-स्थापना-
तर्ज-आओ बच्चों……
आवो हम सब करें अर्चना, चउविध संघ प्रधान की।
श्री आचार्य चरण को जजते, मिले राह निर्वाण की।।
वंदे गुरुवरं, वंदे गुरुवरं, वंदे गुरुवरं, वंदे गुरुवरं।।
नग्न दिगम्बर मुनी संघपति, अट्ठाईस गुण को धारें।
छत्तिस गुण को धारण करके, भव्यों को भव से तारें।।
तारण तरण बने हम पूजें, मिले राह उत्थान की।
श्री आचार्य चरण को जजते, मिले राह निर्वाण की।।वंदे.।।१।।
आह्वानन स्थापन करके, सन्निधिकरण विधी करते।
अष्टद्रव्य से पूजन करके, नानाविध गुण को यजते।।
गुरुओं के गुणमणि को यजते, मिले युक्ति कल्याण की।
श्री आचार्य चरण को जजते, मिले राह निर्वाण की।।वंदे.।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीवीरसागराचार्यपरमेष्ठिन्! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीवीरसागराचार्यपरमेष्ठिन्! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीवीरसागराचार्यपरमेष्ठिन्! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथ अष्टक (शेर छंद)-
गंगा नदी का नीर स्वर्णभृंग में भरूँ।
आचार्य पादपद्म में त्रयधार मैं करूँ।।
गुरुदेव के गुणों की सदा अर्चना करूँ।
चारित्रपूर्ति हेतु सदा प्रार्थना करूँ।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीवीरसागराचार्यपरमेष्ठिने जलं निर्वपामीति स्वाहा।
केशर कपूर को घिसा चंदन सुरभि लिया।
गुरुदेव चरण चर्चते मन को सुवासिया।।
गुरुदेव के गुणों की सदा अर्चना करूँ।
चारित्रपूर्ति हेतु सदा प्रार्थना करूँ।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीवीरसागराचार्यपरमेष्ठिने चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
उज्ज्वल अखंड शालि धोय थाल में भरे।
गुरु अग्र पुंज धारते निज आत्मसुख भरे।।
गुरुदेव के गुणों की सदा अर्चना करूँ।
चारित्रपूर्ति हेतु सदा प्रार्थना करूँ।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीवीरसागराचार्यपरमेष्ठिने अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
बेला गुलाब केतकी चंपा खिले खिले।
गुरुचर्ण में चढ़ावते सम्यक्त्व गुण मिले।।
गुरुदेव के गुणों की सदा अर्चना करूँ।
चारित्रपूर्ति हेतु सदा प्रार्थना करूँ।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीवीरसागराचार्यपरमेष्ठिने पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
लाडू सोहाल मालपुआ थाल भर लिए।
गुरु अग्र में चढ़ाय आत्मतृप्ति कर लिए।।
गुरुदेव के गुणों की सदा अर्चना करूँ।
चारित्रपूर्ति हेतु सदा प्रार्थना करूँ।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीवीरसागराचार्यपरमेष्ठिने नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मणिदीप में कपूर ज्योति को जलावते।
गुरु आरती करंत मोहतम भगावते।।
गुरुदेव के गुणों की सदा अर्चना करूँ।
चारित्रपूर्ति हेतु सदा प्रार्थना करूँ।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीवीरसागराचार्यपरमेष्ठिने दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
जो धूपपात्र में सुगंधित धूप खेवते।
उन पापकर्म भस्म होंय आप सेवते।।
गुरुदेव के गुणों की सदा अर्चना करूँ।
चारित्रपूर्ति हेतु सदा प्रार्थना करूँ।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीवीरसागराचार्यपरमेष्ठिने धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
केला अनार आम संतरा मंगा लिया।
गुरु सामने चढ़ाय श्रेष्ठ फल को पा लिया।।
गुरुदेव के गुणों की सदा अर्चना करूँ।
चारित्रपूर्ति हेतु सदा प्रार्थना करूँ।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीवीरसागराचार्य परमेष्ठिने फलं निर्वपामीति स्वाहा।
नीरादि अर्घ्य लेय रजत पुष्प मिलाऊँ।
गुरु अग्र में चढ़ाय चित्त कमल खिलाऊँ।।
गुरुदेव के गुणों की सदा अर्चना करूँ।
चारित्रपूर्ति हेतु सदा प्रार्थना करूँ।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीवीरसागराचार्य परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनभारती में अतिपवित्र ज्ञानजल भरा।
इनमें से कुछ बूँद ले मनपात्र में भरा।।
गुरुपाद कमल में अभी जलधार मैं करूँ।
निज मन पवित्र होएगा यह आश मैं धरूँ।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
गुरुगुण कथन सुमन सुगंध वर्ण वर्ण के।
उनसे करूँ पुष्पांजलि हर्षितमना होके।।
सब आधि व्याधि दूर हों धनधान्य सुख बढ़े।
गुरुपाद अर्चना से स्वात्मकीर्ति भी बढ़े।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं श्रीवीरसागराचार्यपरमेष्ठिने नम:।
-दोहा-
भववारिधि में भव्य के, कर्णधार आचार्य।
गाऊँ तुम गुणमालिका, होवो मम आधार्य।।१।।
-स्रग्विणी छदं-
मैं नमूँ मैं नमूँ मैं नमूँ सूरि को।
पाप संताप मेरा सबे दूर हो।।
नाथ! तेरे बिना कोई ना आपना।
शीघ्र संसार वाराशि से तारना।।२।।
शांतिसिंधू गुरु प्रथम सूरी हुए।
बीसवीं सदि के अग्रणी गुरु हुए।।
आप भी तो उन्हीं के प्रथम शिष्य हो।
पट्ट आचार्य भी तो प्रथम मुख्य हो।।३।।
वीरसागर गुरु नाम सार्थक किया।
वीरतादी गुणों से प्रसिद्धी लिया।।
पंडितों से सदा धर्मचर्चा किया।
तत्त्वज्ञानी बने स्वात्म आनंद लिया।।४।।
शिष्य का आप संग्रह किया चाव से।
नित्य उनपे अनुग्रह किया भाव से।।
दोष लख आप निग्रह किया युक्ति से।
दण्ड देकर किया शुद्धि निज शक्ति से।।५।।
मेरु सम धीर गंभीर पयसिंधु सम।
सूर्य सम तेजधृत सौम्य चन्द्रैक सम।।
मातृवत् रक्षते पितृवत् पालिया।
धर्म उपदेश से भव्य अघ टालिया।।६।।
कृष्ण नीलादि लेश्या नहीं आपमें।
पीत पद्मादि लेश्या धरीं आपमें।।
देश-कुल-जाति से शुद्ध हो श्रेष्ठ हो।
चार विध संघस्वामी सदा इष्ट हो।।७।।
जन्म व्याधी हरण आप ही वैद्य हो।
कष्ट उपसर्ग से आप नहिं भेद्य हो।।
सर्व साधूगणों से सदाराध्य भी।
सर्व जगवंद्य भविवृंद आराध्य भी।।८।।
मूलगुण और उत्तरगुणों को धरा।
सर्वपरिषहजयी मोक्ष में चित धरा।।
नग्नमुद्रा यथाजात गुरुवर्य जी।
वस्त्र शृंगार विरहित धरमधुर्य जी।।९।।
रत्नत्रय युक्त फिर भी अकिंचन्य ही।
मोहग्रन्थी रहित आप निर्ग्रंथ ही।।
हो कृपासिंधु आनंद भण्डार हो।
कर्मवन दग्ध करने को अंगार हो।।१०।।
ब्रह्मचारी व्रती फिर भी तुम पास में।
सर्वदा है तपस्या रमा साथ में।।
बुद्धिमन् भी सदा तुम चरण वंदते।
लक्ष्मिपति भी सदा पूजते अर्चते।।११।।
जो तुम्हारे चरण की करें अर्चना।
रत्नत्रय संपदा से धरें जन्म ना।
नाथ! मैं भी करूँ भक्ति इस हेतु से।
हे गुरो! अब छुड़ावो जगद् दु:ख से।।१२।।
-घत्ता-
सूरीवर गुणगण, अगणित गुणमणि, जो भविजन शिर पर धरते।
वे दुर्गति परिहर, सुमति रमावर, सम्यग्ज्ञानमती धरते।।१३।।
ॐ ह्रीं श्रीवीरसागराचार्यपरमेष्ठिने जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-गीता छंद-
जो वीरसागर सूरिवर, पूजन सु भक्ती से करें।
वे भव्य रत्नत्रय गुणों से, स्वात्मसुख संपति भरें।।
अतिशीघ्र ही संसार सागर, पार वे ही पा सकें।
गुरुभक्ति से निज ‘ज्ञानमती’ वैâवल्य वे ही कर सकें।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।