प्रमाण का साक्षात् फल अज्ञान का अभाव है तथा परंपरा फल त्याग, ग्रहण और उदासीनता है। प्रमाण के द्वारा पहले अज्ञान का अभाव होता है, पश्चात् त्यागने योग्य वस्तु का त्याग और ग्रहण करने योग्य का ग्रहण एवं इन दोनों से रहित वस्तु में उपेक्षा भाव होता है।
प्रमाण से प्रमाण का फल भिन्न है या अभिन्न ?—वह फल प्रमाण से कथंचित् अभिन्न होता है कथंचित् भिन्न होता है।
प्रमाण से फल अभिन्न कैसे है ?—जो जानता है उसी का अज्ञान दूर होता है, वही किसी वस्तु को छोड़ता या ग्रहण करता है, या मध्यस्थ हो जाता है। इसलिए एक जानने वाले व्यक्ति की अपेक्षा से प्रमाण और प्रमाण का फल दोनों अभिन्न हैं तथा प्रमाण और उसके फल की भेद प्रतीति होती है, इसीलिए दोनों भिन्न हैं।
सकल प्रत्यक्ष को केवलज्ञान कहते हैं। क्योंकि वह असहाय होता है अर्थात् परनिरपेक्ष तथा एकाकी ही होता है। यह पूर्ण अतीन्द्रिय है। इस अतीन्द्रिय ज्ञान का स्वरूप बताते हुए आचार्य श्री कुन्दकुन्द देव ने लिखा है।
‘‘अपदेसं सपदेसं मुत्तममुत्तं च पज्जयमजादं।
पलयं गदं च जाणदि तं णाणमिंददियं भणिदं।।४।।’’
(प्रवचनसार, ज्ञानाधिकार)
अर्थात् जो अप्रदेशी परमाणु और कालाणु को, सप्रदेशी जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्यों को, मूर्तिक और अमूर्तिक को, अनागत तथा अतीत पर्यायों को जानता है, उसे अतीन्द्रिय ज्ञान कहते हैं। अत: अतीन्द्रिय ज्ञानी सर्वज्ञ होता है।
शंका-अतीन्द्रिय ज्ञान को प्रत्यक्ष नहीं कह सकते ?
समाधान-ऐसा कहना ठीक नहीं है। अतीन्द्रिय ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध है और वह अरहन्त भगवान में पाया जाता है क्योंकि अरहंत भगवान सर्वज्ञ हैं।
शंका-जब सर्वज्ञ की ही सिद्धि नहीं है तब अरहंत भगवान सर्वज्ञ हैं यह वैâसे कह सकते हैं ?
समाधान-यह शंका ठीक नहीं क्योंकि सर्वज्ञ की सिद्धि अनुमान से होती है। समन्तभद्र स्वामी ने कहा है-
सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थ किसी न किसी के प्रत्यक्ष हैं क्योंकि ये अनुमान के विषय हैं, जैसे-अग्नि आदि। इस अनुमान से सर्वज्ञ की सिद्धि होती है। सूक्ष्म अर्थात् जो स्वभाव से दूरवर्ती हैं, जैसे-परमाणु आदि।
अन्तरित अर्थात् जो काल से दूरवर्ती हैं, जैसे-राम, रावण आदि। दूरार्थ अर्थात् जो पदार्थ क्षेत्र से दूरवर्ती हैं, जैसे-मेरु आदि।
ये सभी पदार्थ किसी न किसी के प्रत्यक्ष ज्ञान का विषय अवश्य हैं क्योंकि ये पदार्थ अनुमान ज्ञान के विषय हैं। जो-जो अनुमान के द्वारा जाने जाते हैं वे पदार्थ किसी न किसी ज्ञान के विषय अवश्य होते हैं, जैसे-अग्नि आदि।
शंका-यह बात तो हम मान सकते हैं कि सूक्ष्मादि पदार्थ को जानने वाला कोई न कोई सर्वज्ञ अवश्य है और उस सर्वज्ञ का ज्ञान प्रत्यक्ष है किन्तु वह ज्ञान अतीन्द्रिय है, इन्द्रियों से उत्पन्न नहीं होता है यह वैâसे ?
समाधान-यदि वह ज्ञान इन्द्रिय से उत्पन्न होता तो सम्पूर्ण पदार्थों को नहीं जान सकता है क्योंकि इन्द्रियां अपने-अपने विषय को ही ग्रहण करती हैं, जैसे-घ्राण इन्द्रिय देखने का कार्य नहीं कर सकती तथा इन्द्रियों का ज्ञान सीमित भी है। सम्पूर्ण पदार्थों को वह एक साथ नहीं जान सकता है इसलिए इन्द्रिय के ज्ञान से कोई सर्वज्ञ नहीं बन सकता है।
शंका-सम्पूर्ण पदार्थों को जानने वाला अतीन्द्रिय ज्ञान तो सिद्ध हुआ परन्तु वह अरहन्त में ही है, यह वैâसे? कपिल, बौद्ध, महादेव आदि सभी में ही अतीन्द्रिय ज्ञान रह सकता है और सभी ही सर्वज्ञ बन सकते हैं ?
समाधान-ऐसा नहीं है, अरहन्त भगवान ही सर्वज्ञ हैं क्योंकि ये निर्दोष हैं। जो सर्वज्ञ नहीं है वह निर्दोष भी नहीं हो सकता, जैसे-रास्ते में चलने वाले साधारण मनुष्य।
ज्ञानावरणादि कर्म तथा रागादिकरूप दोषों से रहित है उसे निर्दोष कहते हैं। यह निर्दोषता सर्वज्ञता के बिना नहीं हो सकती क्योंकि जो अल्पज्ञानी हैं उनमें ज्ञानावरणादि दोष पाये जाते हैं।
इसलिए रागादि से युक्त सर्वज्ञ नहीं हो सकते हैं क्योंकि वे सदोष हैं और उनके वचन न्याय और आगम से विरुद्ध हैं। उनके माने हुए एकान्त तत्त्व में प्रमाण से बाधा आती है और सर्वज्ञ भगवान के वचन स्यात्कार अर्थात् कथंचित् शब्द से सहित हैं इसलिए अतीन्द्रिय केवलज्ञान अरहन्त में ही पाया जाता है और उनके वचन की प्रमाणता से अवधि और मन:पर्यय ज्ञान भी अतीन्द्रिय हैं यह सिद्ध हो गया इसलिए प्रमाण के सांव्यवहारिक और पारमार्थिक ये दो भेद सिद्ध हुए।
जैन—परम्परा प्रत्येक शुद्ध आत्मा अर्थात् परमात्मा को सर्वज्ञ, सर्वदर्शी मानती है। अत: सर्वप्रथम समन्तभद्राचार्य ने अपने ‘आप्तमीमांसा’ नामक प्रकरण में सर्वज्ञ की सिद्धि तर्कपद्धति के आधार पर करते हुए लिखा है कि सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थ किसी के प्रत्यक्ष हैं, क्योंकि वे अनुमेय हैं।
जो—जो अनुमेय—अनुमान प्रमाण का विषय होता है, वह—वह प्रत्यक्ष भी देखा जाता है, जैसे अग्नि को हम धूम के द्वारा अनुमान से जानते हैं तो उसका प्रत्यक्ष भी होता है। शाबरभाष्य के टीकाकार कुमारिल ने अपने ‘श्लोकवार्तिक’ आदि ग्रंथों में जैनों की सर्वज्ञता—विषयक मान्यता की समीक्षा की है।
सर्वज्ञ का निराकरण नहीं किया जा सकता, क्योंकि उसका कोई बाधक नहीं है। शायद कहा जाए कि सत् को विषय करने वाले पाँच प्रमाण हैं और वे पाँचों प्रमाण सर्वज्ञ का अस्तित्व नहीं बतलाते। अत: सर्वज्ञ के ज्ञापक का अभाव ही सर्वज्ञ का बाधक है। किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है; क्योंकि इस पर इस प्रश्न होता है कि ‘सर्वज्ञ का ज्ञापक प्रमाण नहीं पाया जाता’, यह बात आप अपने अनुभव के आधार पर कहते हैं या सबके अनुभव के आधार पर कहते हैं?
यदि आप अपने अनुभव के आधार पर कहते हैं, तो आपको तो दूसरे के मन के विचारों का भी पता नहीं है, तब क्या उनका भी अभाव कहा जाएगा ? और यदि सबके अनुभव के आधार पर कहते हैं, तो आपको यह ज्ञान वैâसे हुआ कि देशान्तर और कालान्तरवर्ती सब मनुष्यों को सर्वज्ञ को बतलाने वाले किसी प्रमाण का पता नहीं था ?
इसी से तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में कहा है—‘सर्वज्ञ का ज्ञापक (बतलाने वाला) कोई प्रमाण नहीं है’, यदि यह आप अपने व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर कहते हैं, तब तो ‘समुद्र में कितने घड़े पानी है।’ यह बात आप नहीं जानते तो क्या समुद्र के पानी घड़ों के रूप में कोई माप ही नहीं है ? यदि आप यह बात सब व्यक्तियों के अनुभव के आधार पर कहते हैं तो अल्पज्ञानी पुरुष सब मनुष्यों के व्यक्तिगत अनुभवों को नहीं जान सकता, अत: वह ऐसी बात वैâसे कह सकता है?
और यदि कोई ऐसा व्यक्ति है जो देशान्तर और कालान्तरवर्ती सब मनुष्यों के अनुभवों को जानता है तो फिर आप सर्वज्ञ का निषेध क्यों करते हैं ? क्योंकि सबको सर्वज्ञ के ज्ञापक प्रमाण की अनुपलब्धि है’, यह बात चक्षु आदि इन्द्रियों से जानी नहीं जा सकती; क्योंकि अतीन्द्रिय है; न अनुमान से जानी जा सकती है, क्योंकि उसका सूचक कोई िंलग नहीं है। सब प्रत्यक्ष और अनुमान से नहीं जाना जा सकता, तो फिर अर्थापत्ति और उपमान प्रमाण की तो गति ही कहाँ है ?
क्योंकि यदि सबको सर्वज्ञ के ज्ञापक का अनुपलम्भ न होता तो अमुक बात न होती। चूँकि अमुक बात है, अत: सबको सर्वज्ञ के ज्ञापक का अनुपलम्भ है। इस तरह से सर्वज्ञ के ज्ञापक के अनुपलम्भ के अभाव में न हो सकने वाली कोई बात होती, तो उसके आधार पर अन्यथानुपपत्ति प्रमाण के द्वारा सर्वसम्बन्धितज्ञापकानुपलम्भ को जाना जा सकता था सो कोई है नहीं। इसी तरह उपमान प्रमाण से भी सर्वसम्बन्धिज्ञापकानुपलम्भ को नहीं जाना जा सकता।
इस तरह जब सर्वसम्बन्धिज्ञापकानुपलम्भ को प्रत्यक्ष, अनुमान, अर्थापत्ति और उपमान प्रमाण से नहीं जाना जा सकता, तो केवल आगम प्रमाण शेष रहता है। किन्तु मीमांसक आगम प्रमाण वेद से भी यह नहीं कह सकता है कि सबको सर्वज्ञ के ज्ञापक प्रमाण का अनुपलम्भ है; क्योंकि मीमांसक वेद को केवल यज्ञ—यागादि के विषय में प्रमाण मानता है, तब वह वेद सर्वज्ञ की सत्ता या असत्ता के विषय में प्रमाण वैâसे हो सकता है ?
शायद कहा जाए कि अभाव प्रमाण से हम यह बात जानते हैं कि सबको सर्वज्ञ के ज्ञापक प्रमाण का अनुपलम्भ है। किन्तु ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि अभाव प्रमाण की प्रवृत्ति सर्वत्र नहीं होती। आपने ही माना है कि दृश्य वस्तु का दर्शन न होना उसके अभाव में प्रमाण है, केवल दिखाई न देने से ही किसी का अभाव नहीं माना जा सकता। अत: जो घट को खोजता है वह पहले घड़ा रखने की जगह को देखता है।
फिर उसे घड़े का स्मरण होता है, उसके पश्चात् इन्द्रियों की सहायता के बिना ही उसके मन में यह ज्ञान होता है कि घड़ा नहीं है, यह अभाव प्रमाण है। आपके इस कथन के अनुसार पहले सब मनुष्यों को जानना चाहिए, फिर सर्वज्ञ के ज्ञापक प्रमाणों का स्मरण होना चाहिए।
तब उसको सर्वज्ञ के ज्ञापक प्रमाणों का अनुपलम्भ है, ऐसा ज्ञान हो सकता है। किन्तु सब मनुष्यों का साक्षात् ज्ञान एक साथ हो नहीं सकता, और न क्रम से ही हो सकता है; क्योंकि अपने सिवा अन्य आत्माओं का प्रत्यक्ष आपको इष्ट नहीं है अर्थात् आत्मान्तर का प्रत्यक्ष होना आप नहीं मानते।
दूसरे क्रम से सब आत्माओं को जानने में एक बाधा और भी है। जिस समय किसी एक आत्मा को ज्ञापकोपलम्भ के अभाव का ज्ञान होगा, उस समय अन्य मनुष्य—सम्बन्धी ज्ञापकोपलम्भ के अभाव का ज्ञान नहीं होगा। तब ‘सबको ज्ञापक का अनुपलम्भ है’ यह ज्ञान वैâसे हो सकता है ?
तथा मीमांसक के मत में किसी अन्य प्रमाण से भी सब मनुष्यों का ज्ञान नहीं हो सकता; क्योंकि उनके सूचक िंलग आदि का अभाव है। इसके सिवा, पहले सर्वज्ञ के ज्ञापक का उपलम्भ सिद्ध हो तो पीछे उसका स्मरण होने पर ‘सर्वज्ञ के ज्ञापक का उपलम्भ ही सिद्ध नहीं है।’
शायद आप (मीमांसक) कहें कि जैन लोग सर्वज्ञ के ज्ञापक प्रमाण का उपलम्भ मानते हैं, अत: उनके मानने से जो ज्ञापकोपलम्भ सिद्ध हैं, हम उसका अभाव सिद्ध करते हैं। किन्तु ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि हम जैन लोग जो सर्वज्ञ के ज्ञापक का उपलम्भ मानते हैं, हमारा वह मानना प्रमाण है या अप्रमाण है ?
यदि वह प्रमाण है तब तो आपको भी सर्वज्ञ के ज्ञापक प्रमाण का उपलम्भ मानना चाहिए। फिर आप उसका निषेध क्यों करते हैं ? और यदि वह हमारा मानना अप्रमाण है, तो उसके आधार पर आप अभाव प्रमाण से ज्ञापकानुलम्भ की सिद्धि नहीं कर सकते। अत: सर्वज्ञ के ज्ञापक प्रमाण का अनुपलम्भ सर्वज्ञ के अस्तित्व में बाधक नहीं हो सकता, क्योंकि वह सिद्ध नहीं हो सका। इसलिए सर्वज्ञ के बाधक प्रमाण का सुनिश्चित अभाव ही सर्वज्ञ का साधक है।
क्योंकि जो वस्तु असत् होती है, उसके बाधक प्रमाण का सुनिश्चित रूप से अभाव नहीं होता। जैसे मरीचिका में होने वाला जलज्ञान झूठा है, अत: उस्ाका बाधक प्रमाण है। किन्तु सर्वज्ञ का बाधक कोई प्रमाण नहीं है, यह सुनिश्चित है। अत: सर्वज्ञ अवश्य है।
इसी तरह ‘अष्टसहस्री’ के रचयिता स्वामी विद्यानन्द ने मीमांसक का निराकरण करते हुए सर्वज्ञ की सिद्धि इस आधार पर की है कि मीमांसक जो छह प्रमाण मानता है, उनमें से कोई भी प्रमाण ऐसा नहीं है जिससे यह सिद्ध किया जा सके कि कोई पुरुष सर्वज्ञ नहीं है। अत: सर्वज्ञ के अस्तित्व में बाधक किसी प्रमाण के न होने से सर्वज्ञ की सत्ता सिद्ध की गयी है।
मीमांसक मानता है कि वेद के द्वारा विशिष्ट पुरुषों को भूत, वर्तमान और भावी पदार्थों का तथा विप्रकृष्ट पदार्थों का ज्ञान हो सकता है। इससे स्पष्ट है कि आत्मा में सकल पदार्थों को जानने की शक्ति है। तथा अनुमान प्रमाण के लिए व्याप्ति ज्ञान आवश्यक है। और व्याप्ति ज्ञान का विषय समस्त देश और समस्त काल होता है। जैसे ‘जो सत् है वह सब अनेकान्तात्मक होता है’ यह व्याप्ति ज्ञान है, जो सत् मात्र को विषय करता है।
इस व्याप्ति ज्ञान से भी यह स्पष्ट है कि आत्मा में सब पदार्थों को जानने की शक्ति है। अब प्रश्न यह होता है कि जब आत्मा में सब पदार्थों को जानने की शक्ति है और वह ज्ञान स्वभाव है, तो वह सबको जानता क्यों नहीं है ? इसका उत्तर यह है कि जैसे मदिरा पीने से मनुष्य उसके नशा से ग्रस्त हो जाता है, वैसे ही ज्ञानावरण आदि कर्मों के सम्बन्ध से आत्मा में अज्ञान का उदय होता है। और कर्मों को अभाव होने पर जब वह पूरी तरह से व्यामोह से मुक्त हो जाता है तो समस्त अतीत, अनागत और वर्तमान पदार्थों को जानता देखता है, तब उसके लिए दूरी और निकटता का प्रश्न नहीं रहता।
अब प्रश्न होता है कि ज्ञानावरण आदि कर्मों का अभाव हो जाने पर यह आत्मा पूरी तरह से व्यामोह रहित वैâसे हो जाता है, जिससे वह अर्थ पर्याय ओर व्यंजनपर्याय स्वरूप समस्त अतीत, अनागत और वर्तमान पदार्थों को साक्षात् जानता है ? इसका उत्तर इस प्रकार है–जो जिसके होने पर ही होता है वह उसके अभाव में नहीं ही होता। जैसे अग्नि के अभाव में धूम नहीं होता। ज्ञानावरण आदि कर्मों का सम्बन्ध होने पर ही आत्मा में अज्ञान होता है, अत: उनके अभाव में वह नहीं होता। यह निश्चित है।
शंका— जब सर्वज्ञ एक क्षण में ही सब पदार्थों को जान लेता है, तो दूसरे क्षण में उसे जानने के लिए कुछ भी नहीं रहता, अत: वह अज्ञ कहा जाएगा। तथा जब वह रागी मनुष्यों में स्थित राग को जानेगा तो वह भी रागी हो जाएगा ?
उत्तर—यह भी ठीक नहीं है, यदि दूसरे क्षण में पदार्थों का अथवा उसके ज्ञान का अभाव हो जाए तो वह अज्ञ हो सकता है। किन्तु ऐसा नहीं होता; क्योंकि सर्वज्ञ का ज्ञान तथा दुनिया के पदार्थ, दोनों ही अनन्त हैं। अत: प्रथम क्षण में सर्वज्ञ भावी पदार्थों को ‘ये भविष्य में उत्पन्न होंगे’ इस रूप से जानता है, न कि वर्तमान रूप से। बाद में उत्पन्न होने पर वे ही पदार्थ वर्तमान रूप से प्रतिभासित होते हैं।
अत: जिस समय जो वस्तु जिस धर्म से विशिष्ट होती है, उस समय सर्वज्ञ के ज्ञान में उसी रूप से प्रतिभासित होती है। रही दूसरी आपत्ति, सो वह भी अनुचित है; क्योंकि रागादि रूप से परिणमन करने से ही कोई रागी होता है, राग को जानने मात्र से कोई रागी नहीं हो जाता।
अन्यथा जिस समय कोई पुरुष मदिरा पान छुड़ाने के लिए मदिरा की बुराई बतलाता है, उस समय वह भी शराबी कहा जाएगा। अत: जिस मनुष्य में इन्द्रियों में उद्रेक पैदा करने वाली वासना जाग्रत होती है, वही रागादिमान कहा कहा जाता है; किन्तु जो वीतराग होता है, वही सर्वज्ञ होता है, अत: सर्वज्ञ में जानने मात्र से राग का सद्भाव नहीं माना जा सकता।
शंका—यदि सर्वज्ञ का ज्ञान संसार के आदि और अन्त को जान लेता है तो संसार अनादि अनन्त नहीं रहता, और यदि नहीं जानता तो वह सर्वज्ञ वैâसे हुआ ?
उत्तर—यह पहले कह आये हैं कि जो वस्तु जिस रूप से स्थित होती है, उसको सर्वज्ञ उसी रूप से जानता है। अत: जो अर्थ अनादि—अनन्त रूप से स्थित है उसकी सर्वज्ञ अनादि—अनन्त रूप से ही मानता है।
शंका—यदि सर्वज्ञ भविष्य को जानते हैं तो भविष्य भी निश्चित हो जाता है। और जब भविष्य निश्चित है तो पुरुषार्थ व्यर्थ ठहरता है ?
उत्तर—सर्वज्ञ के जान लेने से भविष्य निश्चित नहीं हो जाता, किन्तु जो होनहार है वह निश्चित है और उसे सर्वज्ञ जानता है। किन्तु इससे पुरुषार्थ एकदम व्यर्थ नहीं ठहरता। संसार में बहुत से कार्य ऐसे होते हैं, जिनमें दैव की प्रधानता और पुरुषार्थ की गौणता होती है; और बहुत से कार्य ऐसे होते हैं जिनमें पुरुषार्थ की प्रधानता और दैव की गौणता होती है।
जैसे बम्बई के समुद्रतट पर खड़े जहाज में विस्फोट होने से उस पर लदा सोना उड़—उड़कर तट से दूर शहर के घरों में छतों को तोड़कर जा गिरा और उनमें रहने वालों को अनायास मिल गया। इसमें दैव की प्रधानता है। और सुबह से शाम तक श्रमपूर्वक तरह—तरह के उद्योग—धन्धे करके जो धन—संचय करते हैं, उनमें पुरुषार्थ की प्रधानता है।
सर्वज्ञ का ज्ञान इन सबको जानता है। जो दैववादी हैं उनके भी भविष्य को जानता है, जो पुरुषार्थवादी हैं उनके भी भविष्य को जानता है। जो पुरुषार्थ करके उसमें सफल होंगे, उनके भी भविष्य को जानता है और पुरुषार्थ करके उसमें सफल नहीं होंगे, उनका भी भविष्य जानता हैं किन्तु किसी का भविष्य वह बनाता या बिगाड़ता नहीं है। उसका बनाना या बिगाड़ना तो स्वयं उस व्याfक्त के ही हाथ में है। स्वयं अपने पुरुषार्थ से ही वह उसे बनाता या बिगाड़ता है।
क्योंकि जिसे हम दैवे कहते हैं, वह भी तो पूर्व जन्म में किया हुआ पुरुषार्थ ही है। किन्तु वह निश्चित है और उसे सर्वज्ञ जानता है। यहाँ इतना और समझ लेना चाहिए कि पुरुषार्थ की सफलता का मतलब ‘जो नहीं होने वाला हो उसका होना’ नहीं है, किन्तु जो होने वाला हो उसको बना लेना ही पुरुषार्थ की सफलता है। इस तरह जैनदर्शन में निरावरण केवलज्ञान को सकल प्रत्यक्ष माना है और केवलज्ञानी को सर्वज्ञ, सर्वदर्शी कहा है।