अथ प्रथमवलये पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
-शंभु छंद-
मन वचन काय त्रय योग कहे, संमरंभ समारंभ आरंभा।
कृत कारित अनुमति चउकषाय, इनको आपस में गुणितांता।।
सब इक सौ आठ भेद होते, जो क्रोध करे मन संरंभ से।
इस रहित सुपार्श्वनाथ पूजूँ, मेरा मन क्रोध सभी विनशे।।१।।
ॐ ह्रीं क्रोधकृतमन:संरंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो पर से मन संरंभ क्रोध, करवाता कर्मास्रव करता।
इनसे विरहित तीर्थंकर की, अर्चा से पापास्रव टलता।।
परमानंदामृत के इच्छुक, योगी भी जिन को ध्याते हैं।
श्रीसुपार्श्वनाथ की पूजा कर, दुख दारिद्र दूर भगाते हैं।।२।।
ॐ ह्रीं क्रोधकारितमन:संरंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मन से संरंभ क्रोधपूर्वक, उसका अनुमोदन जो करते।
उनके पापास्रव होते हैं, प्रभु पूजा से ही टल सकते।।
परमानंदामृत के इच्छुक, योगी भी जिन को ध्याते हैं।
उन सुपार्श्वनाथ की पूजा कर, दुख दारिद्र दूर भगाते हैं।।३।।
ॐ ह्रीं क्रोधानुमतमन:संरंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो क्रोधित मन से समारंभ, करके पापास्रव करते हैं।
प्रभु सिद्धों के गुण गाते ही, सब अशुभ कर्म भी झड़ते हैं।।
परमानंदामृत के इच्छुक, योगी भी जिन को ध्याते हैं।
उन सुपार्श्वजिन की पूजा कर, दुख दारिद्र दूर भगाते हैं।।४।।
ॐ ह्रीं क्रोधकृतमन:समारंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो क्रोधित मन से समारंभ, करवाते पापास्रव करते।
प्रभु भक्ती से वे बंधे कर्म, फल दिये बिना भी झड़ सकते।।
परमानंदामृत के इच्छुक, योगी भी जिन को ध्याते हैं।
उन सुपार्श्व प्रभु की पूजा कर, दुख दारिद्र दूर भगाते हैं।।५।।
ॐ ह्रीं क्रोधकारितमन:समारंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो क्रोधित मन से समारंभ, करने वाले को अनुमति दें।
उनके जो कर्म बंधे वे भी, जिन भक्ती से फल नहिं भी दें।।
परमानंदामृत के इच्छुक, योगी भी जिन को ध्याते हैं।
उन सुपार्श्व प्रभु की पूजा कर, दुख दारिद्र दूर भगाते हैं।।६।।
ॐ ह्रीं क्रोधानुमतमन:समारंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
क्रोधित मन से आरंभ करें, मनकृत आरंभ क्रोधधारी।
ये कर्मबंध भव भव दुखप्रद, इन कर्मों से ही संसारी।।
परमानंदामृत के इच्छुक, योगी भी जिन को ध्याते हैं।
उन सुपार्श्व प्रभु की पूजा कर, दुख दारिद्र दूर भगाते हैं।।७।।
ॐ ह्रीं क्रोधकृतमन:-आरंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
क्रोधित मन से आरंभ करे, उसको जो प्रेरित करते हैं।
वे पाप बंध कर जन्म मरण, दु:खों को भरते रहते हैं।।
परमानंदामृत के इच्छुक, योगी भी जिन को ध्याते हैं।
उन सुपार्श्व प्रभु की पूजा कर, दुख दारिद्र दूर भगाते हैं।।८।।
ॐ ह्रीं क्रोधकारितमन:-आरंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
क्रोधित मन हो आरंभ करे, उसको जो अनुमति देते हैं।
वे गर्भवास के दु:ख सहें, नाना संकट भर लेते हैं।।
परमानंदामृत के इच्छुक, योगी भी जिन को ध्याते हैं।
उन सुपार्श्व प्रभु की पूजा कर, दुख दारिद्र दूर भगाते हैं।।९।।
ॐ ह्रीं क्रोधानुमतमन:-आरंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मान करे मन से संरंभ। पाप कर्म का करता बंध।।
इन विरहित सुपार्श्व भगवान। नमूँ परम आनंद निधान।।१०।।
ॐ ह्रीं मानकृतमन:संरंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मान सहित जो मन संरंभ। उसे कराके कर्म निबंध।।
इन विरहित सुपार्श्व भगवान। जजूँ परम आनंद निधान।।११।।
ॐ ह्रीं मानकारितमन:संरंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मानसंरंभ मानयुत कहा। अनुमति देकर हर्षित रहा।।
इन विरहित सुपार्श्व भगवान। नमूँ परम आनंद निधान।।१२।।
ॐ ह्रीं मानानुमतमन:संरंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मानसहित मन का व्यापार। समारंभ यह दुख दातार।।
इन विरहित सुपार्श्व भगवान। जजूँ परम आनंद निधान।।१३।।
ॐ ह्रीं मानकृतमन:समारंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मानसहित मन का व्यापार। करवाता जो मूढ़ अपार।।
इन विरहित सुपार्श्व भगवान। नमूँ परम आनंद निधान।।१४।।
ॐ ह्रीं मानकारितमन:समारंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समारंभ जो मान समेत। अनुमोदें आतमदुख हेत।।
इन विरहित सुपार्श्व भगवान। जजूँ परम आनंद निधान।।१५।।
ॐ ह्रीं मानानुमतमन:समारंंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मान सहित मन से आरंभ। कार्य करे जो दुख का फंद।।
इन विरहित सुपार्श्व भगवान। नमूँ परम आनंद निधान।।१६।।
ॐ ह्रीं मानकृतमन:आरंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मान सहित मन से आरंभ। करवाते वे पाप प्रबंध।।
इन विरहित सुपार्श्व भगवान। जजूँ परम आनंद निधान।।१७।।
ॐ ह्रीं मानकारितमन:आरंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मान सहित मन से आरंभ। अनुमति दे हो आस्रव बंध।।
इन विरहित सुपार्श्व भगवान। नमूँ परम आनंद निधान।।१८।।
ॐ ह्रीं मानानुमतमन:आरंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
माया युत मन संरंभ जान। तिर्यंच गती का है निदान्ा।।
इनसे विरहित सुपार्श्व देव। मैं जजूँ करूँ तुम चरण सेव।।१९।।
ॐ ह्रीं मायाकृतमन:संरंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मायायुत मन संरंभ होय। जो करवाते नित मुदित होय।।
इनसे विरहित सुपार्श्व देव। मैं जजूँ करूँ तुम चरण सेव।।२०।।
ॐ ह्रीं मायाकारितमन:संरंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मायायुतमन संरंभ लीन। अनुमति देते वे सौख्य हीन।।
इनसे विरहित सुपार्श्व देव। मैं जजूँ करूँ तुम चरण सेव।।२१।।
ॐ ह्रीं मायानुमतमन:संरंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मायायुत मन का समारंभ। जो स्वयं करें वे भव भ्रमंत।।
इनसे विरहित सुपार्श्व देव। मैं जजूँ करूँ तुम चरण सेव।।२२।।
ॐ ह्रीं मायाकृतमन:समारंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
माया से मन का समारंभ। जो करवाते वे करें बंध।।
इनसे विरहित श्री सुपार्श्व देव। मैं जजूँ करूँ तुम चरण सेव।।२३।।
ॐ ह्रीं मायाकारितमन:समारंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
माया से मन का समारंभ। जो पर को अनुमति दे अनंद।।
इनसे विरहित सुपार्श्व देव। मैं जजूँ करूँ तुम चरण सेव।।२४।।
ॐ ह्रीं मायानुमतमन:समारंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मायायुत मन आरंभ लीन। जो स्वयं करें वे स्वात्महीन।।
इनसे विरहित सुपार्श्व देव। मैं जजूँ करूँ तुम चरण सेव।।२५।।
ॐ ह्रीं मायाकृतमन:आरंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मायायुत मन आरंभ लीन। करवाते जो वे सौख्यहीन।।
इनसे विरहित सुपार्श्व देव। मैं जजूँ करूँ तुम चरण सेव।।२६।।
ॐ ह्रीं मायाकारितमन:आरंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मायायुत मन आरंभ होय। उसको अनुमति दे बंध होय।।
इनसे विरहित सुपार्श्व देव। मैं जजूँ करूँ तुम चरण सेव।।२७।।
ॐ ह्रीं मायानुमतमन:आरंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-दोहा-
परम अतीन्द्रिय ज्ञानसुख, वीर्य दर्श गुणवान्।
आस्रव रहित सुपार्श्व को, नमूँ नमूँ सुखदान।।१।।
ॐ ह्रीं क्रोधमानमायारंभादि-आस्रवरहिताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।