‘‘नम: ऋषभदेवाय, धर्मतीर्थ प्रवर्तिने।
सर्वा: विद्या-कला यस्मादाविर्भूता महीतले।।’’
महानुभावों! धर्म शाश्वत है धर्म की व्याख्या तो यही है कि ‘उत्तमे सुखे धरति इति धर्म:’ अथवा ‘शुभधामनि धातारं वन्दे धर्मं जिनेन्द्रोक्तम्’ शुभ धाम अर्थात् जो उत्तम सुख में पहुँचाये, उसी का नाम धर्म है। ‘कर्मारातीन् जयति इति जिन:’ कर्म शत्रुओं को जीतने वाले जिन हैं ‘जिनो देवता अस्य इति जैन:’ और जिन देवता हैं जिनके अर्थात् जो जिनेन्द्रदेव की उपासना करने वाले हैं, वे जैन हैं। इसलिए जैनधर्म शाश्वत धर्म है। जितेन्द्रिय धर्म शमदम शासनस्वरूप धर्म है जहाँ शम यानि कषायों की मन्दता और दम यानि इन्द्रियों का निग्रह ये मुख्यरूप से पाये जाते हैं। प्रकारान्तर से यही अर्थ हुआ कि जैनधर्म शाश्वत है, अनादि निधन है। तीर्थंकर परम्परा भी शाश्वत है, अनादिनिधन है। तीर्थंकर किसे कहते हैं? जो धर्म तीर्थ को चलावें अर्थात् प्रवर्तन करें, वही तीर्थंकर कहलाते हैं।
अब विषय यह आता है कि इस जैन शासन में वक्ता और श्रोता वैâसा होना चाहिए? वक्ता वही उत्तम माने गये हैं जो मोक्षमार्ग के अनुकूल, आगम के अनुकूल, गुरुओं के अनुकूल वचन बोलें। प्रवचन में भय से, स्नेह से, मोह से या किसी प्रकार से जनता के अनुकूल न बोलकर आगम के अनुकूल बोलें, क्योंकि उनके ये वचन जिनवाणी के अंश होने चाहिए न कि जनवाणी के। इस बात को हमेशा ध्यान में रखना चाहिए। मैं कई बार विद्वानों के सामने कहा करती हूँ कि आप जो भी लिखते हैं, कोई भी लेख या कोई भी ग्रंथ लिखें, उसमें जो भी लिखें सावधानी से लिखें कि ये आगम के अनुकूल है कि नहीं, किसी न किसी आगम का आधार लेकर ही लिखना चाहिए और साथ ही यह अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि आप अपने लेख में अन्य किसी ग्रंथों का आधार लेते हैं, तो उसमें नीचे उसका टिप्पण जरूर दे दें कि अमुक ग्रंथ से, अमुक पृष्ठ से मैंने यह विषय लिया है। यह अवश्य ईमानदारी के साथ लिख देना चाहिए अन्यथा बहुत अर्थ का अनर्थ हुआ देखा जा रहा है।
‘तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा’ पुस्तक आप देखें, उसके प्रथम भाग में ही भगवान महावीर का जीवन दर्शन लिखा गया है। जब मैं इसे पढ़ती हूँ तो आश्चर्य होता है। भगवान के चातुर्मास, उनके ऊपर अनेक प्रकार के पग-पग पर उपद्रव-उपसर्ग, कहीं बालक उन पर धूल फेंक रहे हैं, कहीं कंकड़ फेक रहे हैं, कहीं पत्थर फेंक रहे हैं आदि-आदि। कहीं अग्नि से झुलस जाना आदि अनेक बातें ऐसी हैं, जो दिगम्बर जैन ग्रंथों से, दिगम्बर जैन परम्परा से सर्वथा विरुद्ध है। दिगम्बर जैन परम्परा में तीर्थंकर महावीर पर एक बार ही उज्जयिनी में शमशान भूमि में रुद्र के द्वारा उपसर्ग हुआ था, बार-बार उपसर्ग नहीं हुआ है। तीर्थंकर जैसे महापुरुष जहाँ कदम रखें, वहाँ शत्रु भी परस्पर में प्रेम भाव को, मैत्रीभाव को प्राप्त हो जाते हैं। पशु भी आपस में वैरभाव को छोड़ करके प्रीति का अनुसरण करने लगते हैं। तो ऐसे तीर्थंकर भगवन्तों के ऊपर उपसर्ग हो जाना, भगवान पार्श्वनाथ के ऊपर शंबर ज्योतिषी के द्वारा उपसर्ग हो जाना आदि ये हुण्डावसर्पिणी काल का दोष है। अगर उस ग्रंथ में उन विद्वान ने श्वेताम्बर ग्रंथों के नाम के उद्धरण दे दिए होते तो अच्छा रहता, लोग भ्रम में न पड़ते। वैशाली को भगवान महावीर की जन्मभूमि मानना, गणतंत्र की व्यवस्था मानना, भगवान महावीर को लिच्छविवंश परम्परा वाले मानना आदि ये सब दिगम्बर परम्परा में हैं ही नहीं। दिगम्बर जैन परम्परा में भगवान महावीर का वंश नाथवंश था। राजा चेटक का सोमवंश आया है। महावीर देशना ग्रंथ में मैंने इसके बहुत से प्रमाण दिए हैं। ‘कुण्डलपुर अभिनंदन’ ग्रंथ में भी ये सब छप चुके हैं।
एक बार एक विद्वान ने अनेक पत्रों में लेख छाप दिया कि भगवान ऋषभदेव की दूसरी पत्नी सुनन्दा विधवा थी। प्रश्न उठा-क्या बाहुबली विधवा की संतान थे? सन् १९९३-९४ में इस पर बहुत ही संघर्ष हुए। श्रवणबेलगोल में भट्टारक जी ने भी इस बात का विरोध किया। साहू अशोक जी ने भी इस पर प्रतिक्रिया व्यक्त की और उन पत्रकार अजित प्रसाद-लखनऊ के पास समाचार गया, मैंने भी उन्हें समझाने का प्रयास किया कि ऐसे लेख मत छापें। वह श्वेताम्बर ग्रंथ से उद्धृत किया गया था, जिसे उन्होंने दिखाया जिसमें लिखा था कि सुनन्दा भोगभूमियाँ की युगलिया थी, उसके पति के ऊपर ताड़फल आदि गिरकर मृत्यु हुई, तब वह रो रही थी। लोगों ने उसे लाकर महाराजा नाभिराज के पास उपस्थित किया। महाराजा नाभिराज ने अपने पुत्र ऋषभदेव से उसका विवाह कर दिया। ऐसी अप्रासंगिक बातें दिगम्बर जैन परम्परा से मेल नहीं खाती हैं। दिगम्बर परम्परा में तो लिखा हुआ है कि उत्तम कुल के कच्छ और महाकच्छ की दोनों बहनें यशस्वती और सुनन्दा कुमारिकायें थीं, जिनका इन्द्र की अनुमति से महाराजा नाभिराय ने ऋषभदेव के साथ विवाह किया था। श्वेताम्बर ग्रंथ में तो यह भी लिखा है कि ब्राह्मी, सुन्दरी से भरत और बाहुबली का विवाह हुआ। कर्मभूमि में सगे भाई-बहन का विवाह होना ऐसी व्यवस्था नहीं बनती है। ब्राह्मी-सुन्दरी दोनों ने ही विवाह न करके भगवान ऋषभदेव के केवलज्ञान होने के बाद दीक्षा ले ली और ब्राह्मी ने गणिनी पद को प्राप्त किया यानि आर्यिकाओं में प्रधान हुई। अत: दिगम्बर जैन परम्परा के अनुसार ही विद्वानों को बोलना चाहिए, लिखना चाहिए। अगर कदाचित् कहीं से देखकर कुछ कहते और लिखते भी हैं तो उसी जगह या नीचे उसमें टिप्पण दे दें। एक बालिका ने भगवान ऋषभदेव पर एक ग्रंथ लिखा, उसमें उसने लिख दिया कि भगवान ऋषभदेव जंगल में पागल के समान विचर रहे थे, बाल बिखरे हुए थे, वहाँ पर दावानल अग्नि भड़की, भगवान उसमें भस्मसात् हो गए अर्थात् जलकर भस्म हो गये। एक सज्जन मेरे पास वह पुस्तक लेकर आए और बोले इसमें क्या लिखा हुआ है? जब उस बालिका से कहा गया, तो उसने कहा कि ऐसा मेरे भागवत ग्रंथ में लिखा है। उसने प्रमाण दिखा दिया। मैंने कहा-तुमने इसमें नीचे अगर टिप्पण दे दिया होता, तो यह विरोध का विषय नहीं बनता।
दिगम्बर जैन परम्परा में तो भगवान तीर्थंकर केवलज्ञान को प्राप्त करके दिव्य समवसरण में विराजमान होते हैं, उनका श्रीविहार होता है। उनके चरण के नीचे देवगण स्वर्णमयी कमलों की रचना करते हैं। अनंतर जब निर्वाण गमन होता है तब देव आकर उनकी पूजा करते हैं, उनके शरीर का संस्कार करते हैं। केवली अवस्था में उनका दिव्य परमौदारिक शरीर हो जाता है। तो ऐसे अग्नि में जलकर भस्म होना आदि तीर्थंकरों के लिए संभव ही नहीं है। विद्वानों के लिए ऐसे बहुत से विषय विचारणीय हैं। जो विद्वान् समाज में प्रवचन करते हैं, पुस्तक, लेख वगैरह लिखते हैं, उनको बहुत ही सावधानी से बोलना चाहिए और अपनी कलम चलानी चाहिए। ब्यावर में सन् १९५८ में पं. श्री पन्नालाल जी सोनी कहा करते थे कि अगर मैं एक शब्द आगम के प्रतिकूल बोल दूँगा या लिख दूँगा तो मुझे निगोद में जाना पड़ेगा, मुझे निगोद से बहुत डर लगता है। तो ऐसे ही पापभीरू होना चाहिए। मैंने देखा है धवला आदि ग्रंथों में जहाँ दो मत आए हैं, वहाँ पर श्री वीरसेन स्वामी धवला टीकाकार ने यह लिख दिया कि जब तक हमारे सामने केवली, श्रुतकेवली नहीं हैं, हम इसका निर्णय नहीं कर सकते कि कौन सा मत सत्य है? उस समय हमारा कर्तव्य है कि हम दोनों मत को प्रामाणीक मानें। अब यह प्रश्न उठता है कि दोनों मत में से सही तो कोई एक ही होगा, तो हमारे पास इसका निर्णय करने का कोई साधन नहीं है। उदाहरण के लिए-जैसे देवियों की आयु के बारे में मूलाचार में दो मत हैं तो उसमें टीकाकार ने यही लिख दिया कि हमारे पास इसका निर्णय करने का वर्तमान में कोई साधन नहीं है। केवली और श्रुतकेवली आज नहीं हैं अत: हम निर्णय नहीं कर सकते, हमारे लिए दोनों मत प्रमाण हैं। ऐसे दो मत वाले बहुत से विषय हैं।
आजकल देखा जा रहा है कि बहुत से विद्वान किसी ग्रंथ की हिन्दी लिखकर ग्रंथ के मूल नाम को बदल देते हैं जबकि हिन्दी तो अनुवाद है, शब्दश: उसका भाषान्तर है अत: ग्रंथ का नाम नहीं बदलना चाहिए। देखिए एक ग्रंथ का ‘समयसार’ नाम कुन्दकुन्द स्वामी ने रखा, उस पर टीका करने वाले श्री अमृतचन्द्रसूरि ने और श्री जयसेनाचार्य ने उस ग्रंथ का नाम नहीं बदला। अपनी टीका का नाम आत्मख्याति टीका एवं तात्पर्यवृत्ति टीका रखा। मैंने भी समयसार ग्रंथ पर टीका लिखी, उस टीका का नाम रखा ‘‘ज्ञानज्योति टीका’’ और ग्रंथ का नाम मूल में समयसार ही रखा। महापुराण ग्रंथ इतना प्रामाणिक, महत्वपूर्ण ग्रंथ है, उसकी अपने आप में एक विशेष गरिमा, महिमा है लेकिन आज हमारे यहाँ से महापुराण नाम उठ गया है। अनुवाद करने वालों ने उसका नाम रख दिया ‘आदिपुराण’। महापुराण नाम का ग्रंथ ही खत्म हो गया। यह देखकर बड़ा खेद होता है अरे! ग्रंथ का महापुराण नाम लिखकर ब्रेकेट में (आदिपुराण) लिखना चाहिए क्योंकि आदिनाथ से संबंधित उसमें परिचय है। महापुराण मूल नाम नहीं बदलना चाहिए। ‘भगवती आराधना’ का किसी ने नाम रख दिया ‘विशुद्ध समाधि भावना’ अपना नाम भी उसके साथ जोड़ दिया। देखा जाये तो यह परम्परा कहाँ तक उचित है? अभी मैंने देखा कि ज्ञानपीठ से सागारधर्मामृत और अनगार धर्मामृत ग्रंथ छपा है, जिनका नाम मूल में सागारधर्मामृत-अनगार धर्मामृत है, अब उसका नाम उन्होंने बदल दिया। ऊपर लिखा है धर्मामृत ब्रेकेट में लिख दिया (सागार), यह गलत हो गया। मूल में उसे सागार धर्मामृत ही लिखना चाहिए क्योंकि धर्मामृत नाम से और भी अनेक आध्यात्मिक ग्रंथ हैं।
आचार्यश्री अजितसागर महाराज ने खूब सारे सूक्ति के श्लोक संग्रहीत किए, मैंने स्वयं देखा है, जब वे ब्रह्मचारी राजमल जी थे, खूब सूक्तियाँ संग्रह करते रहते थे, किसी भी ग्रंथ में जो उनको अच्छी लगे, वे नोट कर लेते थे। एक कापी उनकी गिरनार जी के रास्ते में खो गई थी। उससे वे काफी दुखी हुए थे। यह मेरे सामने की घटना है। मैंने उन्हें २-३ बार कहा था कि आप सूक्तियाँ लिखते हैं तो इनके नीचे उस ग्रंथ का नाम जरूर डाल दें, जिससे कि प्रामाणिकता रहेगी कि यह जैनाचार्यों ने कहा है या किसी अन्य ने कहा है। हम जैसे प्रबुद्ध साधुओं के लिए प्रामाणिकता आ जाती है और यह श्लोक अपने जैन ग्रंथों का है, यह जानकर उस पर श्रद्धा ज्यादा आती है अन्यथा श्रद्धा डगमगा जाती है लेकिन उन्होंने मेरी उस बात पर गौर नहीं किया। नीचे टिप्पण में गं्रथ का नाम नहीं लिखा। बाद में सारे श्लोकों का संग्रह हो गया, तो उसका सर्वोपयोगी श्लोक संग्रह ऐसा नाम रख करके बहुत मोटा ग्रंथ छपा है। पं. श्री पन्नालाल जी ने उसका ाfहन्दी अनुवाद भी किया है। बाद में आचार्य श्री अजितसागर जी ने पं. पन्नालाल जी से कहा कि आप ग्रंथों से इन सूक्तियों को ढूँढ करके उनका नाम डाल सकें, तो डाल दीजिए लेकिन पं.पन्नालाल जी ने कहा कि अब यह मेहनत कौन कर पाएगा? यह काम बहुत कठिन है, अब संभव नहीं है। हमारे पास तो लोगों ने आकर कहा कि महाराज ने इतने श्लोक बनाए, उनको संस्कृत का ज्ञान बहुत विशेष है। मैंने कहा-यह ग्रंथ महाराज का बनाया हुआ नहीं है, यह तो ग्रंथों से संकलन है। उसी ग्रंथ में प्रस्तावना में ऐसा लिखा हुआ है।
अनगार धर्मामृत में टीकाकार पं. श्री आशाधर जी ने जहाँ भी उक्तं च लिखा है तो कहीं-कहीं तो उन्होंने ग्रंथों के नाम और आचार्यों के नाम दिए हैं। श्री अमृतचन्द्रसूरि ने तो कहीं उद्धरण लिए ही नहीं। श्री जयसेन स्वामी ने अधिकतर उद्धरण लिए हैं तो प्राय: ग्रंथों के नाम लिए हैं। देखिए स्वस्थ परम्परा है ग्रंथों का नाम दे देना। मान लीजिए टीकाकार ‘उक्तं च’ कहकर लिखते हैं तो यह निश्चित हो जाता है कि यह इनकी वाणी नहीं है किसी न किसी अन्य जैन आचार्य की है। बात यह है कि आज भी विद्वानों पर बहुत बड़ा दायित्व एवं बहुत बड़ी जिम्मेदारी है। समाज ही नहीं साधु भी विद्वान को अपना दायाँ-बायाँ हाथ मानते हैं। आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज ने विद्वानों का अत्यधिक गौरव किया। कुंथलगिरि में मैंने स्वयं देखा है, अनुभव किया है कि चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री विद्वानों को बहुत प्रेम से सम्मानित करते थे, सम्बोधित करते थे। उन्होंने विद्वानों को धवला टीका का हिन्दी अनुवाद करने की प्रेरणाएं दी। उनसे अनेक ग्रंथों के अनुवाद आदि भी कराए। प्रामाणिकता की कोटि में उन्हें रखा। आज विद्वानों का यह कर्त्तव्य है कि यदि वे किसी ग्रंथ का अनुवाद कर रहे हैं, तो अक्षरश: उसका अनुवाद करना चाहिए। पुन: विशेषार्थ कह करके या भावार्थ कह करके आगे आगम के परिप्रेक्ष्य में लिखना चाहिए। अपने मन में जो आए सो लिख देना, ऐसा नहीं करना चाहिए। मैंने मूलाचार का अनुवाद किया तो उसमें विशेषार्थ, भावार्थ कहीं-कहीं दिए हैं। ग्रंथ प्रकाशन के प्रारंभ में ज्ञानपीठ वालों ने हम लोगों से अष्टसहस्री छपाने के लिए मांगी थी। हमने अष्टसहस्री ग्रंथ नहीं दिया क्योंकि अपने ग्रंथमाला का यह प्रथम पुष्प था। फिर मूलाचार के लिए कहा तो हमने कहा ठीक है इसे आप ज्ञानपीठ से छपा लीजिए। उन्होंने उसके लिए पं. पन्नालाल जी, वैâलाशचंद जी को उसमें निर्धारित किया कि वे इसकी वाचना करके एक बार देख लें। हालांकि आर्यिका के लिखे ग्रंथ को पण्डित देखें, यह कोई उचित बात नहीं थी, फिर भी मैंने कहा कि देख लें कोई बात नहीं, विद्वान अपने हैं। विद्वानों ने उसे पढ़ा और अक्षरश: उसे बहुत सुन्दर कहा, उन्होंने मुझसे कई जगह विशेषार्थ को बढ़ाने के लिए कहा। उसमें विशेषार्थ करने में मैं निर्णय नहीं कर पा रही थी कि इसमें मैं अपना क्या अभिमत देऊँ। तब मैंने उन विद्वानों को स्पष्ट कह दिया कि मैं इसका विशेषार्थ नहीं लिख सकती क्योंकि यह भेद का विषय है। अर्थात् इससे हमारी परम्परा में भेद पड़ सकता है। कहीं आया है कि पुष्प आदि से पूजा आदि का, कहीं कृतिकर्म की व्याख्या करते समय पूजा आदि का वर्णन आ गया है। मैंने कहा इसका विशेषार्थ क्या खोलें, साधु तो पूजा करते नहीं हैं। उपदेश आदि करते हैं अत: जितना अर्थ मैंने किया, सो ठीक है।
आज क्या है? प्रवचनों में बहुत सी ऐसी बातें अपनी दिगम्बर परम्परा में हो रही हैं, जिससे एक भिन्न सम्प्रदाय बन गया है, जिसे आज कांजीपंथ के नाम से कहा जाता है। उनका तो एक फर्मा हो गया कि बस चारित्र ग्रहण किया, साधु बने या व्रती-प्रतिमाधारी बने, तो उनका सम्यक्त्व ही नहीं है। मैं कई बार उनसे प्रश्न कर देती हूँ कि आपके पास ऐसा कौन सा थर्मामीटर है जिससे आप कहते हैं कि चारित्र ग्रहण करते ही सम्यक्त्व नहीं रहता है। जो अपने आप को सम्यग्दृष्टि गौरव के साथ और बड़े आत्म विश्वास के साथ घोषित करते हैं, वे चारित्र नहीं ग्रहण करते हैं ऐसा नियम कहाँ लिखा हुआ है? जितने चारित्रवान हैं उनके सम्यग्दर्शन नहीं है, इसका आप निर्णय नहीं कर सकते। सम्यग्दर्शन बहुत सूक्ष्म विषय है। भावलिंगी मुनि तो नवग्रैवेयक आदि जाते ही हैं लेकिन द्रव्यलिंगी मुनि भी निर्दोष चारित्र के प्रभाव से नवग्रैवेयक तक जा सकते हैं, अब उनके सम्यक्त्व में कहाँ कमी है? इसका निर्णय सर्वज्ञ के सिवाय हम और आप जैसे कोई व्यक्ति कर ही नहीं सकते। निर्दोष चारित्र एवं उत्तम भाव हुए बिना नवग्रैवेयक नहीं प्राप्त कर सकते। सोलह स्वर्ग से ऊपर नहीं जा सकते। सम्यक्त्व के लिए यह निर्णय तो आचार्यों का है, लेकिन व्यवहार में भी देखा जाये तो सच्चे देव, शास्त्र, गुरु पर श्रद्धान, सात तत्त्वों का श्रद्धान आदि यही सम्यग्दर्शन है। मिथ्यात्व का पूर्णरूपेण त्याग करना सम्यग्दर्शन है। जो सम्यग्दृष्टी बनते हैं चारित्र के प्रति उनका अनुराग, उनकी रुचि होना आवश्यक है। यह सम्यग्दृष्टि का गुण है कि वह किसी की निंदा नहीं करेगा, चारित्र के प्रति उनकी अभिरुचि बनेगी। अगर वह चारित्र मोहनीय के तीव्र उदय से चारित्र नहीं ग्रहण कर सकता तो भी चारित्रवंतों के प्रति उसका विशेष महत्त्वपूर्ण अनुराग होगा। सम्यग्दृष्टि का अनुराग मुनियों के प्रति जैसा हो सकता है, वैसा सामान्य व्यक्तियों के प्रति नहीं हो सकता। सम्यग्दृष्टि के वात्सल्य अंग आदि अंग अवश्य रहेंगे। सागार धर्मामृत में जो श्लोक कहा है, उस पर कई बार मैं प्रवचन करती हूँ। उन्होंने कहा-
अथ नत्वाऽर्हतोऽक्षूणचरणान् श्रमणानपि।
तद्धर्मरागिणां धर्म: सागाराणां प्रणेष्यते।।१।।
अथ शब्द से यह सूचित होता है कि पहले उन्होंने मुनियों का अनगार धर्मामृत बनाया फिर श्रावकों का सागार धर्मामृत बनाया। उन्होंने कहा कि अब मैं अर्हंत भगवान को नमस्कार करके अक्षूण यानि निर्दोष परिपूर्ण सकल चारित्र को धारण करने वाले, महाव्रत को धारण करने वाले श्रमणों को, मुनियों को नमस्कार करके उनके धर्म में अनुराग रखने वाले सागारों का धर्म कहूँगा।
सागार की व्याख्या कितनी सुन्दर की है कि सागार अर्थात् गृहस्थ श्रावक वैâसा होना चाहिए? वह मुनि के धर्म में अनुरागी होना चाहिए। यह पंक्ति इनके मंगलाचरण की मुझे बहुत अच्छी लगती है। सभी लोग इसे बहुत अच्छा कहते थे। पं. पन्नालाल सोनी, पं. श्री खूबचंद आदि इस पंक्ति को बहुत ही महत्वपूर्ण कहते थे। वर्तमान में यह देखा जाता है अथवा वर्तमान क्या अनादिकालीन विषय है, हर बात में विपरीतता, जैसे उदाहरण के लिए देखा जाये किसी बालक को अगर घर में वैराग्य हो जाये, उसकी दीक्षा या ब्रह्मचर्य व्रत लेने की भावना हो जाये तो मोही लोग क्या कहते हैं? इसको डिप्रेशन हो गया है। जल्दी ले चलो डाक्टर के यहाँ, इसको भर्ती करो, इसको शॉक लगवाओ। इसको डिप्रेशन की दवाई दो और अगर उसने ज्यादा आग्रह किया, जिद पकड़ी तो अब यह पागल हो गया है, ऐसी स्थिति होती है। मैंने बहुतों के ऐसे अनुभव किए हैं। वही विरक्तमना भव्यात्मा पुरुषार्थ करके अगर घर से निकल जाते हैं तो भव से पार हो जाते है। कई एक उदाहरण ऐसे भी हैं। वर्तमान साधुओं में कुछ ऐसे भी हैं जिन्हें ब्रह्मचारी अवस्था में घर के अंदर बंद कर दिया गया, तो भी वे दरवाजा तोड़ के भाग आए। इसमें मेरे शिष्य सुरेश ब्रह्मचारी थे। मैंने जिन्हें ब्रह्मचारी अवस्था में ब्रह्मचर्य व्रत एवं सप्तम प्रतिमा आदि दी थी। उन्होंने पहले क्षुल्लक दीक्षा लेकर फिर मुनि बन करके संभवसागर नाम पाया। ब्रह्मचारी अवस्था में उनके माता-पिता उन्हें ले जाकर कमरे में बंद कर देते और वह किवाड़ तोड़कर जैसे-तैसे भाग आते थे। पुरुषार्थ करके वे सफल हो गये। कोई सफल हो जाते हैं और कोई असफल रहते हैं और मोह में फंस जाते हैं। मैंने देखा है ऐसे माता-पिता भी हैं जो अपने बालक एवं बालिकाओं को ब्रह्मचर्य व्रत लेने के लिए प्रेरित भी करते हैं। मैं साक्षात् उदाहरण तुम्हें बताऊँ। ब्र. सुमति बाई का जो कि सोलापुर श्राविका आश्रम की संचालिका थीं। इनके पिताजी अपनी बेटी से नहीं कह पाए कि तुम ब्रह्मचर्य व्रत ले लो क्योंकि एक ही बहुत योग्य बेटी थी लेकिन उन्होंने किसी के सामने भाव व्यक्त किए कि मेरी बेटी अगर आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत ले ले तो मैं इस आश्रम में उसे साध्वी या संचालिका बना करके गौरव के साथ अपना द्रव्य दान में दे दूँगा तब मुझे बड़ी प्रसन्नता हो जायेगी। सोलापुर के श्राविका आश्रम को चलाने में भी बहुत आनंद आएगा और गौरव का अनुभव होगा। किसी ने यह बात सुमतिबाई को कह दी। उन्हें यह सुनकर बड़ी प्रसन्नता हुई कि मेरे पिताजी की ऐसी भावना है तो मैं उसे क्यों न पूरी कर दूँ, यह बहुत अच्छी बात है। उन्होंने आचार्य शांतिसागर जी महाराज के पास जाकर आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया। स्वयं मुझे उन्होंने अपने संस्मरण सुनाये थे। सन् १९६६ का चातुर्मास मैंने सोलापुर (महा.) में किया। ब्र. सुमती बाई जी को ज्ञान के प्रति इतनी ज्यादा पिपासा थी कि उन्होंने मेरे से कहा-माताजी मुझे कोई ऊँचा ग्रंथ पढ़ाओ। तब मैंने लब्धिसार, समयसार ग्रंथ का स्वाध्याय शुरू कर किया। ब्र. सुमतीबाई जी दोनों ग्रंथ के स्वाध्याय में और मध्यान्ह में त्रिलोकसार के स्वाध्याय में बड़े आनंद से समय निकालकर बैठती थीं। हमारी शिष्याएं आर्यिका श्री जिनमती जी, आर्यिका श्री आदिमती जी भी बैठती थीं। ब्र. सुमतिबाई जी ने शास्त्री वगैरह सब परीक्षाएँ पास कर ली थीं। बहुत अच्छी विदुषी थीं। आज वहाँ संचालिका ब्र. विद्युल्लता जी हैं। इनको भी ऐसे ही संस्कार इनकी माँ ने दिए। माँ की ये अकेली बेटी थीं। माँ छोटी उमर में विधवा हो गई थीं। अत: उन्होंने आचार्य वीरसागर जी से क्षुल्लिका दीक्षा ले ली। कई वर्षों तक वे मेरे पास रही हैं फिर आर्यिका बनीं। वे भी खूब स्वाध्याय करती थीं। खूब अध्ययन करती थीं, उन्हें मेरे प्रति अकाट्य प्रेम और अनुराग था। ऐसे अभी बहुत से लोग हैं जो वैराग्य की अनुमोदना भी करते हैंै। ऐसे माता-पिता भी हैं, जो वैराग्य में सहयोगी बनते हैं।
मेरा स्वयं का अनुभव है मेरे वैराग्य में मेरी माँ ने भी मुझे सहयोग दिया। पहले उन्होंने मुझे दीक्षा नहीं लेने के लिए समझाने के लाखों प्रयास किए लेकिन मैंने उन्हें दीक्षा की स्वीकृति देने के लिए समझा दिया, जिससे वे समझ गईं और उन्होंने मेरे बारे में लिखकर आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज को दे दिया कि आप इन्हें दीक्षा दे सकते हैं तथा उस समय उन्होंने मेरे से एक शर्त कराई- बेटी! आज मैं तुझे दीक्षा लेने के लिए लिखकर दे रही हूँ, किसी दिन तुम भी मुझे गृहस्थ आश्रम से निकालकर दीक्षा दिला देना। मैंने भी उस वचन को पूरा किया, इसका मुझे गौरव एवं ब्ाहुत प्रसन्नता है। बात यह है कि संसार में देखा जाता है कि पग-पग पर व्यवहारिकता में विपरीतताएं अनुभव में आती है। लेकिन विद्वानों का एवं साधुओं का कर्तव्य है कि जन-जन के अनुकूल प्रवचन न दे करके शास्त्र के अनुकूल ही बोलना चाहिए। एक बार मेरे सामने कलकत्ता में प्रश्न आया कि माताजी आपको ऐसा प्रवचन करना चाहिए जिससे समाज में शांति भंग न हो, किसी प्रकार से किसी को अशांति न हो, तब मैंने कहा-भैय्या! देखो, शांति में धर्म नहीं है, धर्म में शांति है। अब किसी को बुरा लग जाये, तो लग जाये, कोई प्रवचन ऐसा हो सकता है जो लोगों को कटु लगे। अरे भाई बात यह है कि चोर को चांदनी नहीं सुहाती है अत: अभी हम गृहस्थी के सामने वैराग्य का उपदेश दें तो उनको कम अच्छा लगता है। तत्त्व के उपदेश में भी कहीं मतभेद हो जाता है। वहाँ पर थोड़ा विषय पंथवाद का भी था और थोड़ा निश्चय और व्यवहार का भी था। कतिपय व्यक्ति निश्चयाभासी थे। वे चाहते थे मेरे अनुकूल माताजी बोलें लेकिन मैं वहाँ व्यवहार का समर्थन करती थी। व्यवहार और निश्चय को लेकर चलती थी क्योंकि दोनों का परस्पर में मैत्री भाव है अत: मैंने उनसे कहा कि पात्र-कटोरा आधार है घी के लिए तो पात्र में घी है ‘पात्रे घृतं न कि घृते पात्रं’ घी में पात्र नहीं है अत: धर्म में शांति है न कि शांति में धर्म। अगर शांति में धर्म मानो तो यदि आपका बेटा शराब पीता है, सिगरेट, बीड़ी पीता है, तम्बाखू, पान-मसाला खाता है उसमें कुछ भी व्यसन है, तब यदि आप उसे मना करते हैं तो शांति भंग होती है। वह अशांत होता है। भागने की, मरने की धमकी देता है, कई बच्चे भाग भी जाते हैं लेकिन ऐसे समय माता-पिता का कर्तव्य है कि बच्चे को प्रेम से, शांति से, धीरे से समझाएं। उसमें अच्छे संस्कार डालें, गुरुओं के पास ले जाएँ, बार-बार उसे तीर्थों पर ले जाएँ, उसे सत्संगति में ले जायें, जिससे उसमें अपने आप परिवर्तन आ जाये। ये सभी बातें विद्वानों को भी समझ लेनी हैं कि वे जन के अनुकूल न बोल करके जिनेन्द्र भगवान की वाणी के अनुकूल बोलें, यह सबसे बड़ी बात है। एक सूक्ति है-
सुलभा: पुरुषा: लोके, सततं प्रियवादिन:।
अप्रियस्य चापि पथ्यस्य, वक्ता श्रोता च दुर्लभा:।।
ऐसे वक्ता संसार में बहुत सुलभ हैं, जो हमेशा मधुर बोलने वाले, आपके अनुकूल बोलने वाले, आपको खुश करने वाले हैं लेकिन ऐसे वक्ता दुर्लभ हैं जिनके वचन भले ही आपको अप्रिय लगें, पर उनके वचन हितकर हों। आचार्यों ने तो साधुओं के लिए यहाँ तक कह दिया है कि जो पहले श्रावक को मुनिधर्म का उपदेश न देकर गृहस्थ धर्म का उपदेश देते हैं, वे साधु जैन शासन में निग्रह के-प्रायश्चित्त के भागी हैं अत: मुनिगण श्रावकों को पहले मुनिधर्म का उपदेश दें, अगर उनमें ग्रहण करने की शक्ति नहीं है तब श्रावक धर्म का उपदेश देंं। आज हम देखते हैं कि कहीं कुसंगतियों में पड़कर बालक शराब पीने लगता है, कहीं अण्डे को शाकाहारी कहकर खाने लगता है, अनेक प्रकार की ऐसी समस्याएं आ गई हैं। हमें उन बालकों के लिए यही प्रेरणा देनी पड़ती है कि भैय्या, आप शाकाहारी बनो, आप मंदिर जाने का नियम करो। मैं कई बार बालकों को पूछती हूँ कि आप मंदिर जाते हैं क्या? वे कहते हैं-नहीं, माताजी मुझे फुर्सत नहीं है। अरे! फुर्सत तो अपनी आत्मा के लिए निकाली जाती है, मैं उनसे पूछ बैठती हूँ कि मंदिर जाने पर भगवान तुमसे कुछ लेंगे कि देंगे? तब वे बेचारे बालक एकदम चुप हो जाते हैं या कहते हैं कि माताजी देंगे, लेंगे नहीं। अगर देंगे तो तुम प्रतिदिन मंदिर जाओ। तुम भगवान का दर्शन करके व्यापार करोगे, पढ़ाई करोगे, या कोई भी कार्य करोगे तो तुम्हें सफलता ज्यादा मिलेगी और आनंद भी आएगा। मानसिक संतुष्टि, धन की वृद्धि, विद्या की वृद्धि सब प्रकार से वृद्धि ही वृद्धि होगी, तब उन्हें विश्वास हो जाता है और वे दर्शन का नियम ले लेते हैं। बात यही है कि किसी भी तरह समझाकर आज नवयुवकों के गले धर्म को उतारना चाहिए। रात्रि भोजन त्याग के गुण उन्हें बताना चाहिए कि त्याग से क्या गुण है और रात्रि भोजन करने से क्या दोष और हानि है। रात्रि भोजन से स्वास्थ्य की हानि है, परलोक की भी हानि है और रात्रि भोजन त्याग करने से गुण ही गुण हैं। पानी छानकर पीना वैज्ञानिक दृष्टि से भी बहुत उत्तम माना है। ऐसे ही जब जैनेतर बंधुओं के बीच प्रवचन करना हो, तो उन्हें केवल शाकाहार के बारे में, व्यसन मुक्ति के बारे में ही विशेष बताना चाहिए, तभी वे उसे ग्रहण कर सकते हैं।इस प्रकार सभी विद्वानों को समयोचित इन सभी बातों को समझकर ही सभा में प्रवचन करना चाहिए। ।