जैन धर्म के प्रमुख सिद्धांतों को हम संक्षेपतः इस प्रकार समझ सकते हैं-
अहिंसा- जानबूझ कर किसी भी प्राणी को दुख नहीं पहुँचाना। पशु- पक्षियों, पेड़-पौधों, अग्नि-वायु की भी दया पालना। अहिंसा के साथ सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रह परिमाण व्रत का पालन करना।
ग्लोबल वार्मिंग, मृदावरण, जलावरण व वातावरण की सुरक्षा हेतु यह सिद्धांत बहुत उपयोगी है। ‘जियो और जीने दो’ और ‘अहिंसा परमो धर्म:’ में सारे विश्व का हित निहित है।
अपरिग्रह- देश दुनिया में वस्तुतः गरीबी नहीं गैर-बराबरी है। यदि कुछ लोग अतिसंग्रह करना छोड़ दें तो बहुत लोगों को लाभ हो। जरूरत से ज्यादा संग्रह नहीं करना, देश व समाज हित में धन संपत्ति का वितरण कर ‘परस्परोपग्रहो जीवानाम्’ की शिक्षा यह सिद्धांत देता है।
अनेकांतवाद – किसी भी वस्तु या व्यक्ति में अनेक गुण धर्म होते हैं। इसलिए हम उसे केवल एक दृष्टिकोण से नहीं देख सकते। आपकी बात सच्ची है तो सामने वाले की बात भी किसी रूप में सच्ची हो सकती है। मतलब औरों के विचारों या मान्यताओं को लेकर विवाद करने की जरूरत नहीं है। यही स्याद्वाद है। इस संबंध में छह अंधे और हाथी का उपाख्यान प्रसिद्ध है।
अकर्तावाद- जैन धर्म ने प्रत्येक वसतु की अपनी सत्ता मानी है,स्वतंत्रता मानी है। वस्तुतः कोई किसी का कर्त्ता-हर्त्ता नहीं है। प्रभु अपने में परिपूर्ण हैं पर उन्होंने किसी को बनाया- मिटाया नहीं। भगवान कर्त्ता नहीं अपितु प्रत्येक व्यक्ति अपने किए कर्मों से ही सुख या दुख पाता हुआ संसार परिभ्रमण करता है और स्वयं ही स्वयं के विकारों को नष्टकर शुद्ध-सिद्ध होता है। जड़- चेतन सभी उत्पाद-व्यय-ध्रुवात्मक हैं। किसी के कुछ करने की जरूरत नहीं है। कर्ता बुद्धि से ही जीव दुःखी है।
आत्मवाद- इस विश्व में अनंत जीव-आत्मा हैं। अपने विकारों से आत्मा चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करता है। अपने मिथ्यात्व, अज्ञान और विकारों को, दोषों को मिटाकर ज्ञानादि गुणों को पाकर आत्मा परमात्मा बन जाता है।
जो आत्मा केवल विकारों में डूबा है, वह बहिरात्मा है। जो तत्व को समझकर अंतर्मुख होता है वह अंतरात्मा है। जो परिपूर्ण शुद्ध हो गया वह परमात्मा है।