तात्पर्यवृत्ति-‘प्रमाण’ यह अनुवृत्ति में चला आ रहा है। उससे अभिसंबंध करने से अक्षधी आदि में प्रथमान्त विभक्ति करके अर्थ करना चाहिए। यहाँ ‘अर्थवशाद्विभक्तिविपरिणाम:’ इस न्याय से अर्थ के निमित्त से विभक्ति में परिवर्तन हो गया है। इससे इस प्रकार व्याख्यान किया जाता है-अक्षधी, स्मृति, संज्ञा से, चिंता से और आभिनिबोधिक से हानोपादान रूप व्यवहार में अविसंवाद-अव्यभिचार सकल व्यवहारीजनों में प्रतीति से सिद्ध है इसलिए वे ज्ञान प्रमाण होते हैं, यह अर्थ हुआ।
अक्ष-इंद्रियों से उत्पन्न हुआ धी-ज्ञान अक्षधी है अर्थात् सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष को अक्षज्ञान कहते हैं। अतीत अर्थ का अवमर्श करने वाला ज्ञान स्मृति है। संज्ञा-प्रत्यभिज्ञान, चिंता-तर्क और आभिनिबोधिक-अनुमान। आभिनिबोध अर्थात् हेतु के अन्यथानुपपत्ति नियम का निश्चय, उसमें होने वाला आभिनिबोधिक है ऐसा व्याख्यान किया गया है। इन ज्ञानों के द्वारा प्रमेय-जानने योग्य विषय प्रवर्तन करता हुआ छोड़ने- ग्रहण करने आदि फल में विसंवाद को प्राप्त नहीं होता है इसलिए उन ज्ञानों को प्रमाणता क्यों नहीं होगी ?
शंका-इस प्रकार से उन ज्ञानों में प्रमाणता वैâसे होगी ?
समाधान-ऐसी आशंका को हम दूर करते हैं-उसी व्यवहार में विसंवाद नहीं होने से वे प्रमाण हैं अन्यथा उस व्यवहार में विसंवाद होने से वे अक्षधी-सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष, स्मृति आदि ज्ञान तदाभास-प्रमाणाभास हो जाते हैं। निश्चित ही अर्थक्रिया से व्यभिचरित होने वाले को प्रमाणता नहीं है अन्यथा अति प्रसंग आ जावेगा।