न्याय के चार अंगों में दूसरा अंग है-प्रमेय। प्रमाणेन आनेन प्रमीयते ज्ञायते यत् वस्तु तत्त्वं तत् सर्वं प्रमेयं ज्ञेयमित्यर्थ:। प्रमाण-ज्ञान के द्वारा जो वस्तु तत्त्व जाना जाता है वह सभी तत्त्व प्रमेय-ज्ञेय कहलाता है। अर्थात् ज्ञान से जाने गये सभी पदार्थ ज्ञेय कहलाते हैं और ज्ञान को ही प्रमाण माना है अत: प्रमाण से जाने गये सभी पदार्थ ‘प्रमेय’ कोटि में आ जाते हैं।
संसार में कोई भी ऐसा पदार्थ नहीं है जो ज्ञान का विषय न हो, चाहे वह प्रत्यक्ष ज्ञान का विषय हो या परोक्ष ज्ञान का विषय हो किन्तु सभी चेतन-अचेतन पदार्थ ज्ञान के विषय अवश्य हैं जो ज्ञान के विषय नहीं है वे पदार्थ ही नहीं है वे तो आकाशकमलवत् असत् ही हैं। अत: प्रमेय शब्द से सम्पूर्ण चेतन-अचेतन पदार्थ आ जाते हैं। यहाँ तक कि प्रमाण भी कथंचित् प्रमेय है जैन दर्शन में ज्ञान को स्वसंवेदी सिद्ध किया है अत: ज्ञान जानने वाला होने से ज्ञान है एवं स्वयं के द्वारा स्वयं जाना जाता है अत: ज्ञेय भी है।
आचार्य कहते हैं कि ‘सम्यग्ज्ञानं प्रमाणं’ सूत्र में ज्ञान शब्द से प्रमाता-आत्मा और प्रमिति-ज्ञान की व्यावृत्ति हो जाती है, इस पर शंकाकार करता है कि जैसे ज्ञानपद से प्रमाता और प्रमिति का निराकरण किया है वैसे ही प्रमेय का निराकरण क्यों नहीं किया, क्योंकि प्रमेय भी ज्ञानरूप नहीं है। इस पर जैनाचार्य कह रहे हैं कि च शब्द से प्रमेय का भी निराकरण हुआ समझना चाहिए।
यद्यपि ‘स्व’ को जानने की अपेक्षा से ज्ञान ‘प्रमेय’ ही है फिर भी घट पट आदि बाह्य पदार्थों की अपेक्षा से प्रमेय नहीं भी है अत: च शब्द से प्रमेय का भी निराकरण हो जाता है। यहाँ इस बात को समझ लेना चाहिए कि ये प्रमाता, प्रमिति और प्रमेय तीनों ही यद्यपि ज्ञान नहीं है फिर भी इनमें सम्यक्पना सिद्ध है। इसलिए सच्चे ज्ञान के द्वारा जाने गये पदार्थ सच्चे ज्ञेय-प्रमेय कहलाते हैं। ये ही ज्ञेयभूत जीवादिपदार्थ द्रव्य, तत्त्व आदि सम्यक्त्व के विषयभूत हैं।
इसलिए यद्यपि ‘प्रमेय’ शब्द से प्रमाण को भी लिया जा सकता है फिर भी इस ग्रंथ में प्रमाण की समीक्षा करने के बाद प्रमेय की समीक्षा की गयी है, क्योंकि न्याय शास्त्रों में प्रमाण का विषय ही मुख्यतया प्रतिपाद्य है और ये न्याय शास्त्र प्रमाण शास्त्र भी कहलाते हैं।
इस प्रमेय समीक्षा में सबसे प्रथम ‘दर्शन’ शब्द का निरुक्ति अर्थ करते हुए सभी दर्शनों की संक्षिप्त समीक्षा की जाती है।
‘दृश्यते निर्णीयते वस्तुतत्त्वमनेनेति दर्शनम्, अथवा दृश्यते निर्णीयते इदं वस्तुतत्त्वमिति दर्शनम्।’
व्याकरण शास्त्र की इन दोनों व्युत्पत्तियों के अनुसार दृश् धातृ से दर्शन शब्द बना है। जिसके द्वारा वस्तु का स्वरूप देखा जाये-निर्णीत किया जाये वह दर्शन है, या दूसरी व्युत्पत्ति के आधार पर दर्शन शब्द का अर्थ उल्लिखित विचारधारा के द्वारा निर्णीत तत्त्वों की स्वीकारता होता है एवं पहली व्युत्पत्ति के आधार पर दर्शन शब्द तर्क-वितर्क, मन्थन या परीक्षास्वरूप उस विचारधारा का नाम है जो तत्त्वों के निर्णय में प्रयोजक हुआ करती है।
जैसे-यह संसार नित्य है या अनित्य? इसकी सृष्टि करने वाला कोई है या नहीं ? आत्मा का स्वरूप क्या है ? इसका पुनर्जन्म होता है या नहीं ? ईश्वर की सत्ता है या नहीं? इत्यादि प्रश्नों का समुचित उत्तर देना दर्शन शास्त्र का काम है।
‘शास्त्र’ शब्द की व्युत्पत्ति दो धातुओं से हुई है-शास्-आज्ञा करना तथा शंस्-वर्णन करना। प्रथम व्युत्पत्ति के अनुसार शासन अर्थ में शास्त्र शब्द का प्रयोग धर्म शास्त्र के लिए किया जाता है। शंसक शास्त्र-बोधक शास्त्र वह है जिसके द्वारा वस्तु के यथार्थ स्वरूप का वर्णन किया जाये। धर्मशास्त्र कर्तव्य और अकर्तव्य का प्रतिपादन करने के कारण पुरुष परतंत्र है। किन्तु दर्शन शास्त्र वस्तु के स्वरूप का प्रतिपादन करने से वस्तु परतंत्र है।
दर्शन को दो भागों में विभक्त किया गया है-
भारतीय दर्शन और पाश्चात्य दर्शन। भारतीय दर्शन में भी वैदिक दर्शन और अवैदिक दर्शन से दो भेद हो गये हैं।
वैदिक दर्शन में-मुख्यत: सांख्य, वेदांत, मीमांसा, योग, न्याय तथा वैशेषिक दर्शन लिये जाते हैं।
अवैदिक दर्शन में-जैन, बौद्ध और चार्वाक माने जाते हैं। वेद परम्परा के पोशक वैदिक एवं वैदिक परम्परा से भिन्न दर्शनों को अवैदिक दर्शन कहते हैं।
न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा और वेदान्त इन छह दर्शनों को आस्तिक एवं जैन, चार्वाक तथा बौद्ध दर्शनों को नास्तिक कहा जाता है। यहाँ वेदों को मानने वालों को आस्तिक एवं वेदों को न मानने वालों को नास्तिक कहा है। किन्तु यह ठीक नहीं है क्योंकि प्राय: प्राणियों को जन्मान्तररूप परलोक स्वर्ग, नरक तथा मुक्ति को न मानने वालों को नास्तिक कहा जाता है, इससे जैन और बौद्ध दोनों अवैदिक दर्शन नास्तिक न होकर आस्तिक हो जाते हैं क्योंकि ये दोनों दर्शन परलोक, स्वर्ग आदि को स्वीकार करते हैं।
यदि जगत् के कर्ता अनादि निधन ईश्वर को मानने में आस्तिकता है, तब तो सांख्य, मीमांसक भी ईश्वर की सृष्टि का कर्ता न मानने से नास्तिक बन जावेंगे, क्योेंकि ये दोनों ईश्वर को सृष्टि का कर्र्ता नहीं मानते हैं। तात्पर्य यह है कि जैन नास्तिक नहीं है परलोक स्वर्ग, नरक, मुनि आदि मानते हैं, ईश्वर को सृष्टि का कर्ता न मानकर भी निरीश्वरवादि नहीं है क्योंकि अनन्त ईश्वरों-सर्वज्ञों को स्वीकार करते हैं।
प्रमाण के विषय को प्रमेय कहते हैं। संख्या की दृष्टि से प्रमेय अनन्त हैं, क्योंकि जगत् में जितने भी द्रव्य या पदार्थ हैं, वे सब प्रमेय हैं। प्रमेय का विभाजन पदार्थों की संख्या के आधार पर नहीं अपितु उनकी स्वरूपगत विशेषताओं के आधार पर किया जाता है। दर्शन जगत् में स्वरूप की दृष्टि से प्रमेय के चार रूप बनते हैं-
१. प्रमेय नित्य हैं।
२. प्रमेय अनित्य हैं।
३. कुछ प्रमेय नित्य एवं कुछ अनित्य हैं।
४. प्रमेय नित्यानित्य हैं।
वेदान्त, सांख्य आदि दर्शन में प्रमेय को कूटस्थ नित्य माना गया है। बौद्ध दर्शन में प्रमेय को अनित्य माना गया है। न्याय दर्शन में कुछ प्रमेयों, जैसे-आत्मा, आकाश आदि को नित्य माना गया है तथा दीपशिखा आदि कुछ प्रमेयों को अनित्य माना गया है। जैन दर्शन में प्रमेय को नित्यानित्य माना गया है।
जैन दर्शन जगत् की वस्तुओं को संख्या की दृष्टि से अनन्त स्वीकार करके भी स्वरूप की दृष्टि से उसे नित्यानित्य या सामान्यविशेषात्मक ही मानते हैं। सत्-असत्, नित्य-अनित्य, सामान्य-विशेष, वाच्य-अवाच्य आदि अनन्त धर्मात्मक वस्तु प्रमाण का विषय (प्रमेय) होती है।
इस सूत्र में प्रमेय के निम्न स्वरूप बतलाये गये हैं-
१. सत्-असत्, २. नित्य-अनित्य, ३. सामान्य-विशेष, ४. वाच्य-अवाच्य।
सत्-असत्, नित्य-अनित्य आदि परस्पर अविनाभावी हैं अर्थात् एक-दूसरे के बिना नहीं रहते। इनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-
१. सत्-असत्-जैन दर्शन के अनुसार वस्तु अनन्त धर्मात्मक होती है। उनमें एक धर्म है सत्-असत् का अविनाभाव। सत् के स्वरूप का विश्लेषण करते हुए लिखा गया-‘उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मकं सत्’-उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मक पदार्थ को सत् कहा जाता है। उत्पाद और व्यय परिवर्तन के सूचक हैं तथा ध्रौव्य नित्यता का सूचक है।
उत्पाद-‘उत्तरोत्तराकाराणामुत्पत्ति: उत्पाद:-उत्तरोत्तर आकार की उत्पत्ति का नाम उत्पाद है। यथा-दूध में जामन देने पर दही रूप पर्याय का उत्पाद हो गया। पर हमें यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि स्वजाति (मूल द्रव्य) का परित्याग किये बिना भवान्तर (दूसरी अवस्था) का ग्रहण करना उत्पाद है। मिट्टी का पिण्ड घट पर्याय में परिणत होता हुआ भी मिट्टी ही रहता है। अत: मिट्टीरूप जाति का परित्याग किये बिना घटरूप भवान्तर का जो ग्रहण है, वही उत्पाद है।
व्यय-‘पूर्वपूर्वाकाराणां विनाश: व्यय:’-पूर्व-पूर्व आकार के विनाश का नाम व्यय है। उत्पाद की भांति व्यय का स्वरूप बताते हुए कहा गया कि स्वजाति का परित्याग किये बिना पूर्वाभाव (पर्याय) का जो विगम (नाश) है, वह व्यय है। घट की उत्पत्ति में पिण्ड की आकृति का विगम, व्यय का उदाहरण है। पिण्ड जब घट बनता है, तो उसकी पूर्वाकृति पिण्ड का व्यय हो जाता है। इस व्यय में मिट्टी का नाश नहीं होता है, केवल आकृति का नाश होता है।
ध्रौव्य-‘एतद्वयपर्यायान्वयि एव ध्रौव्यं सद् उच्यते’-उत्पाद एवं व्यय इन दोनों पर्यायों में जो अन्वित होता है, हमेशा बना रहता है, उसे ध्रौव्य कहते हैं। उसी को सत् भी कहते हैं। उदाहरण के लिए पिण्डादि अनेक अवस्थाओं में मिट्टी का जो अन्वय है, वह ध्रौव्य है। इस प्रकार जैनदर्शन में सत् को उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक माना गया है और वही प्रमाण का विषय (प्रमेय) बनता है।
एकान्तवादी कुछ आचार्यों का वस्तु के उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक स्वरूप पर यह आक्षेप है कि उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य परस्पर विरोधी हैं। परस्पर विरोधी गुणधर्म वस्तु में एक साथ वैâसे रह सकते हैं ? इसका समाधान देते हुए जैन आचार्यों ने लिखा-
‘घटमौली सुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम्।।
शोकप्रमोदमाध्यस्थं जनो याति सहेतुकम्।।’’
इस श्लोक में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य तीनों एक साथ वैâसे हो सकते हैं, इस बात को उदाहरण से समझाया गया है-
एक बार तीन व्यक्ति एक स्वर्णकार की दुकान पर पहुँचे। उस समय स्वर्णकार स्वर्णकलश को तोड़कर स्वर्णमुकुट बना रहा था। उन तीनों में से पहला व्यक्ति स्वर्णमुकुट चाहता था, दूसरा स्वर्णकलश चाहता था और तीसरा केवल स्वर्ण चाहता था। स्वर्णकार की प्रवृत्ति को देखकर पहले व्यक्ति को प्रसन्नता हुई क्योंकि वह स्वर्णमुकुट का उत्पाद देख रहा था। दूसरे व्यक्ति को दु:ख हुआ क्योंकि वह स्वर्णकलश का व्यय (नाश) देख रहा था और तीसरा व्यक्ति मध्यस्थ (तटस्थ) रहा क्योंकि उसे स्वर्ण चाहिए था और उसे वहाँ स्वर्ण ही दिखाई दे रहा था। इस प्रकार एक ही समय में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य तीनों बातें एक साथ दिखाई देती हैं, क्योंकि प्रत्येक वस्तु स्वभाव से त्रिगुणात्मक है। त्रिगुणात्मक वस्तु को ही सत् कहते हैं।
न्याय के चार अंगों में तीसरा अंग है-प्रमिति। दर्शन जगत् में प्रमाण और प्रमेय की भांति प्रमिति (प्रमाण-फल) की चर्चा भी अपना एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। जैनदर्शन आत्मवादी होने के कारण आत्मा को प्रमाता मानता है। ज्ञान आत्मा का गुण है और वह प्रमा (जानने) का साधकतम उपकरण है, इसलिए ज्ञान को प्रमाण मानता है। अज्ञान की निवृत्ति ज्ञान से होती है इसलिए ज्ञान को ही प्रमिति (प्रमाण-फल) मानता है। अत: जैन दर्शन के अनुसार ज्ञान ही प्रमाण है और ज्ञान ही प्रमिति है। जैनदर्शन में प्रमाण के दो फल माने गये हैं-१. अनन्तर फल, २. परम्परा फल।
अनन्तर फल-अनन्तर अर्थात् साक्षात् फल (मुख्य फल) प्रमाण का साक्षात् फल है-पदार्थ का बोध होना, ज्ञान होना।
जैन दर्शन में ज्ञान का आविर्भाव (प्रकटीकरण) ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम अथवा क्षय से माना गया है। उसमें पदाथ&, प्रकाश आदि को कारण नहीं माना गया। जैन दाश&निकों का मंतव्य है कि पदार्थ की उपस्थिति में भी उसका ज्ञान नहीं होता है, यदि तत्सम्बद्ध ज्ञानावरण कम& का क्षयोपशम न हो। इसलिए जैन दाश&निकों ने विषय के ज्ञान को सीधा प्रमाणफल न कहकर तत्संबंद्ध अज्ञाननिवृत्ति को प्रमाण का फल कहा है। उदाहरणाथ& हमें घट (घड़ा) का ज्ञान हुआ है। इसका अर्थ है-हमारी घट-संंबधी अज्ञान की निवृत्ति हुई है। इस प्रकार प्रत्यक्ष, अनुमान आदि समस्त प्रमाणों का साक्षात् फल जैन दश&न में अज्ञाननिवृत्ति को माना गया है।
परम्परा फल-परम्परा अथा&त् गौण फल, अनन्तर के बाद होने वाला फल। प्रमाण का परस्पर फल हान (हेय) उपादान (उपादेय) और उपेक्षा (मध्यस्थ) बुद्धि है। वस्तु का ज्ञान होने के पश्चात् ज्ञाता को वह यदि अहितकारी प्रतीत होती है तो वह उसे छोड़ देता है, अर्थात् उस वस्तु के प्रति उसकी हान बुद्धि पैदा होती है। वस्तु यदि हितकारी प्रतीत होती है तो वह उसे ग्रहण कर लेता है अर्थात् उस वस्तु के प्रति उसकी उपादान बुद्धि पैदा होती है तथा उस वस्तु से यदि उसका कोई प्रयोजन नहीं होता तो, वह उसकी उपेक्षा कर देता है, अर्थात् उसके प्रति तटस्थ (मध्यस्थ) बुद्धि रखता है।
मति, श्रुत आदि ज्ञानों में हान, उपादान और उपेक्षा तीनों बुद्धियाँ फल होती हैं तथा केवलज्ञान का फल मात्र उपेक्षा बुद्धि ही है, क्योंकि केवलज्ञान वीतरागी होते हैं अत: उनके राग-द्वेष से होने वाली हान-उपादान बुद्धि नहीं होती।
जैसा कि न्यायावतार में लिखा है—
प्रमाण का साक्षात् फल अज्ञान की निवृत्ति है। केवलज्ञान का साक्षात् फल उपेक्षा बुद्धि है तथा शेष मति, श्रुत आदि ज्ञानों का फल हान और उपादान बुद्धि है।
इस प्रकार प्रमाण का फल दो प्रकार का है-एक साक्षात् फल अथा&त् प्रमाण से अभिन्न फल और दूसरा गौण फल अर्थात् प्रमाण से भिन्न फल। प्रमाण का साक्षात् फल अज्ञाननिवृत्ति है और परम्परा फल हान, उपादान, उपेक्षा बुद्धि है।
जैनदर्शन में प्रमाण और प्रमीति (फल) दोनों को ज्ञानरूप स्वीकार किया गया है। दोनों का ज्ञानात्मक स्वीकार करने पर यह समस्या उठती है कि प्रमाण एवं प्रमिति दोनोें ही जब ज्ञानात्मक हैं तो उनमें फिर भेद क्या हुआ ? दोनों के ज्ञानात्मक होने से फिर तो उनमें अभेद ही होना चाहिए।
जैनदर्शन अनेकांतवादी है अत: वह अनेकान्त के आधार पर प्रमाण और प्रमिति दोनों में न सव&था भेद और न सव&था अभेद अपितु भेदाभेद सिद्ध करता है। जैन दाश&निक कहते हैं कि यद्यपि प्रमाण का साक्षात् फल अज्ञाननिवृत्ति स्वपरव्यावसायी ज्ञान से अभिन्न प्रतीत होता है किन्तु प्रमाण जानने का साधन एवं अज्ञाननिवृत्ति स्वपरव्यवसितिरूप ज्ञान साध्य है। ‘साध्यसाधनभावेन तयोभेद:’-साध्य और साधन भाव की अपेक्षा से प्रमाण और प्रमिति (फल) भिन्न हैं। प्रमाण साधन है और प्रमिति साध्य है अत: दोनों में कथंचित् भेद है।
प्रमाण और प्रमिति दोनों ज्ञानात्मक हैं और ज्ञानात्मक होने के कारण यदि उनमें एकान्त अभेद माना जाये तो या तो साधन (प्रमाण) होगा या साध्य (प्रमिति) होगा। दोनों का स्वतंत्र अस्तित्व संभव नहीं होगा। अत: प्रमाण और प्रमिति में एकान्त अभेद न होकर कथंचित् अभेद है। यद्यपि हान, उपादान और उपेक्षा-बुद्धिरूप फल की प्रतीति होती है, इसलिए उनमें कथंचित् अभेद भी है। एक ही प्रमाता में आत्मगत होने के कारण प्रमाण और प्रमिति अभिन्न हैं। तात्पय& यही है कि प्रमाणरूप में परिणित आत्मा ही फलरूप में परिणित होती है अत: एक प्रमाता की अपेक्षा से दोनों में अभेद घटित होता है।
जैन आचायों ने का यह मंतव्य है कि यदि प्रमाण और फल को कथंचित् भिन्न एवं कथंचित् अभिन्न न माना जाये तो प्रमाण और फल की व्यवस्था ही नहीं बन सकती। जैन दर्शन में प्रमेय दो प्रकार के माने गये हैं-स्व एवं पर। जब ज्ञान ही प्रमेय हो तो वह ‘स्व’ तथा जब बाह्य पदार्थ प्रमेय हो तो उसे ‘पर’कहा जाता है। ज्ञान को परप्रकाशक मानने के साथ-साथ स्वप्रकाशक भी माना गया है। इसलिए कभी ज्ञान भी प्रमेयरूप हो सकता है। ज्ञान को प्रमेय मान लेने पर प्रमेय, प्रमाण, प्रमिति एवं प्रमाता सभी ज्ञानात्मक हो जाते हैं तथपि जैन दार्शनिक व्यवस्था की दृष्टि से इन चारों में साध्य, साधन, कार्य एवं कर्ता के रूप में कथंचित् भेद स्वीकार करते हैं। इस प्रकार जैन दर्शन के अनुसार प्रमाण से प्रमाण का फल न सर्वथा भिन्न है और न सर्वथा अभिन्न है अपितु भिन्नाभिन्न है।
जैनदर्शन में ज्ञान को प्रमाण माना गया है और ज्ञान को ही फल माना गया है। इस दृष्टि से जैन चिंतकों ने अवग्रह आदि ज्ञान के भेदों में भी प्रमाण और फल की व्यवस्था करते हुए लिखा है-‘अवग्रहादीनां क्रमिकत्वात् पूर्व पूर्व प्रमाणमुत्तरमुत्तरं फलम्’ अर्थात् अवग्रह आदि क्रमिक होते हैं इसलिए उनमें पूर्व-पूर्ववर्ती ज्ञान प्रमाण और उत्तर—उत्तरवर्ती ज्ञान फल होते हैं। जैसे-अवग्रह प्रमाण है और ईहा उसका फल है। इसी प्रकार ईहा प्रमाण और अवाय उसका फल, अवाय प्रमाण और धारणा उसका फल, धारणा प्रमाण और स्मृति उसका फल, स्मृति प्रमाण और प्रत्यभिज्ञान उसका फल, प्रत्यभिज्ञान प्रमाण और तर्क उसका फल तथा तर्क प्रमाण और अनुमान उसका फल है। इस प्रकार प्रत्येक ज्ञान प्रमाण भी है और फल भी है।
जैनदर्शन में प्रमाण का साक्षात् फल अज्ञाननिवृत्ति एवं गौण फल हान-उपादान-उपेक्षा बुद्धि माना गया है तथा प्रमाण एवं प्रमाण-फल में न एकान्त भेद और न एकान्त अभेद अपितु कथंचित् भेदाभेद माना गया है।
न्याय का चौथा अंग है-प्रमाता (आत्मा)। भारतीय दर्शन जगत् का प्राण तत्त्व है-आत्मा। आत्मा के अस्तित्व, उसके स्वरूप आदि के बारे में भारतीय चिंतकों ने प्रभूत विमर्श किया है। आत्मा को केन्द्र में रखकर दो प्रकार की विचारधाराएँ विकसित हुई। एक वह जो आत्मा के त्रैकालिक अस्तित्व को स्वीकार करती है और दूसरी वह जो आत्मा के त्रैकालिक अस्तित्व को स्वीकार नहीं करती। चार्वाक के अतिरिक्त समस्त भारतीय चिंतकों ने आत्मा के त्रैकालिक अस्तित्व को स्वीकार किया है। न्याययुग में आत्मा को ही प्रमाता के रूप में जाना गया है अर्थात् आत्मा के लिए प्रमाता शब्द का प्रयोग किया गया है। प्रमाता को परिभाषित करते हुए कहा गया-‘स्वपरावभासी परिणामी आत्मा प्रमाता। स्वपरावभासी प्रत्यक्षादिप्रसिद्ध आत्मा प्रमाता।’ इन परिभाषाओं में प्रमाता के तीन लक्षण बताये गये हैं-
१. प्रमाता का स्व-परप्रकाशी होना।
२. प्रमाता का परिणामीनित्य होना।
३. प्रमाता का प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से ज्ञान होना।
प्रमाता का स्व-परप्रकाशी होना-भारतीय दर्शन में आत्मा के स्वरूप के संबंध में दार्शनिकों में परस्पर मतभेद पाया जाता है। कुछ दर्शन जैसे-अद्वैत—वेदान्त, सांख्य-योग, बौद्ध आदि आत्मा को स्वप्रकाशी मानते हैं। इनके अनुसार आत्मा स्वप्रकाशी है, पर-प्रकाशी नहीं।
मीमांसा, न्याय-वैशेषिक आदि कुछ दर्शन आत्मा को परप्रकाशी मानते हैं, स्वप्रकाशी नहीं। स्वप्रकाशी से तात्पर्य अपने आपको जानने वाला तथा परप्रकाशी से तात्पर्य दूसरों को जानने वाला है। जैन दर्शन से इन दोनों के बीच समन्वय स्थापित किया और आत्मा को न केवल स्वप्रकाशी और न केवल परप्रकाशी अपितु स्वपरप्रकाशी माना। इस विषय में उनका अभिमत है कि आत्मा ज्ञानस्वरूप है और ज्ञान स्व-परप्रकाशक है इसलिए आत्मा भी स्व-परप्रकाशक है।
जिस प्रकार सूर्य या दीपक अपने आपको प्रकाशित करता है और दूसरे पदार्थों-घट-पट आदि को भी प्रकाशित करता है अत: वह स्व-परप्रकाशी होता है। उसी प्रकार आत्मा भी स्वयं तथा पर पदार्थों को प्रकाशित करने के कारण स्व-परप्रकाशी है। जो स्वप्रकाशी नहीं होता वह परप्रकाशी भी नहीं हो सकता। जैसे-घट, घट जड़ होने के कारण अपने आपको भी प्रकाशित नहीं कर सकता और अन्य पदार्थों को भी प्रकाशित नहीं कर सकता।
आत्मा ज्ञानस्वरूप होने के कारण स्व-परप्रकाशक है। अत: सूत्र में स्वपरावभावी या स्वपरप्रकाशी विशेषण उन लोगों के मत का खण्डन करने के लिए है, जो आत्मा को केवल स्वप्रकाशी या केवल परप्रकाशी मानते हैं। जैन दर्शन के अनुसार प्रमाता स्व-परप्रकाशी है।