प्रभाकर-ज्ञाता का व्यापार ही प्रमाण है।
जैन-प्रश्न यह होता है कि वह ज्ञाता का व्यापार ज्ञानात्मक है या अज्ञानात्मक। यदि वह ज्ञानात्मक है तब तो बात ठीक ही है। पुन: वही ज्ञान ही प्रमाण सिद्ध हो जाता है। यदि आप उसे अज्ञानस्वरूप कहेंगे तब तो वहाँ संशयादि को दूर करने वाले किसी भिन्न प्रमाण का अनुसरण करना ही पड़ेगा और यदि वह अज्ञानस्वरूप है तो पुन: उसके लिए एक प्रमाण ढूंढ़ना पड़ेगा, ऐसे अनवस्था आ जावेगी। अत: यह प्रमाण का लक्षण भी ठीक नहीं है।
शंका-अज्ञानरूप भी सन्निकर्ष आदि संशय आदि को दूर करने में कारण हो जावें, क्या दोष है ?
समाधान-ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि संशयादि अज्ञान विशेष होने से ज्ञान सामान्य से व्याप्त हैं और व्यापक के द्वारा व्याप्य का निराकरण नहीं किया जा सकता है अन्यथा व्याप्यव्यापक भाव में विरोध हो जावेगा।
शंका-संशयादि ज्ञान विशेषरूप होने से ज्ञान सामान्य के साथ व्याप्त हैं तो पुन: ज्ञान के साथ उनका विरोध वैâसे है ?
समाधान-ऐसा नहीं है। यहाँ सम्यग्ज्ञान ही ज्ञानरूप से विवक्षित है और संशयादि मिथ्याज्ञानरूप हैं, इसलिए इनका सम्यग्ज्ञान के साथ विरोध सिद्ध है।
इसलिए यह ठीक नहीं है कि ‘ज्ञान ही प्रमाण है क्योंकि अज्ञान की निवृत्ति अन्यथा-अन्य प्रकार से नहीं सकती है।