विरुद्ध अनेक पक्षों के स्पर्श करने वाले ज्ञान को संशय कहते हैं जैसे— यह ठूंठ है या पुरूष। प्राय: संध्या आदि के समय मंद प्रकाश होने के कारण दूर से मात्र स्थाणु और पुरूष दोनों में सामान्य रूप से रहने वाले ऊंचाई आदि साधारण धर्मों के देखने से और स्थानुा का टेढ़ापन आदि एवं पुरुष के शिर पैर आदि विशेष धर्मों के स्पष्ट नहीं होने से नाना कोटियों का अवगाहन करने वाला ज्ञान संशय कहलाता है।विपरीत—
विपरीत एक पक्ष के निर्णय करने वाले ज्ञान को विपर्यय कहते हैं जैसे ‘सीप में यह चाँदी है’ इस प्रकार का ज्ञान होना। इस ज्ञान में सदृशता आदि कारणों से सीप से विपरीत चांदी का सीप में निर्णय होता है अत: यह विपरीत ज्ञान है।
क्या है’ इस प्रकार के अनिश्चय रूप सामान्य ज्ञान को अनध्यवसाय कहते हैं। जैसे — मार्ग में चलते हुये पथिक के पैर में तृण कण्टक आदि के स्पर्श हो जाने पर ऐसा ज्ञाना होना कि ‘यह क्या है’। यह ज्ञान नाना पक्षों का अवगाहन न करने से संशय नहीं है एवं विपरीत एक पक्ष का निश्चय न करने से विपरीत भी नहीं है। अत: संशय विपर्यय से रहित होने से यह तीसरा ही अनध्यवसाय नामक मिथ्या ज्ञान है। ये तीनों ज्ञान सम्यग्ज्ञान में नहीं पाये जाते हैं। श्री माणिक्यनंदि आचार्य प्रमाण का लक्षण करते हैं—
अपना और अपूर्व अर्थ का निश्चय कराने वाला ज्ञान प्रमाण कहलाता है। इस प्रमाण के लक्षण में जो ‘ज्ञान’ पद है वह अज्ञान रूप सन्निकर्ष, कारक साकल्य और इन्द्रिय प्रवृत्ति की प्रमाणता का निराकरण करने के लिए है। जो ‘व्यवसाय’ पद है वह बौद्धाभिमत निर्विकल्प ज्ञान की प्रमाणता का खंडन करने के लिए है। ‘अर्थ’ पद विज्ञानाद्वैत, ब्रह्मद्वैत तथा शून्यैकांतवाद को प्रमाण नहीं मानने के लिये है। ‘अपूर्व‘ विशेषण गृहीतग्राही धारावाही ज्ञान को प्रमाण का निराकरण करने के लिये है। एवं ‘स्व’ विशेषण अस्वसंविदित ज्ञान की प्रमाणता के निषेध के लिए है।
ज्ञान ही प्रमाण क्यों है ?
हिताहितप्राप्पिरिहारसमर्थ हि प्रमाणं ततो ज्ञानमेव तत् ।।२।। (प.मृ.प्र.प.)
जो हित—सुख प्राप्ति और अहित—दु:ख को दूर करने में समर्थ होता है वह प्रमाण है और वह ज्ञान ही हो सकता है अन्य नहीं।
उस प्रमाण के दो भेद हैं। प्रत्यक्ष और परोक्ष । विशद—स्पष्ट ज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाण कहते हैं। प्रत्यक्ष प्रमाण के भी दो भेद हैं— सांव्यवहारिक और पारमार्थिक ।
द्रव्य, क्षेत्र, काल, और भाव रूप सामग्री की पूर्णता से दूर हो गये हैं समस्त आवरण जिसके ऐसे इन्द्रियों की सहायता रहित और पूर्णतया विशद् ज्ञान को मुख्य प्रत्यक्ष कहते हैं। क्योंकि आवरण सहित और इन्द्रियजन्य ज्ञान में ही बाधा संभव है अन्यत्र नहीं।
परोक्ष प्रमाण का लक्षण
परोक्षमितरत् ।।१।। (प.मु.तृ.प.)
प्रत्यक्ष प्रमाण से भिन्न सभी प्रमाण परोक्ष हैं अर्थात् अविशद ज्ञान को परोक्ष प्रमाण कहते हैं।
परोक्ष प्रमाण के भेद
परोक्ष प्रमाण के प्रत्यक्ष स्मृति आदि आगे—आगे कारण माने गये हैं। इसके पांच भेद हैं—स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम। पहले धारणा रूप प्रत्यक्ष हुये पदार्थ का ही स्मरण होता है इसलिए स्मृतिज्ञान में प्रत्यक्ष निमित्त है प्रत्यभिज्ञान में स्मृति और प्रत्यक्ष की आवश्यकता पड़ती ळै। तर्क ज्ञान में प्रत्यक्ष, स्मृति और प्रत्यभिज्ञान तीनों की आवश्यकता होती हैं । अनुमान ज्ञान में प्रत्यक्ष, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान और तर्क इन चारों की आवश्यकतस रहती है। आगम प्रमाण में संकेत ग्रहण और उसका स्मरण ये दोनों ही कारण होते हैं। तात्पर्य यह है कि इन पांचों ही प्रमाणों में दूसरे प्रमाणों की आवश्यकता होती है इसलिए उन्हें परोक्ष प्रमाण कहते हैं।
स्मृति प्रमाण का लक्षण
संस्कारोद्बोधनिबंधना तदित्याकारा स्मृति: ।।३।। स देवदत्तो यथा।।४।। (प.मु.तृ.प.)
संस्कार— धारणारूप अनुभव की प्रगटता से होने वाले तथा ‘तत्’ — ‘वह’ इस आकार वाले ज्ञान को स्मृति कहते हैं। जैसे वह देवदत्त।
वर्तमान का प्रत्यक्ष और पूर्व दर्शन का स्मरण है जिसमें ऐसे जोड़ रूप ज्ञान को प्रत्यभिज्ञान कहते हैं। उसके एकत्व, सादृश्य, वैलक्षण्य और प्रातियौगिक ये चार भेद हैं। ‘यह वही है’ इसे एकत्व प्रत्यभिज्ञान कहते हैं। ‘यह उनके ादृश है’ यह सादृश्य प्रत्यभिज्ञान है। ‘ यह उससे विलक्षण है’ यह’ विलक्षण प्रत्यभिज्ञान हैं। यह उसका प्रतियोगी है। उन चारों में क्रमश: इस प्रकार प्रतिभास होता है।
यह वही देवदत्त है, यह एकत्व प्रत्यभिज्ञान का उदाहरण है। यह रोक्त भी के समान है, यह सादृश्य प्रत्यभिज्ञान का उदाहरण है। यह भैंस उस गौ से विलक्षण है, यह विलक्षण प्रत्यभिज्ञान का उदाहरण है। यह प्रदेश उस प्रदेश से दूर है, यह वही वृक्ष है ये सब प्रत्यभिज्ञान के उदाहरण हैं।
साध्य और साधन का निश्चय और अनिश्चय है कारण जिसमें ऐसे व्याप्ति के ज्ञान को तर्क कहते हैं।
व्याप्ति ज्ञान का स्वरूप
इदमस्मिन् सत्येव भवत्यसति तु न भवत्येव।।८।।
यथाग्नावेव धूमस्तदभावे न भवत्येवेति च।।९।। (प.मु.तृ.प.)
यह साधन इस साध्य के होने पर ही होता है और साध्य के नहीं होने पर यह सासधन नही होता है, यही व्याप्ति है। जैसे अग्नि के होने पर ही धूम होता है और अग्नि के नहीं होने पर नहीं होता है।साधनात् साध्यविज्ञानंमनुमानं ।।१०।। (प.मु.तृ.प.)साधन से होने वाले साध्य के ज्ञान को अनुमान कहते हैं।
जिनका साध्य के साथ अविनाभाव निश्चित होवे अर्थात् जो साध्य के बिना नहीं हो सकता है उसे साधन—हेतु कहते हैं।
अविनाभाव का स्वरूप और भेद
जो जिसके बिना न होवे उसे उसका अविनाभावी कहते हैं। उसके दो भेद हैं—
सहक्रमभाव नियमोऽविनाभाव : ।।१२।। (प.मु.तृ.प.)
साध्य और साधन का एक साथ एक समय में होने का नियम सहभाव नियम अविनाभाव कहलाता है । और काल के भेद से साध्य साधन का क्रम से होने का नियम क्रमभाव नियम कहलाता है।
सदा साथ रहने वालों में तथा व्याप्क और व्याप्क में जो अविनाभाव संबंध होता है उसे सहभाव नियम नामक अविनाभाव संबंध कहते हैं । रूप—रस सदा एक साथ रहते हैं। वृक्षत्व व्यापक और शिशपात्व व्याप्य है। जो तत् अतत् ऐसे दोनों जगह रहता है वह व्यापक है और जो अल्पदेश में रहता है वह व्याप्य कहलाता है।
पूर्वचर और उत्तरचर में तथा कार्य और कारण में जो अविनाभाव संबन्ध होता है, उसे क्रमभाव नियम अविनाभाव संबन्ध कहते हैं । कृतिका का उदय अंदर्मुहमर्त पहले होता है और रोहिणी का उदय पीछे होता है । इसलिए इन दोनों में क्रमभाव माना गया है। इसी प्रकार अग्नि के बाद में धूम होता है, इसलिए अग्नि और धूम में भी कार्यकारणरूप क्रमस्वरूप माना जाता है।
व्याप्ति ज्ञान का निर्णय कैसे होता है ?
तर्कात् तन्निर्णय: ।।१५।। (प.मु.तृ.प.)
व्याप्ति—अविनाभाव का निर्णय तर्क प्रमाण से होता है । जैनाचार्यों के सिवाय अन्य किसी ने भी तर्क प्रमाण को नहीं माना है अत: सबके द्वारा मान्य प्रमाण की संख्या असत्य ठहरती है ।
इष्टाबाधितमसिद्ध साध्यं ।।१६।। (प.मु.तृ.प.)
जो वादी को इष्ट—अभिप्रेत है— प्रत्यक्षादि प्रमाणों से अबाधित है और प्रसिद्ध है और असिद्ध उसे साध्य कहते हैं। यहां प्रसिद्ध विशेषण का प्रयोजन यह है कि कोई भी सिद्ध अर्थ को साध्य की कोटि में नहीं रखेगा अतएव असिद्ध को ही साध्य की कोटि में रखकर सिद्ध किया जाता है । धर्म और धर्मी के समुदाय का कथन ‘पक्ष’ कहलाता है। धर्मी को भी पक्ष कहते हैं।
प्रसिद्धों धर्मी।।२३।। (प.मु.तृ.प.)
वह धर्मी—पक्ष प्रसिद्ध ही होता है । अवस्तु स्वरूप या कल्पित नहीं होता है। अनुमान के दो अंग होते हैं
पक्ष और हेतु ये दो ही अनुमान के अवयव हैं। साँख्य —पक्ष हेतु और दृष्टांत, मीमांसक—प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण व उपनय तथा नैयायिक—प्रतिज्ञा हेतु उदाहरण उपनय और निगमन ऐसे ये लोग क्रम से ३, ४ या ५ अवयव मानते हैं। जिनका जैनाचार्यों ने खण्डन किया है। बौद्ध क ‘हेतु ’ को ही अनुमान का अवयव मानता है।
कदाचिद् जैनाचार्य भी पांच अवयव मान लेते हैं
बालव्युत्पत्यर्थ तत्त्रयोपगमे शास्त्रे एवासौ न वादेऽनुपयोगात् ।।४२।। (प.मु.तृ.प.)
बाल बुद्धि वाले— अल्पज्ञ जनों को समझाने के लिए उदाहरण उपनय और निगमन की स्वीकारता शास्त्र में ही है, वाद काल में नहीं। क्योंकि वाद करने का अधिकार विद्वानों को ही होता है और वे पहले से ही व्युत्पन्न रहते हैं। इसलिए उनको उदाहरण आदि का प्रयोग उपयोगी नहीं होता। उदाहरण के भेद उदाहरण के दो भेद हैं।
जिसमें साध्य के साथ साधन की व्याप्ति दिखायी जाती है उसे अन्वय दृष्टांत कहते हैं। जैसे — जहां— जहां धूम होता है वहां—वहां अग्नि अवश्य होती है, इस प्रकार साधन का सद्भाव दिखाकर साध्य का सद्भाव दिखाना अन्वयव्याप्ति है।
व्यतिरेक दृष्टान्त का स्वरूप
साध्याभावे साधनाभावो यत्र कय्यते स व्यतिरेक दृष्टान्त: ।।४५।। (प.मु.तृ.प.)
जिसमें साध्य का अभाव दिखाकर साधन का अभाव दिखाया जाता है वह व्यतिरेक दृष्टांत है। जैसे—जहां —जहां अग्नि नहीं होती है वहां—वहां धूम भी नहीं होता है , इस प्रकार से साध्य के अभाव में साधन का अभाव दिखाना व्यतिरेक व्याप्ति है। ==उपनय का लक्षण ==हेतोरुपसंहार उपनय: ।।४६।। (प.मु.तृ.प.)पक्ष में साधन के दुहराने को उपनय कहते हैं।
निगमन का स्वरूप
प्रतिज्ञायास्तु निगमनम् ।।४७।। (प.मु.तृ.प.)
प्रतिज्ञा के दुहराने को निगमन कहते हैं। जैसे धूम वाला होने से यह अग्नि वाला है। अनुमान के
श्रुममान के दो भेद हैं । स्वार्थानुमान और परार्थानुमान।
स्वार्थयुत्तंकं लक्षणं।।५०।।
परार्थ तु तदपरामर्शिवचनाज्ज्ञातं ।।५१।।
तद्वचनमपि तद्र्धतुत्वात् ।।५२।। (प.मु.तृ.प.)
स्वार्थानुमान के विषय भूत, साध्य और साधन को कहने वाले वचनों से उत्पन्न हुए ज्ञान को परार्थानुमान कहते हैं। एवं परार्थानुमान के कारण होने से परार्थानुमान के प्रतिपादक वचनों को भी परार्थानुमान कहते हैं।
हेतु के भेद
स हेतुद्र्वेधोपलब्ध्यनुपलब्धिभेदात् ।।५३।। (प.मु.तृ.प.)
हेतु के दो भेद हैं उपलब्धि रूप हेतु और अनुपलब्धि रूप हेतु । उपलब्धि रूप हेतु विधि और प्रतिषेध के साधक हैं एवं अनुपलब्धि रूप हेतु भी विधि और प्रतिषेध दोनों के साधक हैं। अर्थात् उपलब्धि के दो भेद हैं अविरूद्धोपलब्धि । ऐसे ही अनुपलब्धि के भी दो भेद हैं—अविरुद्धानुपलब्धि और विरूद्धानुपलब्धि। अविरुद्धोपलब्धि के विधि में छह भेद हैं।
यहाँ हेतु के ये बावीस भेद बताये हैं प्रत्येक के लक्षण और उदाहरण परीक्षा मुख ग्रन्थ से देख लेना चाहिए। इन बाईस हेतुओं में से सबसे प्रथम अविरुद्ध व्याप्योपलब्धि, का उदाहरण देते हैं—
‘‘परिणामी शब्द: कृतकत्वात् य एवं स एवं दृष्टो यथा घट:
कृतकश्चार्य तस्मात्परिणमीतियस्तु न परिणामी स न
कृतको दृष्टो यथा वन्ध्यास्तनंघय:,
कृतकश्चायं, तस्तात्परिणामी।।९१।। (प.म.तृ.प.)
अर्थ —शब्द परिणामी होता है क्योंकि वह किया हुआ है। जो—जो किया हुआ होता है वह—वह परिणामी होता है जैसे घड़ा। घड़े की तरह शब्द भी किया हुआ है अत: वह भी परिणामी होता है जो पदार्थ परिणामी नहीं होता वह पदार्थ किया भी नहीं जाता, जैसे वल्ध्या स्त्री का पुत्र। उसी तरह यह शब्द कृतक होता है, इसी कारण परिणामी होता है। यहां परिणामित्व साध्य से अविरूद्ध व्याप्य कृतकत्व की उपलब्धि है। ‘परिणामी शब्द:’ यह प्रतिज्ञा है ‘कृतकत्वात्’ यह हेतु है। ‘यथाघट:’ यह अन्वय दृष्टांत है ‘‘यथा वन्ध्यास्तनंधय:’यह व्यतिरेक दृष्टाँत है, ‘कृतकश्चायं’ यह उपनय है। ‘ तस्मात् परिणामीति’ यह निगमन है। इस प्रकार से यहां पहले बतलाये गये जो अनुमान के पाँच अवयव माने गये हैं वे पांचों अवयव दिखलाये गए है। यहां पर ‘कृतकत्वात् ’ यह हेतु शब्द को परिणामी सिद्ध करता है, वह हेतु परिणामीपने से व्याप्त है अत: यह हेतु ‘अविरुद्धव्याप्योपलब्धि’’ नाम से कहा जाता है। ऐसे ही सभी हेतुओं का लक्षण अन्यत्र ग्रन्थों से समझना चाहिए। अन्य हेतु भी इन्हीं बाईस हेतुयों में शामिल हैं।
गुरू परम्परा से और भी जो हेतु संभव हो सकते हों उनका पूर्वोक्त साधनों में ही अंतर्भाव करना चाहिये।
व्युत्पन्न जनों की अपेक्षा अनुमान के अवयवों के प्रयोग का नियम
व्युत्पन्नप्रयोगस्तु तथोपपत्याऽन्यथानुपपत्त्यैव वा ।।९०।। (प.मु.तृ.प.)
व्युत्पन्न पुरूषों के लिए तथोपपत्ति या अन्यथानुपपत्ति नियम से ही प्रयोग करना चाहिये। साध्य के सद्भाव में साधन का होना ‘तथोपपत्ति’ है एवं साध्य के आस्रव में साधन का न होना ‘अन्यथानुपपत्ति’ कहलाती है।
यह प्रदेश अग्नि वाला है क्योंकि अग्नि के सद्भाव में ही यह धूमवाला ही हो सकता है, यह तथोपपत्ति का उदाहरण है। अथवा अग्नि के आश्रव में यह धूमवाला हो ही नहीं सकता, इसलिए इसमें अवश्य अग्नि है, यह ‘अन्यथानुपपत्ति’ का उदाहरण है। इस प्रकार ‘तथोपपत्ति’ या ‘अन्यथानुपपत्ति’ का प्रयोग करना चाहिए। इस दृष्टाँत से यह निश्चय किया गया है कि विद्वानों के लिए उदाहरण वगैरह के प्रयोग की आवश्यकता नहीं है। यहां तक अनुमान के अंगभूत साध्य और हेतुओं का वर्णन किया है।
अर्थों में वाच्यरूप और शब्दों में वाचक रूप एक स्वाभाविक योग्यता होती है, जिसमें संकेत हो जाने से ही शब्दादिक पदार्थों के ज्ञान में हेतु हो जाते हैं।
यथा मेर्वादय: सन्ति ।।९७।। (प.मु.तृ.प.)
जैसे सुमेरु पर्वत आदिक हैं, अर्थात् जैसे मेरु शब्द के सुनने मात्र से ही जंबूद्वीप के मध्यस्थित सुमेरु का ज्ञान हो जाता है। उसी प्रकार सर्वत्र शब्द से अर्थ का ज्ञान हो जाता है। इस प्रकार से यहाँ तक परीक्षा मुख सूत्र के आधार से प्रमाण का लक्षण उसके दो भेद, प्रत्यक्ष के दो भेद एवं परोक्ष के स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम ऐसे पांच भेदों का लक्षण किया गया है। न्यायदीपिका ग्रन्थ में कुछ विशेषता है उसे बताते हैं।
प्रमाण के दो भी भेद हैं— प्रत्यक्ष और परोक्ष। उनमें विशद—स्पष्ट प्रतिभास को प्रत्यक्ष कहते हैं। उस प्रत्यक्ष के भी दो भेद हैं—सांव्यवहारिक और पारमार्थिक। एक देश स्पष्ट ज्ञान को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते हैं। उनके चार भेद हैं— अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा। यह ज्ञान पांच इंद्रिय और मन की सहायता से उत्पन्न होता है अत: चार को छह से गुणा करने से 4×6=24 भेद हुये हैं इस ज्ञान के विषयभूत पदार्थ बहु, बहुविध आदि के भेद से बारह प्रकार के हैं अत: इन २४ को १२ से गुणा करने पर 24 x 12 = 288 भेद हुये। अवग्रह के दो भेद होते हैं व्यञ्जनावग्रह, अर्थावग्रह। व्यंजनावग्रह में केवल अवग्रह ही होता है ईहा आदि भेद नहीं होते हैं एवं यह चक्षु और मन से नहीं होता है अत: एक व्यञ्जनावग्रह को ४ इंद्रिय से गुणा करके १२ भेदों से गुणित कीजिये 1 x 4 = 4 , 4 x 12 = 48, पुन: उपर्युक्त २८८ में इस संख्या को मिला देने से इस सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के ३३६ भेद होते हैं । यथा २८८ + 48 = 336″ इस सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष को अमुख्य प्रत्यक्ष भी कहते हैं क्योंकि यह उपचार से सिद्ध है। इसी का नाम मतिज्ञान है वास्तव में यह ज्ञान परोक्ष है जैसा कि तत्त्वार्थ सूत्र ग्रन्थ में श्री उमास्वामि आचार्य ने स्पष्ट किया है ‘‘आद्ये परोक्षं’’ ।।११।। आदि के मतिज्ञान और श्रुतज्ञान हैं क्योंकि ये इंद्रिय मन आदि की अपेक्षा रखते हैं अत: परोक्ष हैं । यहां न्याय ग्रन्थों में मतिज्ञान को प्रत्यक्ष कहने का मतलब यह है कि यह ज्ञान इंद्रिय और मन इन दो निमित्तक होते हुये भी लोक के संव्यवहार में ‘प्रत्यक्ष’ इस प्रकार प्रसिद्ध होने से सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहलाता है। वास्तव में, यह मतिज्ञान परोक्ष ही है। श्रुतज्ञान को तो परोक्ष प्रमाण में ‘आगम’ नाम से कहा ही है।
पूर्णतया विशदज्ञान को पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहते हैं। इसी का नाम मुख्य प्रत्यक्ष है । इसके दो भेद हैं— विकल प्रत्यक्ष और सकल प्रत्यक्ष । उसमें कतिपय विषय को ग्रहण करने वाला विकल प्रत्यक्ष है उसके भी दो भेद हैं— अवधिज्ञान और मन:पर्यय ज्ञान।
सर्वद्रव्यपर्यायविषयं सकलं (न्या. पृ.३७)
संपूर्णद्रव्य और उनकी संपूर्ण पर्यायों को विषय करने वाला सफल प्रत्यक्ष है। यह घातिकर्म के नाश से प्रगट हुआ केवल ज्ञान है। इस प्रकार से अवधिज्ञान मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान ये तीनों ही पूर्णतया विशद होने से पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहलाते हैं। इन ज्ञानों की पूर्णत्या विशदता आत्ममात्र की अपेक्षा रखने वाली है। अर्थात् ये तीनों ज्ञान आत्ममात्र की अपेक्षा से उत्पन्न होते हैं अत: मुख्य प्रत्यक्ष कहलाते हैं।
नन्वस्तु केवलस्य पारमार्थिकत्वं, अवधि मन: पर्ययोस्तु न युत्तंकं, विकलत्वात् ,
इति चेत् न साकल्यवैकल्ययोरत्र विषयोपाधिकत्वात् ।
तथा हि सर्वद्रव्यपर्यायविषयमिति केवलं सकलं।
अवधिमन: पर्ययौ तु कतिपयविषयत्वाद्विकलौ ।
नैताधता तयो: पारमार्थिकत्वच्युति: ।
केवलवत्तयोरपि वैशद्यं स्वविषये साकल्येन
समस्तीति तावपि पारमार्थिकाणेव। (न्या.पृ.३७)
शंका—केवलज्ञान को पारमार्थिक कहना ठीक है, किन्तु अवधिज्ञान और मन: पर्ययज्ञान को पारमार्थिक कहना ठीक नहीं है क्योंकि ये दोनों विकल प्रत्यक्ष हैं।
समाधान— ऐसा नहीं कहना, क्योंकि सकलपना और विकलपना यहां विषय की अपेक्षा से है, स्वरूप की अपेक्षा से नहीं है । इसका स्पष्टीकरण—चूंकि केवलज्ञान समस्त द्रव्यों और पर्यायों को विषय करने वाला है, इसलिये वह सकल प्रत्यक्ष कहा जाता है। परन्तु अवधिज्ञान मन:पर्ययज्ञान कुछ पदार्थों को विषय करते हैं, इसलिये वे विकल कहे जाते हैं। लेकिन इतने मात्र से ही इनमें पारमार्थिकता की हानि नहीं होती है, क्योंकि पारमार्थिकता का लक्षण सकल पदार्थों को विषय करना नहीं है किन्तु पूर्ण निर्मलता है वह पूर्ण निर्मलता केवलज्ञान की तरह अवधि मन:पर्यय में भी अपने विषय में विद्यमान है, इसलिये ये दोनों भी पारमार्थिक ही हैं एवं ये दोनों भी केवल ज्ञान की तरह आत्ममात्र की अपेक्षा रखकर ही उत्पन्न होते हैं अत: ये तीनों ज्ञान मुख्य प्रत्यक्ष कहलाते हैं।
शंका — अक्ष नाम चक्षु आदि इंन्द्रियों का है उन इंद्रियों की सहायता लेकर जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह प्रत्यक्ष है अत: मति श्रुतज्ञान को ही प्रत्यक्ष कहना चाहिये अवधि आदि तीनों को नहीं?
समाधान — यह शंका ठीक नहीं है। आत्ममात्र की अपेक्षा एवं इन्द्रियों से निरपेक्ष ज्ञान ही प्रत्यक्ष हैं क्योंकि प्रत्यक्षता में कारण स्पष्टता—ाqनर्मलता ही है, इंद्रिय जन्यता नहीं है। दूसरी बात यह है कि हम यहां अक्ष का अर्थ इंद्रिय न करके आत्मा करते हैं देखिये ! ‘‘अक्षणोति व्याप्नोति जानातीति अक्ष आत्मा’’अर्थात् जो व्याप्त करे—जाने, उसे अक्ष कहते हैं और वह अक्ष—आत्मा ही है। इसलिये आत्ममात्र की अपेक्षा से उत्पन्न होने वाले ज्ञानों को प्रत्यक्ष कहते हैं। अतएव मतिज्ञान इंद्रिय की अपेक्षा रखने से परोक्ष ही है।
कथंचित् — ऊपचार से उसे न्याय भाषा में सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा गया है, यह बात स्पष्ट है। इसी प्रकार से परोक्ष प्रमाण का लक्षण और उसके भेद भी परीक्षामुख के अनुसार ही किये गये हैं। इसमें भी हेतु के लक्षण को यहां दिखाते है
जिसकी साध्य के साथ अन्यथानुपपत्ति (अविना भाव) निश्चित है उसे हेतु कहते हैं। तात्पर्य यह है कि जिस की साध्य के आस्रव में नहीं होने रूप व्याप्ति, अविनाभाव आदि नामों वाली साध्यानुपपत्ति— साध्य के होने पर ही होना और साध्य के अभाव में नहीं होना, इस रूप से तर्क प्रमाण के द्वारा निर्णीत है, वह हेतु है। श्री कुमारनंदि भट्टारक ने भी कहा है— ‘‘अन्यथानुपपत्ति मात्र’’ जिसका लक्षण है उसे लिंग—हेतु कहा गया है।
साध्य का लक्षण
शक्यमभिप्रेतमप्रसिद्ध साध्यं (न्या.पृ.६९)
जो शक्य अभिप्रेत और अप्रसिद्ध है उसे साध्य कहते है। यहां ‘शक्य’ शब्द से प्रत्यक्षादि प्रमाणों से अबाधित को लेना, ‘अभिप्रसिद्ध’ से असिद्ध को लेना चाहिये। शब्दों में किंचित् अंतर होते हुये भी ये सभी लक्षण पूर्वोक्त सूत्रों के अनुसार ही है।
उपसंहार— यहां तक जैन सिद्धांत के अनुसार प्रमाण का लक्षण, प्रमाण के दो भेद, उनके भेद —प्रभेद बतलाये गये हैं। प्रमाण के दो भेदों में प्रत्यक्ष और परोक्ष है एवं प्रत्यक्ष के भी दो भेद हैं। सांव्यवहारिक एवं पारमार्थिक ।
सांव्यवहारिक—मतिज्ञान के अवग्रह ईहा अवाय धारणा से चार भेद हैं पुन: इंद्रिय, मन एवं बहु आदि विषयों से गुणा करने से ३३६ भेद हो जाते हैं। पारमार्थिक प्रत्यक्ष के दो भेद हैं—विकल, सकल।विकल, प्रत्यक्ष के भी दो भेद हैं अवधि, मन:पर्यय । सकल प्रत्यक्ष से एक केवल ज्ञान ही लिया जाता है। परोक्ष प्रमाण के पांच भेद हैं स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम । प्रत्यभिज्ञान के एकत्व, सादृश्य, वैलक्षण्य और प्रातियोगिक के भेद से चार भेद हैं। एवं अनुमान के मुख्य दो अवयव हैं प्रतिज्ञा और हेतु । हेतु के भी उपलब्धि के भेद से दो भेद हैं। उपलब्धि के अविरुद्धोपलब्धि, विरुद्धोपलब्धि एवं अनुपलब्धि के अविरूद्धानुपलब्धि, विरूद्धानुपलब्धि ऐसे भेद होते हैं। अविरूद्धोपलब्धि के ६ भेद, विरूद्धपलब्धिके ६ भेद, अविरूद्धानुपलब्धि के ७ भेद एवं विरुद्धानुपलब्धि के ३ भेद ऐसे हेतु के २२ भेद माने गये हैं। इस प्रकार से सम्यग्ज्ञान को प्रमाण कहकर उसके पांच भेदों में से मतिज्ञान को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष, श्रुतज्ञान को ‘आगम’ शब्द से परोक्ष अवधि, मन: पर्यय एवं केवलज्ञान को पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहा है। यहां तक प्रमाण का विवेचन जैन सिद्धांतानुसार हुआ है। ‘प्रमाणनयैरधिगम’ इस सूत्र में नयों के द्वारा भी पदार्थों का ज्ञान होता है अत: संक्षेप से यहाँ नय लक्षण और उसके भेद बताते हैं।
प्रमाण से जाने हुये पदार्थ के एक देश को ग्रहण करने वाले ज्ञाता के अभिप्राय विशेष को नय कहते हैं। उस नय के द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ऐसे दो भेद हैं। अन्यत्र नयों के सात भेद भी माने गये हैं यथा— नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द,समभिरूढ़ और एवंभूत। इन नयों का विस्तृत विवेचन अन्य ‘नयचक’ आदि ग्रन्थों से समझना चाहिये। यहां इतना ही पर्याप्त है कि ये सभी नय वस्तु के एक—एक अंश को कहने वाले हैं एवं परस्परमें सापेक्ष हैं, यदि ये नय परस्पर में निरपेक्ष हो जाते हैं तो मिथ्या हो जाते हैं । जैसे— द्रव्यार्थिक नय का विषय परम द्रव्य सत्ता—महा सामान्य है उसकी अपेक्षा से सभी चेतन—अचेतन वस्तुये सत् रूप होने से एक रूप हैं इसी नय को लेकर ब्रह्म वादियों ने ‘‘एक अद्वितीय परम ब्रह्म तत्व’’ मान लिया है। किन्तु ऐसी एकांत मान्यता गलत है चेतन—अचेतन कथंचित अवांतर सत्ता से भिन्न—भिन्न हैं। वैसे ही ऋजुमूत्र परमपर्यायार्थिक नय है, वह भूत, भविष्यत् के स्पर्श से रहित शुद्ध केवल वर्तमान कालीन अर्थपर्याय रूप वस्तु को विषय करता है । उसका एकांत लेकर बौद्धों ने प्रत्येक वस्तु को सर्वथा एक क्षणवर्ती नश्वर ही सिद्ध कर दिया है अत: उसकी भी एकांत मान्यता सर्वथा गलत है। इसलिये नयों की परस्पर सापेक्षता ही सम्यक् है। जो नय परस्पर निरपेक्ष एकांत की ग्रहण कर लेते हैं । इसलिये नयों की परस्पर सापेक्षता ही सम्यक् है। जो नय परस्पर निरपेक्ष एकांत को ग्रहण कर लेते हैं वे दुर्नय अथवा नयाभास कहलाते हैं।
प्रमाण की सच्चाई का निर्माण कैसे होता है ?
तत्प्रामण्यं स्वत: परतश्च ।।१३।। (परीक्षा मु. प्र.प.)
उस प्रमाण की प्रमाणता का निर्णय दो प्रकार से होता है । अभ्यास दशा में अन्य पदार्थ की सहायता बिना अपने आप, और अनभ्यास दशा में अन्य कारणों की सहायता से। जैसे— जहां निरंतर जाया आया करते हैं, वहां के नदी और तालाब आदि स्थानों के परिचय को अभ्यास दशा कहते है । इस स्थान में ज्ञान की सच्चाई का निर्णय स्वत: हो जाता है। और जहां कभी गये आये नहीं , वहाँ के नदीं, तालाब आदि स्थानों के अपरिचय को अनभ्यास दशा कहते हैं,ऐस स्थानों में दूसरे कारणों से ही प्रमाणता का निर्णय होता है । तात्पर्य यह है कि प्रमाणता की उत्पत्ति तो सर्वत्र पर से ही होती है, किंतु प्रमाणता का निश्चय परिचित विषय में स्वत: और अपरिचित विषय में पर से होता है।
सामान्यविशेषात्मा तदर्थो विषय: ।।१।। (प.मु.च.प.)
सामान्य और विशेष स्वरूप, अर्थात् द्रव्य और पर्याय स्वरूप वस्तु प्रमाण का विषय होती है। द्रव्य के बिना पर्याय एवं पर्याय के बिना द्रव्य किसी भी ज्ञान का विषय नहीं होता है किंतु द्रव्य और पर्याय इन उभय रूप पदार्थ ही ज्ञान का विषय होता है । एक—एक को प्रमाण का विषय मानने में अनेकों दोष आ जाते हैं। वस्तु अनेकान्तात्मक ही है
अन्वय—यह वही है ऐसे ज्ञान को अनुवृत्त प्रत्यय कहते हैं तथा व्यावृत्त— यह वह नहीं है ऐसे ज्ञान को व्यावृत्त प्रत्यय कहते हैं । पदार्थों के कार्य को अर्थ क्रिया कहते हैं जैसे घट की अर्थ क्रिया जला हरण करना है। अर्थ के पूर्व आकार का विनाश और उत्तर आकार का प्रादुर्भाव इन दोनों सहित स्थिति को परिणाम कहते हैं। एक ही वस्तु अन्वय ज्ञान और व्यावृत्त ज्ञान का विषय होती है इसलिये वसतु अनेकांतात्मक है तथा एक ही वस्तु में पूर्व आकार का त्याग और उत्तर आकार की प्राप्ति, इन दोनों से सहित स्थित रूप लक्षण वाले परिणाम से ही अर्थ क्रिया होती है अत: वस्तु अनेकांतात्मक ही है। अनुवृत्त ज्ञान का विषय सामान्य है और व्यावृत्त ज्ञान का विषय विशेष है, अत: सामान्य विशेषात्मक पदार्थ ही प्रमाण का विषय होता है।
सामान्य के दो भेद हैं —तर्यंक् सामान्य और उर्ध्वतासामान्य।
तिर्यंक् सामान्य का लक्षण और दृष्टांत परापरवियर्तव्यापिद्रव्यमूध्र्वता मृदिव स्थासादिषु ।।५।।(प.मु.च.प.)
पूर्व और उत्तर पर्याय में रहने वाले द्रव्य को ऊध्र्वता सामान्य कहते हैं। जैसे स्थास कोश कुशूल आदि पर्यायों में मिट्टी रहती है, यहां यह मिट्टी द्रव्य उर्ध्वता सामान्य कही जाती है।
विशेषश्च ।।६।। पर्याय व्यतिरेकभेदात् ।।७।। (प.मु.च.प.)
एक ही द्रव्य में क्रम से होने वाले परिणामों को पर्याय कहते हैं, जैसे आत्मा में हर्ष विषाद आदि।
व्यतिरेक का लक्षण और उदाहरण
एक पदार्थ की अपेक्षा दूसरे पदार्थ में रहने वाले विसदृश परिणाम को व्यतिरेक कहते हैं, जैसे गो से महिष में एक भिन्न ही परिणमन है।
भावार्थ — इन तिर्यक्— ऊध्र्वता सामान्य और पर्याय—व्यतिरेक रूप विशेष से सहित—उभयात्मक वस्तु को ही ज्ञान जानता है अत: ज्ञान सामान्य विशेषात्मक वस्तु को ही विषय करता है यह बात स्पष्ट हुई ।
प्रमाण का साक्षात् फल अज्ञान का अभाव है। तथा परंपरा फल त्याग , ग्रहण और उदासीनता है। प्रमाण के द्वारा पहले अज्ञान का अभाव होता है, पश्चात् त्यागने योग्य वस्तु का त्याग और ग्रहण करने योग्य का ग्रहण एवं इन दोनों से रहित वस्तु में उपेक्षा भाव होता है।
प्रमाणा से प्रमाणा का फल भिन्न है या अभिन्न ?
प्रमाणादभिन्नं भिन्नं च ।।२।। (प.मु.पं.प.)
वह फल प्रमाण से कथंचित् अभिन्न होता है कथंचित् भिन्न होता है।
जो जानता है उसी का अज्ञान दूर होता है, वही किसी वस्तु को छोड़ता या ग्रहण करता है, या मध्यस्थ हो जाता है । इसलिये एक जानने वाले व्यक्ति की अपेक्षा से प्रमाण और प्रमाण का फल दोनों अभिन्न हैं। तथा प्रमाण और उसके फल की भेद प्रतीति होती है, इसलिये दोनों भिन्न हैं। उपसंहार — यहां तक प्रमाण का लक्षण, उसके भेद—प्रभेद प्रमाण का विषय और प्रमाण का फल ऐसी चार बातों का स्पष्टतया वर्णन किया गया है। अब आगे अन्यमतावलम्बियों द्वारा मान्य प्रमाण का लक्षण उनके भेद—प्रभेद, विषय और फल में इोष दिखाकर निर्दोष स्याद्वाद सिद्धांत पुष्ट करते हैं।