प्रमाण मुख्यत: दो प्रकार का है। प्रत्यक्ष प्रमाण और परोक्ष प्रमाण
प्रत्यक्ष के दो भेद हैं-१. सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष २. पारमार्थिक प्रत्यक्ष।
सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष-‘‘देशतो विशदं सांव्यवहारिकं प्रत्यक्षं’’ एक देश स्पष्ट ज्ञान को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते हैं।
सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के भेद-१. अवग्रह २. ईहा ३. अवाय ४. धारणा।
अवग्रह की व्याख्या-इन्द्रिय और पदार्थ के सम्बन्ध होने के बाद उत्पन्न हुए सामान्य अवभास (दर्शन) के अनन्तर होने वाले और अवान्तर सत्ता जाति से युक्त वस्तु को ग्रहण करने वाले ज्ञान विशेष को अवग्रह कहते हैं जैसे-यह पुरुष है।
ईहा-अवग्रह से जाने हुए पदार्थ में विशेष जानने की इच्छा को ईहा कहते हैं। जैसे-यह पुरुष दक्षिणी है या उत्तरी।
अवाय-भाषा, वेश आदि विशेष को जानकर निश्चित करना अवाय है। जैसे-यह दक्षिणी ही है।
धारणा-अवाय से जाने हुए पदार्थ को कालान्तर में न भूलना धारणा कहलाता है।
धारणा से ही स्मृति की उत्पत्ति होती है अत: इसका दूसरा नाम संस्कार भी है।
शंका-यह ईहादिक ज्ञान पहले-पहले ज्ञान से जाने हुए पदार्थ को ही जानते हैं अत: धारावाहिक ज्ञान की तरह अप्रमाण हैं?
समाधान-भिन्न विषय होने से अगृहीत ग्राही हैं। जो पदार्थ अवग्रह का विषय है वह ईहा का नहीं है और जो ईहा का है वह अवाय का नहीं है एवं जो अवाय का है वह धारणा का नहीं है इसलिए इनका विषय भेद बिल्कुल स्पष्ट होने से यह धारावाहिक नहीं है। ये अवग्रहादिक चारों ज्ञान जब इन्द्रियों से जाने जाते हैं तब इन्द्रिय प्रत्यक्ष कहे जाते हैं और जब मन से उत्पन्न होते हैं तब अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष कहलाते हैं।
पांच इन्द्रिय और मन इन दोनों के निमित्त से होने वाला अवग्रहादिकरूप ज्ञान लोकव्यवहार में प्रत्यक्ष प्रसिद्ध है।
इसलिए इसे सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते हैं। वास्तव में मति और श्रुतज्ञान को तत्त्वार्थसूत्र में परोक्ष माना है इसलिए यहां मतिज्ञान को उपचार से प्रत्यक्ष समझना चाहिए।
इस प्रकार से यहाँ तक परीक्षामुख सूत्र के आधार से प्रमाण का लक्षण, उसके दो भेद, प्रत्यक्ष के दो भेद एवं परोक्ष के स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम ऐसे पाँच भेदों का लक्षण किया गया है।
न्यायदीपिका ग्रंथ में कुछ विशेषता है, उसे बताते हैं।
प्रमाण के दो भी भेद हैं—प्रत्यक्ष और परोक्ष।
उसमें विशद—स्पष्ट प्रतिभास को प्रत्यक्ष कहते हैं।
उस प्रत्यक्ष के भी दो भेद हैं-सांव्यवहारिक और पारमार्थिक। एक देश स्पष्ट ज्ञान को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते हैं। उसके चार भेद हैं-अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा। यह ज्ञान पाँच इन्द्रिय और मन की सहायता से उत्पन्न होता है अत: चार को छह से गुणा करने से ४²६·२४ भेद हुए हैं, इस ज्ञान के विषयभूत पदार्थ बहु, बहुविध आदि के भेद से बारह प्रकार के हैं अत: इन २४ को १२ से गुणा करने पर २४²१२·२८८ भेद हुए।
अवग्रह के दो भेद होते हैं—व्यञ्जनावग्रह, अर्थावग्रह। व्यंजनावग्रह में केवल अवग्रह ही होता है ईहा आदि भेद नहीं होते हैं एवं यह चक्षु और मन से नहीं होता है अत: एक व्यञ्जनावग्रह को ४ इंद्रिय से गुणा करके १२ भेदों से गुणित कीजिए १²४·४, ४²१२·४८, पुन: उपर्युक्त २८८ में इस संख्या को मिला देने से इस सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के ३३६ भेद होते हैं यथा—२८८±४८·३३६। इन भेदों को आगे सारणी में प्रस्तुत किया गया है।
इस सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष को अमुख्य प्रत्यक्ष भी कहते हैं। क्योंकि यह उपचार से सिद्ध है। इसी का नाम मतिज्ञान है वास्तव में यह ज्ञान परोक्ष है जैसा कि तत्त्वार्थसूत्र ग्रंथ में श्री उमास्वामी आचार्य ने स्पष्ट किया है ‘‘आद्ये परोक्षं’’ आदि के मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्षज्ञान हैं क्योेंकि ये इन्द्रिय, मन आदि की अपेक्षा रखते हैं अत: परोक्ष हैं। यहाँ न्याय ग्रंथों में मतिज्ञान को प्रत्यक्ष कहने का मतलब यह है कि यह ज्ञान इन्द्रिय और मन इन दो निमित्तक होते हुए भी लोक के संव्यवहार में प्रत्यक्ष इस प्रकार से प्रसिद्ध होने से सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहलाता है। वास्तव में यह मतिज्ञान परोक्ष ही है। श्रुतज्ञान को तो परोक्ष प्रमाण में आगम नाम से कहा ही है।
चार्वाक ने एक प्रत्यक्ष ही प्रमाण माना है।
बौद्ध और वैशेषिक प्रत्यक्ष अनुमान ऐसे दो प्रमाण स्वीकार करते हैं। सांख्य ने प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम ऐसे तीन भेद माने हैं। नैयायिक ने उसमें उपमान और मिला दिया है। मीमांसक इसी में अर्थापत्ति और अभाव मिलाकर छह भेद कर देते हैं।
जैनाचार्यों ने सर्वत्र प्रमाण के दो भेद किये हैं—प्रत्यक्ष और परोक्ष। इन दो भेदों में ही उपर्युक्त प्रमाण के भेद गर्भित हो जाते हैं।
सिद्धान्त ग्रंथों में आचार्य श्री उमास्वामी आदि ने प्रत्यक्ष के दो भेद किये हैं विकल और सकल। विकल में अवधि, मन:पर्यय एवं सकल में केवलज्ञान है।
परोक्ष प्रमाण का लक्षण-अविशद अर्थात् अस्पष्ट प्रतिभास को परोक्ष प्रमाण कहते हैं। कोई कहता है कि परोक्ष प्रमाण सामान्य मात्र को विषय करता है किन्तु यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि प्रत्यक्ष प्रमाण की तरह परोक्ष प्रमाण भी सामान्य और विशेषात्मक वस्तु को विषय करते हैं। परोक्ष प्रमाण के पांच भेद हैं-१. स्मृति २. प्रत्यभिज्ञान ३. तर्क ४. अनुमान ५. आगम।
स्मृति का लक्षण-पहले ग्रहण किए हुए पदार्थ को विषय करने वाले ‘‘वह’’ इस आकार वाले ज्ञान को स्मृति कहते हैं जैसे-वह देवदत्त।
जिस पदार्थ का पहले कभी अनुभव नहीं हुआ उस पदार्थ की स्मृति भी नहीं हो सकती इसलिए स्मृति का मूल कारण धारणारूप अनुभव ही है।
शंका-धारणा के द्वारा ग्रहण किए गए पदार्थ में ही स्मरण की उत्पत्ति होती है इसलिए यह स्मृति ग्रहीत ग्राही होने से अप्रमाणीक है ?
समाधान-ऐसा कहना ठीक नहीं, क्योंकि ईहादिक की तरह इनके विषय में भी विशेषता है अर्थात् जिस प्रकार ईहादिक ज्ञानों की प्रवृत्ति अवग्रहादिक के द्वारा ग्रहण किए हुए विषय में ही होने पर भी उनके विषय में कुछ न कुछ विशेषता रखती है क्योंकि धारणा का विषय ‘‘यह ऐसा है’’ और स्मरण का विषय ‘‘यह ऐसा है’’ एवं अविसंवादी होने से स्मृति ज्ञान भी प्रमाण है प्रत्यक्षादि की तरह। जिसमें विस्मरण, संशय और विपर्ययास पाया जाता है वह स्मृति न होकर स्मरणाभासरूप अप्रमाण है।
प्रत्यभिज्ञान का लक्षण-अनुभव तथा स्मृति के निमित्त से होने वाले जोड़रूप ज्ञान को प्रत्यभिज्ञान कहते हैं अर्थात् ‘‘यह’’ इस प्रकार के ज्ञान को अनुभव कहते हैं और ‘‘वह’’ शब्द के उल्लेखि ज्ञान को स्मरण कहते हैं, अनुभव और स्मरण इन दोनों से उत्पन्न होने वाला ज्ञान प्रत्यभिज्ञान कहलाता है। इसके मुख्य चार भेद हैं-१. एकत्व २. सादृश्य ३. विलक्षण ४. तत्प्रतियोगी।
१. एकत्व-यह वही देवदत्त है जिसे कल देखा था।
२. सादृश्य-यह गाय रोज के सदृश है।
३. विलक्षण-यह भैंस गाय से विलक्षण है।
४. तत्प्रयोगी-यह इससे दूर है इत्यादि।
शंका-कोई कहता है कि अनुभव और स्मृति को छोड़कर अन्य कोई प्रत्यभिज्ञान नाम का प्रमाण नहीं है?
समाधान-यह ठीक नहीं है, अनुभव वर्तमानकालवर्ती पर्याय को ग्रहण करता है और स्मृति भूतकालवर्ती पर्याय को विषय करती है। तब अनुभव या स्मृतिज्ञान भूत और वर्तमान इन दोनों कालों के जोड़रूप एकत्व या सदृशपने को वैâसे ग्रहण करेंगे इसलिए स्मृति तथा अनुभव से भिन्न उसके अनन्तर होने वाला दोनों का जोड़रूप ज्ञान एक भिन्न ही मानना चाहिए।
शंका-दूसरे कोई लोग एकत्व प्रत्यभिज्ञान को मानकर उसे प्रत्यक्ष में अन्तर्भूत करते हैं क्योंकि वे कहते हैं कि जिस ज्ञान का इन्द्रियों के साथ अन्वय व्यतिरेक है वह प्रत्यक्ष है, यह प्रत्यभिज्ञान इन्द्रियों के साथ अन्वय व्यतिरेक रखता है इसलिए प्रत्यक्ष है ?
समाधान-यह ठीक नहीं है, क्योंकि इन्द्रियां केवल वर्तमान दशा को ग्रहण करती हैं इसलिए वे भूत और वर्तमान दोनों दशा में रहने वाली एकता को प्रकाशित नहीं कर सकती हैं क्योंकि इन्द्रियां भूतकालीन अविषय में प्रवृत्ति नहीं कर सकती हैं।
शंका-इन्द्रियां वर्तमान दशा को ही ग्रहण करती हैं फिर भी सहकारी कारणों की सामर्थ्य से पूर्वोत्तर दोनों दिशाओं में रहने वाले एकत्व आदिक प्रत्यभिज्ञान को कर लेती हैं। जैसे कि-सिद्ध अंजनादि लगाने पर चक्षु से ढके पदार्थ की भी प्रतीति हो जाती है?
समाधान-यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि हजार सहकारी कारण मिलने पर भी इन्द्रियां अविषय में प्रवृत्ति नहीं कर सकती। चक्षु को अंजन आदि सहकारी कारण मिलने पर भी रूपादिक पदार्थों का ही ज्ञान होगा, रस और गंध का ज्ञान नहीं हो सकता। रस और गंध का ज्ञान रसना और घ्राण इन्द्रिय को ही होगा इसलिए पूर्वोत्तर दशा में रहने वाले एकत्व का ज्ञान इन्द्रियों के द्वारा नहीं हो सकता अत: उसका ज्ञान कराने के लिए प्रत्यभिज्ञान नाम का प्रमाण मानना ही चाहिए।
शंका-कोई-कोई सादृश्य प्रत्यभिज्ञान को उपमान नाम का पृथव्â प्रमाण मानते हैं ?
समाधान-यह भी ठीक नहीं है क्योंकि स्मृति और अनुभवपूर्वक जो-जो भी जोड़रूप ज्ञान होते हैं वे सभी प्रत्यभिज्ञान ही हैं।
परोक्ष प्रमाण के मति श्रुत दो भेद करके मतिज्ञान के पर्यायावाची नामों में श्री उमास्वामी आचार्य ने कहा है कि ‘मति:स्मृतिसंज्ञाचिंताभिनिबोध इत्यनर्थांतरम्’ मति, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क और अनुमान ये पाँचों मतिज्ञान के ही पर्यायवाची नाम है।
तर्क—व्याप्ति के ज्ञान को तर्क कहते हैं।
अनुमान—साधन (हेतु) से साध्य का ज्ञान होना अनुमान है।
आगम—आप्त के वचनों से होने वाला अर्थज्ञान आगम है।
न्याय ग्रंथों में आचार्यों ने प्रत्यक्ष के दो भेद किये हैं—साँव्यवहारिक और पारमार्थिक। सांव्यवहारिक से मतिज्ञान को लिया है और उसके अवग्रह, ईहा, अवाय और धारण रूप से चार भेद करके पाँच इन्द्रिय और मन से गुणा करके बहु आदि पदार्थ के १२ भेदों से भी गुणित करके ३३६ भेद कर दिये हैं। जिनका स्पष्टीकरण पहले आ चुका है। पारमार्थिक के विकल—सकल भेद करते हैं तथा मति के पर्यायवाची स्मृति आदि चारों को परोक्ष में ले लेते हैं। उन चारों में श्रुतज्ञान को आगम प्रमाण से मिलाकर के परोक्ष के पाँच भेद कर देते हैं। यथा-स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम ये परोक्ष प्रमाण के पाँच भेद हैं।
क्योंकि स्मृति आदि मतिज्ञान के समान इन्द्रिय प्रत्यक्ष नहीं है। यही कारण है कि इन्हें परोक्ष में लिया गया है। इस प्रकार से प्रत्यक्ष—परोक्ष प्रमाण में ज्ञान के पाँचों भेद आ जाते हैं।
पारमार्थिक प्रत्यक्ष-पूर्णतया विशदज्ञान को पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहते हैं। इसी का नाम मुख्य प्रत्यक्ष है। इसके दो भेद हैं—विकल प्रत्यक्ष और सकल प्रत्यक्ष। उसमें कतिपय विषय को ग्रहण करने वाला विकल प्रत्यक्ष है उसके भी दो भेद हैं—अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान।
सम्पूर्ण द्रव्य और उनकी सम्पूर्ण पर्यायों को विषय करने वाला सकल प्रत्यक्ष है। यह घातिकर्म के नाश से प्रगट हुआ केवलज्ञान है। इस प्रकार से अवधिज्ञान मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान ये तीनों ही पूर्णतया विशद होने से पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहलाते हैं। इन ज्ञानों की पूर्णतया विशदता आत्ममात्र की अपेक्षा रखने वाली है। अर्थात् ये तीनों ज्ञान आत्ममात्र की अपेक्षा से उत्पन्न होते हैं अत: मुख्य प्रत्यक्ष कहलाते हैं।
हेतु—जिसकी साध्य के साथ अन्यथानुपपत्ति (अविनाभाव) निश्चित है उसे हेतु कहते हैं। तात्पर्य यह है कि जिसकी साध्य के अभाव में नहीं होने रूप व्याप्ति, अविनाभाव आदि नामों वाली साध्यनुपपत्ति—साध्य होने पर ही होना और साध्य के अभाव में नहीं होना, इस रूप से तर्क प्रमाण के द्वारा निर्णीत है, वह हेतु है। श्री कुमारनंदि भट्टारक ने भी कहा है-‘‘अन्यथानुपपत्ति मात्र’’ जिसका लक्षण है, उसे लिंग-हेतु कहा गया है।
साध्य का लक्षण—जो शक्य अभिप्रेत और अप्रसिद्ध है। उसे साध्य कहते हैं। यहाँ ‘शक्य’ शब्द से प्रत्यक्षादि प्रमाणों से अबाधित को लेना, ‘अभिप्रेत’ से इष्ट को समझना एवं ‘अप्रसिद्ध’ से असिद्ध को लेना चाहिए। शब्दों में किंचित् अंतर होते हुए भी ये सभी लक्षण पूर्वोक्त सूत्रों के अनुसार ही हैं।
उपसंहार—यहाँ तक जैन सिद्धान्त के अनुसार प्रमाण का लक्षण, प्रमाण के दो भेद, उनके भेद-प्रभेद बतलाये गये हैं। प्रमाण के दो भेदों में प्रत्यक्ष और परोक्ष हैं एवं प्रत्यक्ष के भी दो भेद है। सांव्यवहारिक एवं पारमार्थिक। सांव्यवहारिक-मतिज्ञान के अवग्रह ईहा अवाय, धारणा से चार भेद हैं पुन: इन्द्रिय, मन एवं बहु आदि विषयों से गुणा करने से ३३६ भेद हो जाते हैं। पारमार्थिक प्रत्यक्ष के दो भेद हैं—विवâल, सकल। विकल प्रत्यक्ष के भी दो भेद हैं—अवधि, मन:पर्यय। सकल प्रत्यक्ष से एक केवलज्ञान ही लिया जाता है।
परोक्ष प्रमाण के पाँच भेद हैं—स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम। प्रत्यभिज्ञान के एकत्व, सादृश्य, वैलक्षण्य और प्रातियौगिक के भेद से चार भेद हैं। एवं अनुमान के मुख्य दो अवयव हैं प्रतिज्ञा और हेतु। हेतु के भी उपलब्धि और अनुपलब्धि के भेद से दो भेद हैं। उपलब्धि के अविरुद्धोपलब्धि, विरुद्धोपलब्धि एवं अनुपलब्धि के अविरुद्धानुपलब्धि, विरुद्धानुपलब्धि ऐसे भेद होते हैं। अविरुद्धोपलब्धि के ६ भेद, विरुद्धोपलब्धि के ६ भेद, अविरुद्धानुपलब्धि के ७ भेद एवं विरुद्धानुपलब्धि के ३ भेद ऐसे हेतु के २२ भेद माने गये हैं।
इस प्रकार से सम्यग्ज्ञान को प्रमाण कहकर उसके पाँच भेदों में से मतिज्ञान को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष, श्रुतज्ञान को ‘आगम’ शब्द से परोक्ष अवधि, मन:पर्यय एवं केवलज्ञान को पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहा है। यहाँ तक प्रमाण का विवेचन जैन सिद्धांतानुसार हुआ है।