शंका-अवग्रह ज्ञान को प्रमाण मान लेने पर फल के अभाव का प्रसंग आ जाता है ?
समाधान-ऐसी बात नहीं है। क्योंकि पूर्व-पूर्व के ज्ञान प्रमाण हैं।
दो बार पूर्व शब्द का ग्रहण वीप्सा अर्थ में है। जिस प्रकार से पूर्व-पूर्व के अवग्रह आदि ज्ञान को प्रमाणता है, उसी प्रकार से उत्तर-उत्तर के ईहा आदि ज्ञान साक्षात् फल हो जाते हैं। इस प्रकार से प्रमाण और फल में कथंचित् अभेद है। यदि प्रमाण और उनके फल में सर्वथा भेद अथवा सर्वथा अभेद मान लिया जाय तो इनकी अर्थक्रिया नहीं हो सकेगी। विवक्षा से कारक की प्रवृत्ति होती है, ऐसा न्याय है।
जो चेतन द्रव्य, अन्वय ज्ञान के बल से अनुगताकार और अखंड प्रसिद्ध है। वही पूर्वाकार का परिहार, उत्तराकार की प्राप्ति और मूल स्वभाव की स्थिति लक्षण परिणाम से परिणमन करता हुआ व्यतिरेक ज्ञान के बल से प्रत्येक पर्यायों में भिन्न-भिन्न अनुभव में आता है। इस प्रकार से प्रमाण और फल का व्यवहार बन जाता है।
प्रमाण का परम्पराफल तो हान-उपादान आदि सर्वत्र साधारण ही है अर्थात् ज्ञान का फल है कि छोड़ने योग्य को छोड़ना और ग्रहण करने योग्य को ग्रहण करना तथा इन दोनों में विपरीत में उपेक्षा करना। सच्चे ज्ञान से हेय, उपादेय वस्तुओं को जानकर परम्परा से उनका त्याग आदि किया जाता है, यही परम्परा फल है।
वह ज्ञान की प्रमाणता-सच्चाई अभ्यस्त विषय में तो स्वत: सिद्ध है क्योंकि जाने हुए विषय में भिन्नज्ञान की अपेक्षा नहीं रहती है किन्तु अनभ्यस्त विषय में पर से-भिन्न प्रमाण से सिद्ध होती है क्योंकि जिस विषय को नहीं जानते हैं, उनमें अनुमान आदि की अपेक्षा करनी पड़ती है। सर्वथा पर से ही प्रमाणता हो ऐसी बात नहीं है अन्यथा अतिप्रसंग दोष आ जावेगा और अनवस्था दोष आ जावेंगे। इसलिए ठीक ही कहा है कि अवग्रह आदि सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष हैं।
भावार्थ-बात यह है कि प्रमाण फल वाला ही होना चाहिए और यहाँ पर अवग्रह ज्ञान प्रमाण है उसका फल आगे का ईहाज्ञान है। पुन: ईहा ज्ञान प्रमाण है तब उसका फल अवाय है, ऐसे ही आगे समझना। यह फल अपने प्रमाण से कथंचित् भिन्न है, कथंचित् अभिन्न। समीचीन जानना यह प्रमाण है और उसके ‘उसी क्षण में अज्ञान का दूर होना तथा कालांतर में हेय-उपादेय का छोड़ना, ग्रहण करना, ये फल हैं। ये फल अपने लक्षण से, नाम से, कार्य से कथंचित् प्रमाण से भिन्न हैं तथा जिस आत्मा ने जाना है उसी के अज्ञान का अभाव हुआ है और उसी ने छोड़ा या ग्रहण किया है। इस दृष्टि से प्रमाण से उसका यह फल अभिन्न है। यह स्याद्वाद व्यवस्था है।
यह प्रमाण की सच्चाई का वर्णन जाने-बूझे विषयों में स्वत: हो जाता है। जैसे-कोई प्यासा मनुष्य अपने परिचित के कुएं से पानी भर लेता है। इसमें पानी है या नहीं इस बात को किसी से नहीं पूछता है तथा अपरिचित विषय में प्रमाण की सच्चाई पर से जानी जाती है। जैसे-अपरिचित स्थान में प्यासा मनुष्य अवश्य ही पास के कृषक आदि से पूछता है कि इस कुएं में जल है या नहीं। कोई कहते हैं कि प्रमाण की प्रमाणता पर से ही होती है, सो एकांत मान्यता गलत ही है।
श्लोकार्थ-जो अकलंक चन्द्रमा से विशद प्रतिभासित है, उस सभी को आप लोगों के लिए प्रभा के बल से सूरि की तात्पर्यवृत्ति व्यक्त कर रही है।।१।।
भावार्थ-भट्टाकलंक देव को यहाँ चन्द्रमा की संज्ञा दी है जैसे चन्द्रमा का निर्मल प्रतिभास होता है ऐसे ही भट्टाकलंकदेवरूपी चन्द्र के द्वारा प्रतिपादित प्रत्यक्ष प्रमाण का विशद लक्षण प्रतिभासित हो रहा है अर्थात् इन्होंने प्रत्यक्ष का लक्षण विशद किया है और उसका विशद-स्पष्टरूप से विवेचन किया है और प्रभाचंद्राचार्य ने इस लघीयस्त्रय की न्यायकुमुदचन्द्र नाम से टीका रची है। उस टीका रचना के मनन के अनन्तर श्री अभयचंद्रसूरि ने यह तात्पर्यवृत्ति बनाई है। यह सूरि द्वारा रचित तात्पर्यवृत्ति आप लोगों को इस प्रत्यक्ष प्रमाण का सभी अर्थ स्पष्ट कर रही है ऐसा यहाँ अभिप्राय है।
इस प्रकार से अभयचंद्रसूरि कृत लघीयस्त्रय की स्याद्वादभूषण
नामक तात्पर्यवृत्ति में प्रत्यक्ष प्रमाण नाम का
पहला परिच्छेद पूर्ण हुआ।