प्रमाण का वर्णन ‘सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम्’ सच्चे ज्ञान को प्रमाण कहते हैं, अथवा जो वस्तु के सर्वदेश को जानता है, उस ज्ञान को प्रमाण कहते हैं। ज्ञान के ५ भेद हैं-मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञान। इनमें से मति-श्रुत ज्ञान परोक्ष प्रमाण हैं और बाकी के तीन प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। इनमें भी अवधि, मन:पर्यय विकल प्रत्यक्ष हैं तथा केवलज्ञानसकल प्रत्यक्ष है।
१.इन्द्रिय और मन की सहायता से जो पदार्थों का ज्ञान होता है, उसे मतिज्ञान कहते हैं। इसके ४ भेद हैं-अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा। वस्तु के सत्ता मात्र ग्रहण को दर्शन कहते हैं।
अवग्रह – दर्शन के बाद हुए शुक्ल, कृष्ण आदि विशेष ज्ञान को अवग्रह कहते हैं। जैसे-नेत्र से सफेद वस्तु को जानना।
ईहा –अवग्रह से ज्ञात पदार्थ में विशेष जानने की इच्छा ईहा है। जैसे-यह सफेद रूप वाली वस्तु बगुला है या पताका?
अवाय –विशेष चिन्हों द्वारा निर्णय हो जाने को अवाय कहते हैं। जैसे-पंख फड़फड़ाना आदि से बगुले का निश्चय होना।
धारणा – ज्ञात विषय को कालांतर में नहीं भूलने को धारणा कहते हैं। इस मतिज्ञान के इन चार भेदों के विषय की अपेक्षा ३३६ भेद हो जाते हैं।
२.मतिज्ञान से जाने हुए पदार्थ का जो विशेषरूप से ज्ञान होता है उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। यह मतिज्ञानपूर्वक होता है। इसके मूल में दो भेद हैं-अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट। अंगबाह्य के सामायिक, वंदना आदि अनेक भेद हैं और अंगप्रविष्ट के बारह भेद हैं-आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञातृधर्मकथांग, उपासकाध्ययनांग, अंत:कृद्दशांग, अनुत्तरौपपादिकदशांग, प्रश्नव्याकरणांग, विपाकसूत्रांग और दृष्टिवादांग ये द्वादशांग कहलाते हैं।
३.मर्यादा लिए हुए रूपी पदार्थ का इंद्रियादि की सहायता बिना जो ज्ञान होता है, उसे अवधिज्ञान कहते हैं। इसके २ भेद हैं-भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय। भव ही जिसमें निमित्त हो, वह भवप्रत्यय है। यह देव और नारकी को होता है। जो व्रत-नियम आदि से, कर्म के क्षयोपशम से होता है, वह गुणप्रत्यय है। यह मनुष्य और तिर्यंचों के होता है।
४. काल आदि की मर्यादा लिए हुए परकीय मनोगतरूपी पदार्थ का जो ज्ञान होता है, उसे मन:पर्ययज्ञान कहते हैं। इसके दो भेद हैं-ऋजुमति और विपुलमती।
५.सब द्रव्यों को तथा उसकी सर्वपर्यायों को एक साथ स्पष्ट जानने वाले ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं। यह ज्ञान लोकालोक प्रकाशी है। प्रारंभ के तीन ज्ञान मिथ्या भी होते हैं। मिथ्यात्व के उदय से मिथ्यादृष्टि जीवों के कुमति, कुश्रुत और कुअवधि (विभंगावधि) कहलाते हैं। विशेषार्थ-न्यायग्रंथों में भी प्रमाण के प्रत्यक्ष और परोक्ष ऐसे दो भेद किए हैं। किन्तु वहाँ पर प्रत्यक्ष के सांव्यवहारिक और पारमार्थिक दो भेद किए हैं तथा सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष से मतिज्ञान को लिया है। आगे पारमार्थिक प्रत्यक्ष के विकल–सकल दो भेद करके विकल में अवधि, मन:पर्यय को और सकल में केवलज्ञान को लिया है। परोक्ष प्रमाण के स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम ऐसे पाँच भेद किये हैं। उसमें से आगम प्रमाण में श्रुतज्ञान को लिया है।
नयों का वर्णन
वस्तु के एकदेश जानने वाले ज्ञान को नय कहते हैं। उसके मूल में दो भेद हैं-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। जो नय द्रव्य को जानता है वह द्रव्यार्थिक है, जो पर्याय को जानता है वह पर्यायार्थिक है। नय के सात भेद हैं -नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़, और एवंभूत। अध्यात्म भाषा से भी नय के २ भेद हैं-निश्चय्नाय और व्यवहारनय। वस्तु के स्वभाव को कहने वाला निश्चयनय है। कर्म के निमित्त होने वाले औपाधिक भाव को ग्रहण करने वाला व्यवहारनय है। जैसे-निश्चयनय की अपेक्षा से संसारी जीव भी चैतन्यमय प्राणों वाला है, सकल विमल केवलज्ञान केवलदर्शन रूप है, अमूर्तिक है, अपने ही शुद्ध भावों का कर्ता है, आकार रहित, असंख्यात लोक प्रमाण प्रदेश वाला है, अपना अनंतज्ञान सुख आदि गुणों का भोक्ता है, शुद्ध है, सिद्ध है और स्वभाव से ऊध्र्वगमन करने वाला है। व्यवहारनय की अपेक्षा से जीव दस प्राणों से जीवित रहने वाला है। मतिज्ञानावरण आदि कर्म क्षयोपशम के अनुसार मति, श्रुत आदि क्षयोपशम ज्ञानसहित है, कर्मबंध से सहित होने से मूर्तिक है, ज्ञानावरण आदि पुद्गल द्रव्य कर्मों का कर्ता है, नामकर्म के उदय से प्राप्त हुए छोटे या बड़े शरीर में ही रहने वाला है क्योंकि आत्मा के प्रदेशों का संकोच या विस्तार हो जाता है। कर्म के उदय से प्राप्त सुख-दु:ख का भोक्ता है, गुणस्थान, मार्गणा आदि को प्राप्त होने से अशुद्ध है। संसार में परिभ्रमण करने से संसारी है। एक पर्याय को छोड़ने के बाद भी कार्मण शरीर से सहित होने से यत्र-तत्र दिशाओं में गमन करने वाला है। इनमें जब निश्चयनय की विवक्षा (कहने की इच्छा) होती है, तब वह प्रधान हो जाता है और व्यवहारनय की अविवक्षा (कहने की इच्छा न होने) से वह गौण-अप्रधान हो जाता है। ऐसे ही जब व्यवहारनय की विवक्षा है, तब वह प्रधान है और निश्चयनय की अविवक्षा होने से वह गौण हो जाता है। ये दोनों मुख्य और गौण रूप से परस्पर सापेक्ष हैं, निरपेक्ष नहीं होते हैं। एक नय का हठ करने से मिथ्यादृष्टि हो जाते हैं और दोनों नयों से वस्तु को समझने वाले सम्यग्दृष्टि होते हैं।