प्रमाणनयैरधिगम:।।१प्रमाण और नयों के द्वारा जीवादि पदार्थों का बोध होता है। सम्यग्ज्ञान को प्रमाण कहते हैं। न्याय ग्रंथों में २‘अपने और अपूर्व अर्थ को निश्चय कराने वाला ज्ञान प्रमाण माना है।’ प्रमाण के दो भेद हैं-परोक्ष और प्रत्यक्ष।
परोक्षप्रमाण
इन्द्रिय और मन के निमित्त से होने वाला ज्ञान परोक्ष है। उसके दो भेद हैं-मतिज्ञान और श्रुतज्ञान। मतिज्ञान के चार भेद हैं-अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा। अवग्रह-इन्द्रिय और पदार्थ का संबंध होते ही जो सामान्य ग्रहण होता है उसे दर्शन कहते हैं। दर्शन के अनन्तर जो पदार्थ का प्रथम ग्रहण होता है वह अवग्रह है। जैसे चक्षु इन्द्रिय के द्वारा ‘यह शुक्लरूप है’ ऐसा जानना। ईहा-अवग्रह के द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थ में उसके विशेष जानने की इच्छा ईहा है। जैसे जो शुक्लरूप देखा था ‘वह बगुला’ है या ध्वजा’। अवाय-विशेष के निर्णय द्वारा जो यथार्थ ज्ञान होता है उसे अवाय कहते हैं। जैसे पंख आदि फड़फड़ाने से जान लेना ‘यह बगुला ही है।’ धारणा-जानी हुई वस्तु को कालान्तर में न भूलना धारणा है। इस धारणा से ही कालान्तर में स्मृति आदि होती है। इन अवग्रह आदि ज्ञानों के विषय बारह प्रकार के हैं। बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनि:सृत, अनुक्त, धु्रव, अल्प, अल्पविध, अक्षिप्र, नि:सृत, उक्त और अधु्रव। बहुत वस्तुओं के ग्रहण को बहुज्ञान कहते हैं। जैसे सेना या वन को एक समूह रूप में ग्रहण करना ‘बहु’ ज्ञान है। हाथी, घोड़े या आम आदि अनेक भेदों को जानना बहुविध ज्ञान है। वस्तु के एकदेश को देखकर सम्पूर्ण को जानना अनि:सृत है। जैसे तालाब में डूबे हाथी की सूंड को देखकर हाथी को जान लेना। शीघ्रता से जाती हुई वस्तु को जान लेना क्षिप्रज्ञान है। जैसे तेजी से चलती हुई रेलगाड़ी को जानना। बिना कहे भी अभिप्राय को जान लेना अनुक्त है। बहुत काल तक जैसे का तैसा ज्ञान रहना ध्रुव है। ऐसे ही अल्प-अल्पविध आदि को समझ लेना। इस प्रकार से अवग्रह के बारह भेद होते हैं। ऐसे ही ईहा, अवाय, धारणा के बारह-बारह भेद होने से सब अड़तालीस भेद हो जाते हैं तथा इनमें से प्रत्येक ज्ञान पांच इन्द्रिय और मन से होता है अत: ४८ को ६ से गुणा करने पर मतिज्ञान के २८८ भेद हो जाते हैं। ये २८८ भेद अर्थावग्रह की अपेक्षा से हैं। अर्थात् अवग्रह के दो भेद हैं-अर्थावग्रह और व्यञ्जनावग्रह। पदार्थ को ऐसा स्पष्ट जानना जिसके बाद ईहा, अवाय और धारणा हो सवेंâ वह अर्थावग्रह है। जो अवग्रह अस्पष्ट हो जिसके बाद ईहा, अवाय, धरणा न हो सवेंâ वह व्यञ्जनावग्रह है। व्यञ्जनावग्रह, चक्षुइन्द्रिय और मन के द्वारा नहीं होता है। शेष चार इन्द्रियों से बारह प्रकार के पदार्थों का होता है अत: व्यञ्जनावग्रह के १२²४·४८ भेद होते हैं। इस तरह अर्थावग्रह की अपेक्षा २८८ और व्यञ्जनावग्रह की अपेक्षा ४८ ऐसे मिलकर २८८±४८·३३६ भेद मतिज्ञान के होते हैं। व्यञ्जनावग्रह यदि बार-बार होता है तो वह अर्थावग्रह हो जाता है फिर उसके ऊपर ईहा, अवाय और धारणा ज्ञान हो जाते हैं। जैसे मिट्टी के कोरे सकोरे पर १-२ बूंद जल तत्काल सूख जाता है। यदि लगातार जल की बूंदे गिरती रहें तो वह सकोरा गीला हो जाता है। यह अर्थावग्रह का दृष्टान्त है। श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है, मतिज्ञान के बिना श्रुतज्ञान नहीं होता। श्रुतज्ञान के दो भेद हैं-अक्षरात्मक, अनक्षरात्मक। इन्हीं दो में विशेष रूप से श्रुतज्ञान के बीस भेद हैं-पर्याय, पर्याय समास, अक्षर, अक्षर समास, पद, पद समास, संघात, संघात समास, प्रतिपत्तिक, प्रतिपत्तिक समास, अनुयोग, अनुयोग समास, प्राभृत-प्राभृत, प्राभृतप्राभृत समास, प्राभृत, प्राभृत समास, वस्तु, वस्तु समास, पूर्व, पूर्व समास। इसमें से पर्याय और पर्याय समाज ये दो ज्ञान अनक्षरात्मक हैं शेष १८ अक्षरात्मक हैं। सूक्ष्म लब्धि-अपर्याप्तक निगोदिया जीव के उत्पन्न होने के प्रथम समय में स्पर्शन इन्द्रिय मतिज्ञानपूर्वक जो श्रुतज्ञान होता है वह ‘पर्याय’ नामक श्रुतज्ञान है, उससे कम श्रुतज्ञान किसी जीव को नहीं होता अत: यह ‘पर्याय’ श्रुतज्ञान नित्य-उद्घाटित (सदा निरावरण) है। यदि इस स्थान पर भी कर्म का आवरण होता तो वह निगोदिया जीव ज्ञानशून्य-जड़ हो जाता। इस जघन्य श्रुतज्ञान के ऊपर अनन्त भागवृद्धि, असंख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागवृद्धि, संख्यात गुणवृद्धि, असंख्यात गुणवृद्धि, अनन्त गुणवृद्धिरूप छह प्रकार की वृद्धियाँ असंख्यात बार (असंख्यात लोक प्रमाण) होने पर ‘अक्षर’ श्रुतज्ञान होता है। पर्याय श्रुतज्ञान से अधिक और अक्षर श्रुतज्ञान से कम जो श्रुतज्ञान के बीच के असंख्यात भेद हैं वे सब ‘पर्याय समास’ कहलाते हैं। इस तरह पर्याय और पर्याय समास ये दो श्रुतज्ञान अनक्षरात्मक हैं। शेष ऊपर के सब ज्ञान अक्षरात्मक हैं। पर्यायज्ञान, अक्षर ज्ञान के अनन्तवें भाग प्रमाण है। अक्षर श्रुतज्ञान सम्पूर्ण अक्षरात्मक श्रुतज्ञान का मूल है। अक्षरज्ञान के ऊपर एक-एक अक्षरज्ञान की वृद्धि होते-होते जब संख्यात अक्षर रूप वृद्धि हो जाती है तब ‘पद’ नामक श्रुतज्ञान होता है। अक्षरज्ञान के ऊपर और पदज्ञान से कम बीच के संख्यात भेद ‘अक्षर समास’ नामक श्रुतज्ञान है। पद के तीन अर्थ हैं-अर्थपद, प्रमाणपद और मध्यमपद। ‘पुस्तक पढ़ो’ आदि अनियत अक्षरों के समूह रूप किसी अभिप्राय विशेष को बतलाने वाला ’अर्थपद’ होता है। क्रियारूप ‘तिङन्त’ तथा संज्ञारूप ‘सुबंत’ अक्षर समूह पद भी इसी अर्थपद में गर्भित हैं। विभिन्न छन्दों के ८ नियत अक्षर समूह रूप प्रमाण पद होता है जैसे ‘नम: श्री वर्धमानाय’ तथा १६, ३४, ८३, ०७, ८८८ (सोलह अबर, चौंतीस करोड़, तिरासी लाख, सात हजार आठ सौ अठासी) अक्षरों का एक ‘मध्यम पद’ होता है। श्रुतज्ञान में इसी मध्यमपद को लिया गया है। एक पद के ऊपर एक-एक अक्षर की वृद्धि होते-होते जब संख्यात हजार पदों की वृद्धि हो जाये तब ‘संघात’ नामक श्रुतज्ञान होता है। संघात श्रुतज्ञान से कम और पदज्ञान से अधिक जितने श्रुतज्ञान हैं वे ‘पदसमास’ कहलाते हैं। संघात श्रुतज्ञान चारों गति में किसी एक गति का निरूपण करने वाले अपुनरुक्त मध्यमपदों का समूहरूप होता है। संघात श्रुतज्ञान के ऊपर एक-एक अक्षर की वृद्धि होते-होते जब संख्यात हजार संघात की वृद्धि हो जावे तब चारों गतियों का विस्तार से वर्णन करने वाला ‘प्रतिपत्ति’ नामक ‘श्रुतज्ञान’ होता है। संघात और प्रतिपत्ति ज्ञान के बीच के भेद ‘संघातसमास’ कहलाते हैं। प्रतिपत्ति श्रुतज्ञान के ऊपर अक्षर की वृद्धि होते-होेते जब संख्यात हजार प्रतिपत्ति की वृद्धि हो जाती है तब चौदह मार्गणाओं का विस्तृत विवेचन करने वाला ‘अनुयोग’ नामक श्रुतज्ञान होता है। प्रतिपत्ति और अनुयोग के बीच के जितने भेद हैं वे ‘प्रतिपत्ति समास’ कहलाते हैं। अनुयोग ज्ञान के ऊपर पूर्वोक्त रूप से वृद्धि होते-होते जब संख्यात हजार अनुयोगों की वृद्धि हो जाती है तब ‘प्राभृत-प्राभृतक’ नामक श्रुतज्ञान होता है। अनुयोग और प्राभृत-प्राभृतक ज्ञान के बीच के भेद ‘अनुयोग समास’ कहलाते हैं। इसी प्रकार अक्षर-अक्षर की वृद्धि होते-होते जब चौबीस प्राभृत-प्राभृतक की वृद्धि हो जावे तब ‘प्राभृत’ ज्ञान होता है। दोनों के बीच के भेद ‘प्राभृत-प्राभृतक समास’ हैं। बीस प्राभृतप्रमाण ‘वस्तु’ नामक श्रुतज्ञान होता है। प्राभृत और वस्तु के बीच के भेद ‘प्राभृत समास’ हैं। वस्तु ज्ञान में पूर्वोक्त रूप से वृद्धि होते-होते दस आदि एक सौ पंचानवे वस्तु रूप वृद्धि होती है तब ‘पूर्व’ नामक श्रुतज्ञान होता है, वस्तु और पूर्व के मध्यवर्ती श्रुतज्ञान ‘वस्तुसमास’ कहलाते हैं। पूर्वज्ञान से वृद्धि होते-होते पूर्ण श्रुतज्ञान के मध्यवर्ती भेद ‘पूर्वसमास’ कहलाते हैं। इस तरह अक्षरात्मक श्रुतज्ञान के १८ भेद हैं। इनको भावश्रुत भी कहते हैं। अक्षरात्मक श्रुतज्ञान द्वादश अंग रूप है उसमें समस्त पद एक अरब, बारह करोड़, तिरासी लाख, अट्ठावन हजार, पाँच (१,१२८३५८००५) मध्यम पद हैं। जिसका विशेष स्पष्टीकरण निम्न प्रकार है।
१.आचारांग में १८००० पद हैं, इसमें मुनिचर्या का वर्णन है।
२.सूत्रकृतांग में ३६००० पद हैं, इसमें सूत्ररूप व्यवहार क्रिया, स्वसमय आदि का विवेचन है।
३.स्थानांग में ४२००० पद हैं, इसमें समस्त द्रव्यों के एक से लेकर समस्त संभव विकल्पों का वर्णन है।
४.समवायांग में १६४००० पद हैं, इसमें समस्त द्रव्यों के पारस्परिक सादृश्य का विवरण है।
५.व्याख्याप्रज्ञप्ति में २२८००० पद हैं, इसमें साठ हजार प्रश्नों के उत्तर हैं।
६. ज्ञातृकथा में ५५६००० पद हैं, इसमें गणधर आदि की कथाएं तथा तीर्थंकरों का महत्व आदि बतलाया गया है।
७.उपासकाध्ययन में ११७०००० पद हैं, इसमें श्रावकाचार का वर्णन है।
८.अन्त:कृद्दशांग में २३२८००० पद हैं, इसमें प्रत्येक तीर्थंकर के समय के १०-१० मुनियों के तीव्र उपसर्ग सहन करके मुक्त होने का कथन है।
९.अनुत्तरौपपादिक दशांग में ९२४४००० पद हैं, इसमें प्रत्येक तीर्थंकर के समय में १०-१० मुनियों के घोर उपसर्ग को सहन कर विजय आदि अनुत्तर विमानोें में उत्पन्न होने का कथन है।
१०. प्रश्न व्याकरण में ९३१६००० पद हैं, इसमें नष्ट, मुष्टि, चिन्ता आदि प्रश्नों के अनुसर हानि-लाभ आदि बतलाने का विवरण है।
११.विपाक सूत्र में १८४००००० पद हैं, इसमें कर्मों के फल देने का विशद विवेचन है।
१२.दृष्टिवाद में १०८६८५६००५ पद हैं, इसमें ३६३ मिथ्यामतों का वर्णन तथा उनके निराकरण का वर्णन है।
इसके पाँच भेद हैं-परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका। परिकर्म में गणित के करण सूत्र हैं, इसके पाँच भेद हैं-चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, द्वीपसागर प्रज्ञप्ति और व्याख्या प्रज्ञप्ति। चन्द्र संबंधी समस्त विवरण चन्द्रप्रज्ञप्ति में है, उसके ३६०५००० पद हैं। सूर्यप्रज्ञप्ति में सूर्यविमान संंबंधी समस्त विवरण है, उसमें ५०३००० पद हैं। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में जम्बूद्वीप संबंधी समस्त वर्णन है, इसमें ३२५००० पद हैं। द्वीपसागर प्रज्ञप्ति में अन्य द्वीपों तथा सागरों का विवेचन है, इसमें ५२३६००० पद हैं। व्याख्याप्रज्ञप्ति में भव्य-अभव्य, अनन्तर सिद्ध, परम्परा सिद्ध आदि का कथन है, इसमें ८४३६००० पद हैं। दृष्टिवाद के दूसरे भेद ‘सूत्र’ में ३६३ मिथ्यामतों का पक्ष-प्रतिपक्ष रूप से वर्णन है। इसमें ८८००००० पद हैं। प्रथमानुयोग में ६३ शलाका पुरुषों का वर्णन है। इसमें ५००० पद हैं। पूर्व के १४ भेद हैं, उसमें समस्त ९५५०००००५ पद हैं, जिनका विवरण नीचे लिखे अनुासर है।
चौदह पूर्वों के नाम-१. उत्पाद पूर्व में एक करोड़ पद हैं, इसमें प्रत्येक द्रव्य के उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य का वर्णन है।
२. अग्रायणीय पूर्व में ७०० नय तथ दुर्नय, पंचास्तिकाय आदि का वर्णन है, इसमें ९६ लाख पद हैं।
३. वीर्यप्रवाद में ७० लाख पद हैं, इसमें आत्मवीर्य, परवीर्य, गुणवीर्य आदि का विवेचन है।
४. अस्तिनास्ति प्रवाद में सप्तभंगी का कथन है, इसमें ६० लाख पद हैं।
५.ज्ञानप्रवाद में एक कम एक करोड़ पद हैं, इसमें समस्त ज्ञानों का समस्त विवरण है।
६. सत्यप्रवाद पूर्व में शब्द उच्चारण, दस प्रकार का सत्यवचन, असत्यवचन भाषा आदि का वर्णन है, इसमें एक करोड़ छह पद हैं।
७. आत्मप्रवाद में २६ करोड़ पद हैं, इसमें आत्मा का समस्त विवरण है।
८.कर्मप्रवाद में एक करोड़ अस्सी लाख पद हैं, इसमें कर्मों से संबांqधत समस्त कथन हैं।
९.प्रत्याख्यान पूर्व में द्रव्य, क्षेत्र, काल, संहनन आदि की अपेक्षा त्याग, समिति, गुप्ति आदि का विवेचन है, इसमें चौरासी लाख पद हैं।
१०.विद्यानुवाद पूर्व में एक करोड़ दस लाख पद हैं, इसमें अंगुष्ठसेना आदि ७०० अल्प विद्याओं तथा रोहिणी आदि ५०० महाविद्याओं, मंत्र-तंत्र आदि का विवरण है।
११. कल्याणवाद पूर्व में तीर्थंकरों के पांच कल्याणकों, षोडशभावना आदि का वर्णन है, इसमें छब्बीस करोड़ पद हैं।
१२. प्राणावाय पूर्व में तेरह करोड़ पद हैं, इसमें आठ प्रकार के आयुर्वेद आदि का वर्णन है।
१३. क्रियाविशाल पूर्व में संगीत छन्द आदि पुरुषों की ७२ कला, स्त्रियों के ६४ गुण आदि का वर्णन है, इसमें नव करोड़ पद हैं।
१४.त्रिलोकबिन्दुसार में बारह करोड़ सत्तावन लाख पद हैं, इसमें लोक का, मोक्ष के स्वरूप का, छत्तीस परिकर्म आदि का वर्णन है। चौदह पूर्वों की क्रमश: १०, १४, ८, १८, १२, १६, २०, ३०, १५, १०, १०, १०, १०, १२ वस्तु अधिकार अर्थात् समस्त १९५ वस्तु होती हैं। एक-एक वस्तु के २०-२० प्राभृत होते हैं अत: चौदह पूर्वों के समस्त प्राभृत ३९०० होते हैं। दृष्टिवाद का पाँचवां भेद ‘चूलिका’ है, उसके ५ भेद हैं-जलगता, स्थलगता, मायागता, आकाशगता और रूपगता। जलगता में जल में गमन, जल स्तम्भन के मंत्र-तंत्र आदि का वर्णन है। स्थलगता में मेरु, कुलाचल आदि में प्रवेश करने, शीघ्र गमन आदिक संंबंधी मंत्रतंत्र आदि का वर्णन है। मायागता में इन्द्रजाल संंबंधी मंत्र-तंत्र आदि का कथन है। आकाशगता में आकाश गमन आदि के मंत्र-तंत्र आदि का कथन है। रूपगता में सिंह आदि के अनेक प्रकार के रूप बनाने का वर्णन है। इन पाँचों चूलिकाओं के १०४९४६००० पद हैं। इस प्रकार अंग के बारह भेदों का वर्णन करके अंगबाह्य के १४ भेदों का वर्णन करते हैं। अंगबाह्य के १४ भेद-सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, कल्पाकल्प, महाकल्प, पुण्डरीक, महापुण्डरीक और निषिद्धिका।
१.साधुओं के समताभाव रूप सामायिक का कथन करने वाला ‘सामायिक’ प्रकीर्णक है।
२.चौबीस तीर्थंकरों के स्तवन की विधि विधान बतलाने वाला प्रकीर्णक ‘चतुर्विंशतिस्तव’ है।
३.पंच परमेष्ठी की वंदना करने वाला शास्त्र ‘वंदना’ प्रकीर्णक है।
४. दैवसिक, पाक्षिक, मासिक आदि प्रतिक्रमण का विधान करने वाला ‘प्रतिक्रमण’ प्रकीर्णक है। ५. दर्शन, ज्ञान, चारित्र और उपचारविनय का विस्तार से विवेचन करने वाला ‘वैनयिक’ प्रकीर्णक है।
६.जिनदेव, सिद्ध, आचार्य और उपाध्याय की वंदना करते समय जो क्रिया की जाती है उसे ‘कृतिकर्म’ कहते हैं।
७.द्रव, पुष्पित आदि दस अधिकारों द्वारा मुनि के भोज्य पदार्थों का विवरण जिसमें पाया जाता है वह ‘दशवैकालिक’ है।
८. उपसर्ग तथा परीषह सहन करने आदि का विधान ‘उत्तराध्ययन’ में है।
९.जिसमें दोषों के प्रायश्चित्त आदि का समस्त विवरण है वह ‘कल्पव्यवहार’ है।
१०.जिसमें सागार-अनगार के योग्य-अयोग्य आचार का विवेचन है वह ‘कल्पाकल्प’ प्रकीर्णक है।
११. जिसमें दीक्षा, शिक्षा, गणपोषण, संलेखना आदि कालों का कथन है वह ‘महाकल्प्य’ है।
१२.जिसमें भवनवासी आदि देवों में उत्पन्न होने योग्य तपश्चरण आदि का विवरण है वह ‘पुण्डरीक’ है।
१३.जिसमें भवनवासी आदि देवों में देवियों की उत्पत्ति के योग्य तपश्चरण आदि का कथन है वह ‘महापुण्डरीक’ है।
१४. जिसमें स्थूल-सूक्ष्म दोषों के प्रायश्चित्त आदि का विधान, संहनन, शरीर बल आदि के अनुसार है वह ‘निषिद्धिका’ प्रकीर्णक है। इस प्रकार से अंग और अंगबाह्य का संक्षिप्त वर्णन किया गया है।
प्रत्यक्ष प्रमाण
विशद ज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाण कहते हैं। उसके दो भेद हैं-देशप्रत्यक्ष और सकल प्रत्यक्ष। देश प्रत्यक्ष के अवधिज्ञान और मन:पर्यय ज्ञान ऐसे दो भेद हैं और सकल प्रत्यक्ष में एक केवलज्ञान ही है। अवधिज्ञान-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादा से रूपी पदार्थों को स्पष्ट जानना अवधिज्ञान है। इसके तीन भेद हैं-देशावधि, परमावधि और सर्वावधि। देशावधिज्ञान देवों के और नारकियों के होता है वह भवप्रत्यय है तथा क्षयोपशम के निमित्त से होने वाला अवधिज्ञान मनुष्य और तिर्यञ्चों में पाया जाता है वह गुण प्रत्यय कहलाता है। यह ज्ञान असंयत सम्यग्दृष्टि और देशविरत मनुष्यों में भी हो सकता है। परमावधि और सर्वावधिज्ञान तद्भव मोक्षगामी चरम शरीरी मुनियों को ही होते हैं। मन:पर्यय ज्ञान-मन:पर्यय ज्ञानावरण और वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाला ज्ञान मन:पर्यय ज्ञान है। यह ज्ञान मानुषोत्तर पर्वत के अन्तर्गत पर के मन में स्थित पदार्थों को स्पष्ट जान लेता है। इसके दो भेद हैं-ऋजुमति और विपुलमति। ऋजु अर्थात् सरल मन, वचन, काय के अर्थ को जानने वाला ऋजुमति है और कुटिल मन, वचन, कायगत अर्थ को जानने वाला विपुलमति है। ऋजुमति ज्ञान होकर छूट भी सकता है किन्तु विपुलमति ज्ञान छूटता नहीं है। यह चरम शरीरी को ही होता है। वैसे तो मन:पर्यय ज्ञान वृद्धिंगत चारित्रधारी, किसी-एक ऋद्धि वाले, संयमी मुनि को ही होता है। सभी को नहीं हो सकता है। केवलज्ञान-जगत्त्रय, कालत्रयवर्ती, समस्त पदार्थों को युगपत् जानने वाला केवलज्ञान है। इस केवलज्ञान रूपी दर्पण में सम्पूर्ण लोकाकाश और अलोकाकाश एक साथ झलकता है। प्रकारान्तर से प्रमाण के भेद-प्रभेद न्यायशास्त्र में प्रमाण के भेदों में कुछ अन्तर है-सो दिखाते हैं। प्रमाण के दो भेद हैं-प्रत्यक्ष और परोक्ष। प्रत्यक्ष के दो भेद हैं-सांव्यावहारिक और पारमार्थिक। इन्द्रिय और मन की सहायता से उत्पन्न होने वाला मतिज्ञान सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष है क्योंकि लोक में देखा जाता है कि ‘मैंने चक्षु से स्पष्ट देखा, कर्ण से स्पष्ट सुना’ इत्यादि में प्रत्यक्षता का व्यवहार पाया जाता है अत: इस इन्द्रिय प्रत्यक्ष को सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष कह देते हैं। वास्तव में सैद्धान्तिक भाषा में यह ज्ञान परोक्ष ही है। क्योंकि इन्द्रिय व मन की अपेक्षा रखता है अत: पराधीन होने से परोक्ष है। इस मतिज्ञान के पूर्वोक्त प्रकार से ३३६ भेद हो जाते हैं। पारमार्थिक प्रत्यक्ष के विकल-सकल की अपेक्षा दो भेद हैं। अवधि, मन:पर्यय विकल प्रत्यक्ष हैं और केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है। परोक्ष प्रमाण के पांच भेद हैं-स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्वâ, अनुमान और आगम। स्मृति-तत्-‘वह’ इस आकार वाले ज्ञान को स्मृति कहते हैं। जैसे वह देवदत्त। प्रत्यभिज्ञान-वर्तमान का प्रत्यक्ष और पूर्व का स्मरण इन दोनों के जोड़ रूप ज्ञान को प्रत्यभिज्ञान कहते हैं। जैसे-‘यह वही है’ इत्यादि ज्ञान। इसके एकत्व, सदृश, विलक्षण और प्रतियोगी ऐसे चार भेद हैं। तर्वâ-व्याप्ति के ज्ञान को तर्वâ कहते हैं। यह साधन इस साध्य के होने पर ही होता है और साध्य के नहीं होने पर नहीं होता है, यही व्याप्ति है। जैसे-अग्नि के होने पर ही धूम होता है और अग्नि के नहीं होने पर नहीं होता है। अनुमान-साधन से होने वाले साध्य के ज्ञान को अनुमान कहते हैं और जिसका साध्य के साथ अविनाभाव निश्चित है उसे साधन कहते हैं तथा इष्ट, अबाधित और असिद्ध इन तीन विशेषणों से सहित वस्तु को साध्य कहते हैं। धर्म और धर्मी के समुदाय का कथन करना ‘पक्ष’ कहलाता है। जैनाचार्यों ने अनुमान१ के मुख्य रूप से दो ही अवयव माने हैं-पक्ष और हेतु। कदाचित् बाल शिष्यों को समझाने के लिए पांच अवयव भी माने हैं-प्रतिज्ञा (पक्ष), हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन। आगम-आप्त वचन से होने वाले अर्थ ज्ञान को आगम कहते हैं। जैसे-मेरु पर्वत आदि हैं। सिद्धान्त ग्रंथ में श्रुतज्ञान को परोक्ष प्रमाण माना है सो न्याय ग्रंथ में भी उसी को आगम प्रमाण नाम से परोक्ष में लिया है। इस प्रकार से सिद्धान्त और न्याय के अनुसार प्रमाण का दिङ्मात्र वर्णन किया है।