संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय और अदर्शन आदि प्रत्यक्षाभास कहलाते हैं। जो वह नहीं है उसमें ‘वह’ इस प्रकार का परामर्शी ज्ञान स्मृत्याभास है। जो उस सदृश नहीं है उसमें ‘यह उसके सदृश हैं’ और जो वह नहीं है उसमें ‘यह वहीं है’ इत्यादि ज्ञान प्रत्यभिज्ञानाभास हैं। जिसका आपस में संबंध नहीं है ऐसे असंबद्ध में व्याप्ति को ग्रहण करना तर्काभास है। असिद्ध, विरुद्ध, अनैकांतिक और अकिंचित्कर ये हेत्वाभास हैं। प्रत्यक्ष आदि से बाधित साध्याभास है। साध्य विकल, साधन विकल और उभयविकल ये दृष्टांताभास हैं। विस्तार से इनका लक्षण परीक्षामुखालंकार आदि गं्रथों में देखना चाहिए।
उत्थानिका-अब इस समय श्रुतज्ञान में प्रमाण और प्रमाणाभास की व्यवस्था को प्रतिपादित करते हैं-
अन्वयार्थ-(द्वीपांतरादिषु) द्वीपान्तर आदि (अर्थेषु) पदार्थों में (श्रुतं) श्रुतज्ञान (प्रमाणं सिद्धं) प्रमाण सिद्ध है (क्वचित् तद् व्यभिचारत:) कहीं पर उसमें व्यभिचार होने से (अनाश्वासं) अविश्वास (न कुर्वीरन्) नहीं करना चाहिए।।५।।
अर्थ-द्वीपान्तर आदि पदार्थों में श्रुतज्ञान प्रमाण सिद्ध है, कहीं पर उसमें व्यभिचार होने से अविश्वास नहीं करना चाहिए।।५।।