:३।।४।।
ततो ब्राह्मीं यशस्वत्यां ब्रह्मा समुदपादयत्।
कलामिवापराशायां ज्यौत्स्नपक्षोऽमलां विधो:४।।५।।
सुनन्दा सुन्दरीं पुत्रीं पुत्रं बाहुबलीशिनम्।
लब्ध्वा रुचिं परां भेजे प्राचीवार्वंâ सह त्विषा५।।८।।
तत्काल कामदेवोऽभूद् युवा बाहुबली बली।
रूपसंपदमुत्तुङ्गां दधानोऽसुमतां मताम्१।।९।।
अथैकदा सुखासीनो भगवान् हरिविष्टरे।
मनो व्यापारयामास कलाविद्योपदेशने२।।७२।।
तावच्च पुत्रिके भर्त्तुर्ब्राह्मीसुन्दर्यभिष्टवे।
धृतमङ्गलनैपथ्ये संप्राप्ते निकटं गुरो:३।।७३।।
प्रणते ते समुत्थाप्य दूरान्नमितमस्तके।
प्रीत्या स्वमज्र्मारोप्य स्पृष्ट्वाघ्राय च मस्तके४।।९४।।
इत्युक्त्वा मुहुराशास्य विस्तीर्णे हेम पट्टके।
अधिवास्य स्वचित्तस्थां श्रुतदेवीं सपर्यया५।।१०३।।
विभु: करद्वयेनाभ्यां लिखन्नक्षरमालिकाम्।
उपादिशल्लिपिं संख्यास्थानं चाज्र्ैरनुक्रमात्१।।१०४।।
ततो भगवतो वक्त्रान्नि:सृतामक्षरावलीम्।
सिद्धं नम इति व्यक्तमङ्गलां सिद्धमातृकाम्२।।१०५।।
न विना वाङ्मयात् किंचिदस्ति शास्त्रं कलापि वा।
ततो वाङ्मयमेवादौ वेधास्ताभ्यामुपादिशत्३।।१०९।।
पदविद्यामधिच्छन्दोविचितिं वागलंकृतिम्।
त्रयीं समुदितामेतां तद्विदो वाङ्मयं विदु:४।।१११।।
पुत्राणां च यथाम्नायं विनया दानपूर्वकम्।
शास्त्राणि व्याजहारैवमा नुपूर्व्यां जगद्गुरु:१।।११८।।
ततोऽभिषिच्य साम्राज्ये भरतं सूनुमग्रिमम्।
भगवान् भारतं वर्षं तत्सनाथं व्यधादिदम्२।।७६।।
परिनिष्क्रान्तिराज्यानुसंक्रान्तिद्वितयोत्सवे।
तदा स्वर्लोकभूलोकावास्तां प्रमदनिर्भरौ३।।७८।।
नातिदूरं खमुत्पत्य जनानां दृष्टिगोचरे।
यथोत्तैâर्मङ्गलारम्भै: प्रस्थानमकरोत् प्रभु:४।।१८०।।
नातिदूरे पुरस्यास्य नात्यासन्नेतिविस्तृतम्।
सिद्धार्थकवनोद्देशमभिप्रायाज्जगद्गुरु:५।।१८१।।
तत: पूर्वमुखं स्थित्वा कृतसिद्धनमस्क्रिय:।
केशानलुञ्चदाबद्धपल्यज्र् पञ्चमुष्टिकम्६।।२००।।
निर्ल्युच्य बहुमोहाग्रवल्लरी: केशवल्लरी:।
जातरूपधरो धीरो जैनीं दीक्षामुपाददे१।।२०१।।
चैत्रे मास्यसिते पक्षे सुमुहूर्ते शुभोदये।
नवम्यामुत्तराषाढे सायाह्वे प्राव्रजद् विभु:२।।२०३।।
इसी जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में विजयार्ध पर्वत से दक्षिण की ओर मध्यम-आर्य खण्ड में नाभिराज हुए थे। वे नाभिराज चौदह कुलकरों में अंतिम कुलकर होने पर भी सबसे अग्रिम (पहले) थे (पक्ष में सबसे श्रेष्ठ थे)।।८-९।।
उन नाभिराज के मरुदेवी नाम की रानी थी, जो कि अपने रूप, सौन्दर्य, कान्ति, शोभा, बुद्धि, द्युति और विभूति आदि गुणों से इन्द्राणी देवी के समान थी।।१२।।
उस मरुदेवी के विवाह के समय इन्द्र के द्वारा प्रेरित हुए उत्तम देवों ने बड़ी विभूति के साथ उसका विवाहोत्सव किया था।।५९।।
मरुदेवी और नाभिराज से अलंकृत पवित्र स्थान में जब कल्पवृक्षों का अभाव हो गया, तब वहाँ उनके पुण्य के द्वारा बार-बार बुलाये हुए इन्द्र ने एक नगरी की रचना की।।६९।।
देवों ने उस नगरी को वप्र (धूलि के बने हुए छोटे कोट), प्राकार (चार मुख्य दरवाजों से सहित, पत्थर के बने हुए मजबूत कोट) और परिखा आदि से सुशोभित किया था। उस नगरी का नाम अयोध्या था। वह केवल नाममात्र से अयोध्या नहीं थी किन्तु गुणों से भी अयोध्या थी। कोई भी शत्रु उससे युद्ध नहीं कर सकते थे इसलिए उसका वह नाम सार्थक था (अरिभि: योद्धुं न शक्या-अयोध्या)।।७६।।
जिस प्रकार प्रात:काल के समय पूर्व दिशा कमलों को विकसित करने वाले प्रकाशमान सूर्य को प्राप्त करती है, उसी प्रकार मरुदेवी भी चैत्र कृष्ण नवमी के दिन सूर्योदय के समय उत्तराषाढ़ नक्षत्र और ब्रह्म नामक महायोग में मति, श्रुत और अवधि इन तीन ज्ञानों से शोभायमान, बालक होने पर भी गुणों से वृद्ध तथा तीनों लोकों के एकमात्र स्वामी देदीप्यमान पुत्र को प्राप्त किया।।२।।
तीन ज्ञानरूपी किरणों से शोभायमान, अतिशय कान्ति के धारक और नाभिराजरूपी उदयाचल से उदय को प्राप्त हुए वे बालकरूपी सूर्य बहुत ही शोभायमान होते थे।।४।।
महाराज नाभिराज ने इन्द्र की अनुमति से सुशील, सुन्दर लक्षणों वाली, सती और मनोहर आकार वाली दो कन्याओं की याचना की।।६९।।
वे दोनों कन्याएँ कच्छ-महाकच्छ की बहनें थीं, बड़ी ही शान्त और यौवनवती थीं, यशस्वती और सुनन्दा उनका नाम था। उन्हीं दोनों कन्याओं के साथ नाभिराज ने भगवान् का विवाह कर दिया।।७०।।
अथानन्तर किसी समय यशस्वती महादेवी राजमहल में सो रही थीं। सोते समय उसने स्वप्न में ग्रसी हुई पृथिवी, सुमेरु पर्वत, चन्द्रमा सहित सूर्य, हंस सहित सरोवर तथा चञ्चल लहरों वाला समुद्र देखा। स्वप्न देखने के बाद मंगल-पाठ पढ़ते हुए बंदीजनों के शब्द सुनकर वह जाग पड़ी।।१००-१०१।।
भगवान ऋषभदेव के जन्म समय में जो शुभ दिन, शुभ लग्न, शुभ योग, शुभ चन्द्रमा और शुभ नक्षत्र आदि पड़े थे, वे ही शुभ दिन आदि उस समय भी पड़े थे, अर्थात् उस समय चैत्र कृष्णा नवमी का दिन, मीन लग्न, ब्रह्मयोग, धनराशि का चन्द्रमा और उत्तराषाढ़ा नक्षत्र था। उसी दिन यशस्वती महादेवी ने सम्राट् के शुभ लक्षणों से शोभायमान ज्येष्ठ पुत्र उत्पन्न किया था।।१४१।।
उस समय प्रेम से भरे हुए बंधुओं के समूह ने बड़े भारी हर्ष से, समस्त भरतक्षेत्र के अधिपति होने वाले उस पुत्र को ‘भरत’ इस नाम से पुकारा था।।१५८।।
इतिहास के जानने वालों का कहना है कि जहाँ अनेक आर्यपुरुष रहते हैं ऐसा यह हिमवत् पर्वत से लेकर समुद्र- पर्यन्त का चक्रवर्तियों का क्षेत्र उसी ‘भरत’ पुत्र के नाम के कारण भारतवर्ष रूप से प्रसिद्ध हुआ है।।१५९।।
अथानन्तर पहले जिनका वर्णन किया जा चुका है, ऐसे वे सर्वार्थसिद्धि के अहमिन्द्र स्वर्ग से अवतीर्ण होकर क्रम से भगवान वृषभदेव की यशस्वती देवी के पुत्र उत्पन्न हुए।।१।।
इस प्रकार भगवान् वृषभदेव के यशस्वती महादेवी से भरत के पीछे जन्म लेने वाले निन्यानवे पुत्र हुए, वे सभी पुत्र चरमशरीरी तथा बड़े प्रतापी थे।।४।।
तदनन्तर जिस प्रकार शुक्लपक्ष पश्चिम दिशा में चन्द्रमा की निर्मल कला को उत्पन्न (प्रकट) करता है, उसी प्रकार ब्रह्मा-भगवान् आदिनाथ ने यशस्वती नामक महादेवी में ब्राह्मी नाम की पुत्री उत्पन्न की।।५।।
सुन्दरी पुत्री और बाहुबली पुत्र को पाकर सुनन्दा महारानी ऐसी सुशोभित हुई थी जिस प्रकार कि पूर्व दिशा प्रभा के साथ-साथ सूर्य को पाकर सुशोभित होती है।।८।।
समस्त जीवों को मान्य तथा सर्वश्रेष्ठ रूपसम्पदा को धारण करने वाले बलवान् युवा बाहुबली उस काल के चौबीस कामदेवों में से पहले कामदेव हुए थे।।९।।
अथानन्तर किसी एक समय भगवान वृषभदेव सिंहासन पर सुख से बैठे हुए थे, कि उन्होंने अपना चित्त कला और विद्याओं के उपदेश देने में व्यापृत किया।।७२।।
उसी समय उनकी ब्राह्मी और सुन्दरी नाम की पुत्रियाँ माङ्गलिक वेष-भूषा धारण कर उनके निकट पहुँचीं।।७३।।
दूर से ही जिनका मस्तक नम्र हो रहा है ऐसी, नमस्कार करती हुई उन दोनों पुत्रियों को उठाकर भगवान् ने प्रेम से अपनी गोद में बैठाया, उन पर हाथ फेरा, उनका मस्तक सूँघा और हँसते हुए उनसे बोले कि आओ, तुम समझती होगी कि हम आज देवों के साथ अमरवन को जाएंगी परन्तु अब ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि देव लोग पहले ही चले गये हैं।।९४।।
भगवान् वृषभदेव ने ऐसा कहकर तथा बार-बार उन्हें आशीर्वाद देकर अपने चित्त में स्थित श्रुतदेवता को आदरपूर्वक सुवर्ण के विस्तृत पट्ट पर स्थापित किया, फिर दोनों हाथों से अ-आ आदि वर्णमाला लिखकर उन्हें लिपि (लिखने का) उपदेश दिया और अनुक्रम से इकाई-दहाई आदि अंकों के द्वारा उन्हें संख्या के ज्ञान का भी उपदेश दिया।
भावार्थ-ऐसी प्रसिद्धि है कि भगवान् ने दाहिने हाथ से वर्णमाला और बाएँ हाथ से संख्या लिखी थी।।१०३-१०४।।
तदनन्तर जो भगवान् के मुख से निकली हुई है, जिसमें ‘सिद्धं नम:’ इस प्रकार का मंगलाचरण अत्यन्त स्पष्ट है, जिसका नाम सिद्धमातृका है, जो स्वर और व्यंजन के भेद से दो भेदों को प्राप्त है, जो समस्त विद्याओं में पायी जाती है, जिसमें अनेक संयुक्त अक्षरों की उत्पत्ति है, जो अनेक बीजाक्षरों से व्याप्त है और जो शुद्ध मोतियों की माला के समान है, ऐसी अकार को आदि लेकर हकारपर्यन्त तथा विसर्ग, अनुस्वार, जिह्वामूलीय और उपध्मानीय इन अयोगवाह-पर्यंत समस्त शुद्ध अक्षरावली को बुद्धिमती ब्राह्मी पुत्री ने धारण किया और अतिशय सुन्दरी सुन्दरीदेवी ने इकाई-दहाई आदि स्थानों के क्रम से गणित शास्त्र को अच्छी तरह धारण किया।।।१०५।।
वाङ्मय के बिना न तो कोई शास्त्र है और न कोई कला है इसलिए भगवान् वृषभदेव ने सबसे पहले उन पुत्रियों के लिए वाङ्मय का उपदेश दिया था।।१०९।।
वाङ्मय के जानने वाले गणधरादि देव व्याकरणशास्त्र, छंदशास्त्र और अलंकारशास्त्र इन तीनों के समूह को वाङ्मय कहते हैं।।१११।।
जगद्गुरु भगवान् वृषभदेव ने इसी प्रकार अपने भरत आदि पुत्रों को भी विनयी बनाकर क्रम से आम्नाय के अनुसार अनेक शास्त्र पढ़ाये।।११८।।
तदनन्तर भगवान् वृषभदेव ने साम्राज्य पद पर अपने बड़े पुत्र भरत का अभिषेक कर इस भारतवर्ष को उनसे सनाथ किया।।७६।।
उस समय भगवान् वृषभदेव का निष्क्रमणकल्याणक और भरत का राज्याभिषेक हो रहा था। इन दोनों प्रकार के उत्सवों के समय स्वर्गलोक और पृथिवीलोक दोनों ही हर्षनिर्भर हो रहे थे।।७८।।
भगवान ने आकाश में इतनी थोड़ी दूर जाकर कि जहाँ से लोग उन्हें अच्छी तरह से देख सकते थे, ऊपर कहे हुए मंगलारंभ के साथ प्रस्थान किया।।१८०।।
इस प्रकार जगद्गुरु भगवान् ऋषभदेव अत्यन्त विस्तृत सिद्धार्थक नाम के वन में जा पहुँचे, वह वन उस अयोध्यापुरी से न तो बहुत दूर था और न बहुत निकट ही था।।१८१।।
तदनन्तर भगवान् पूर्व दिशा की ओर मुंँह कर पद्मासन से विराजमान हुए और सिद्ध परमेष्ठी को नमस्कार कर उन्होंने पंचमुष्टियों में केशलोंच किया।।२००।।
धीर-वीर भगवान वृषभदेव ने मोहनीय कर्म की मुख्य लताओं के समान बहुत सी केशरूपी लताओं का लोंच कर दिगम्बर रूप के धारक होते हुए जिनदीक्षा धारण की।।२०१।।
भगवान वृषभदेव ने चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की नवमी के दिन सायंकाल के समय दीक्षा धारण की थी। उस दिन शुभ मुहूर्त था, शुभ लग्न था और उत्तराषाढ़ नक्षत्र था।।२०३।।