अथ कल्पद्रुमो नाभेरस्य क्षेत्रस्य मध्यग:।
स्थित: प्रासादरूपेण विभात्यत्यन्तमुन्नत:१।।८९।।
पूजिता सर्वलोकस्य मरुदेवीति विश्रुता।
यथा त्रिलोकवन्द्यस्य धर्मस्य श्रुतदेवता२।।९५।।
निश्चक्राम ततो गर्भात् पूर्णे काले जिनोत्तम:।
मलस्पर्शविनिर्मुक्त: स्फाटिकादिव सद्मत:३।।१५९।।
ततो महोत्सवश्चक्रे नाभिना सुतजन्मनि।
समानन्दितनि:शेषजनो युक्त्या यथोक्तया४।।१६०।।
सुरेन्द्रपूजया प्राप्त: प्रधानत्वं जिनो यत:।
ततस्तमृषभाभिख्यां निन्यतु: पितरौ सुतम्५।।२१९।।
नाभेयस्य सुनन्दाऽभून्नन्दा च वनिताद्वयम्।
भरतादय उत्पन्नास्तयो: पुत्रा महौजस:१।।२६०।।
शतेन तस्य पुत्राणां गुणसंबन्धचारुणा।
अभूदलंकृता क्षोणी नित्यप्राप्तसमुत्सवा२।।२६१।।
इति निष्क्रमणे तेन चिन्तिते तदनन्तरम्।
आगता: पूर्ववद्देवा: पुरन्दरपुरस्सरा:३।।२७३।।
प्रजाग इति देशोऽसौ प्रजाभ्योऽस्मिन् गतो यत:।
प्रकृष्टो वा कृतस्त्याग: प्रयागस्तेन कीर्तित:४।।२८१।।
आपृच्छनं तत: कृत्वा पित्रोर्बन्धुजनस्य च।
नम: सिद्धेभ्य इत्युक्त्वा श्रामण्यं प्रत्यपद्यत५।।२८२।।
चक्रवर्तिश्रियं तावत्प्राप्तो भरतभूपति:।
यस्य क्षेत्रमिदं नाम्ना जगत्प्रकटतां गतम्१।।५९।।
ऋषभस्य शतं पुत्रास्तेजस्कान्तिसमन्विता:।
श्रमणव्रतमास्थाय संप्राप्ता: परमं पदम्२।।६०।।
तन्मध्ये भरतश्चक्री बभूव प्रथमो भुवि।
विनीतानगरे रम्ये साधुलोकनिषेविते३।।६१।।
एवमेकातपत्रायां पृथिव्यां भरतोऽधिप:।
आखण्डल इव स्वर्गे भुंक्ते कर्मफलं शुभम्४।।८२।।
पञ्च पुत्रशतान्यस्य यैरिदं भरताह्वयम्।
क्षेत्रं विभागतो भुक्तं पित्रा दत्तमकण्टकम्५।।८४।।
अथानन्तर चौदहवें कुलकर नाभिराज के समय में सब कल्पवृक्ष नष्ट हो गये। केवल इन्हीं के क्षेत्र के मध्य में स्थित एक कल्पवृक्ष रह गया, जो प्रासाद अर्थात् भवन के रूप में स्थित था और अत्यन्त ऊँचा था।।८९।।
जिस प्रकार तीनों लोकों के द्वारा वन्दनीय धर्म की भार्या श्रुतदेवता के नाम से प्रसिद्ध है उसी प्रकार नाभिराज की वह भार्या मरुदेवी नाम से प्रसिद्ध थी तथा समस्त लोकों के द्वारा पूजनीय थी।।९५।।
जब समय पूर्ण हो चुका, तब भगवान् मल का स्पर्श किये बिना ही गर्भ से इस प्रकार बाहर निकले जिस प्रकार कि किसी स्फटिकमणि निर्मित घर से बाहर निकले हों।।१५९।।
तदनन्तर-नाभिराज ने पुत्र जन्म का यथोक्त महोत्सव किया जिससे समस्त लोग हर्षित हो गये।।१६०।।
चूँकि वे जिनेन्द्र इन्द्र के द्वारा की हुई पूजा से प्रधानता को प्राप्त हुए थे इसलिए माता-पिता ने उनका ‘ऋषभ’ यह नाम रखा।।२१९।।
भगवान ऋषभदेव के सुनन्दा और नन्दा नाम की दो स्त्रियाँ थीं। उनसे उनके भरत आदि महाप्रतापी पुत्र उत्पन्न हुए थे।।२६०।।
भरत आदि सौ भाई थे तथा गुणों के संबंध से अत्यन्त सुन्दर थे इसलिए यह पृथ्वी उनसे अलंकृत हुई थी तथा निरन्तर ही अनेक उत्सव प्राप्त करती रहती थी।।२६१।।
ज्यों ही भगवान ने गृहत्याग का निश्चय किया, त्यों ही इन्द्र आदि देव पहले की भांति आ पहुँचे।।२७३।।
भगवान् वृषभदेव प्रजा अर्थात् जनसमूह से दूर हो उस तिलक नामक उद्यान में पहुँचे थे इसलिए उस स्थान का नाम ‘प्रजाग’ प्रसिद्ध हो गया अथवा भगवान् ने उस स्थान पर बहुत भारी याग अर्थात् त्याग किया था, इसलिए उसका नाम ‘प्रयाग’ भी प्रसिद्ध हुआ।।२८१।।
वहाँ पहुँचकर भगवान् ने माता-पिता तथा बंधुजनों से दीक्षा लेने की आज्ञा ली और फिर ‘नम: सिद्धेभ्य:’-सिद्धों के लिए नमस्कार हो, यह कह दीक्षा धारण कर ली।।२८२।।
भगवान् ऋषभदेव के पुत्र राजा भरत चक्रवर्ती की लक्ष्मी को प्राप्त हुए थे और उन्हीं के नाम से यह क्षेत्र संसार में भरत क्षेत्र के नाम से प्रसिद्ध हुआ था।।५९।।
भगवान् ऋषभदेव के सौ पुत्र थे जो एक से एक बढ़कर तेज और कान्ति से सहित थे तथा जो अन्त में श्रमणपद-मुनिपद धारण कर परमपद-निर्वाणधाम को प्राप्त हुए थे।।६०।।
उन सौ पुत्रों के बीच भरत चक्रवर्ती प्रथम पुत्र था जो कि सज्जनों के समूह से सेवित अयोध्या नाम की सुन्दर नगरी में रहते थे।।६१।।
इस तरह जिस प्रकार इन्द्र स्वर्ग में अपने शुभकर्म का फल भोगता है उसी प्रकार भरत चक्रवर्ती भी एकछत्र पृथिवी पर अपने शुभकर्म का फल भोगते थे।।८२।।
भरत चक्रवर्ती के पाँच सौ पुत्र थे जो पिता के द्वारा विभाग कर दिये हुए निष्कण्टक भरतक्षेत्र का उपभोग करते थे।।८३।।