अर्हन्तो मंगलं कुर्यु: सिद्धा: कुर्युश्च मंगलम्।
आचार्या: पाठकाश्चापि साधवो मम मंगलम् ।।
भव्यात्माओं! श्री समन्तभद्रस्वामी के शब्दों में सम्यग्दर्शन के बारे में मैं आपको बताती हूँ। सम्यग्दृष्टि वैâसा होता है?
सम्यग्दर्शन शुद्धा, संसार-शरीर-भोग निर्विण्णा:।
पंचगुरुचरण शरणा:, दर्शनकस्तत्त्व कथयगृह्य:।।
सम्यग्दर्शन से शुद्ध भव्यात्मा श्रावक या श्राविका कोई भी है, वह पंचपरमेष्ठी के चरणों की शरण ले लेता है अर्थात् अर्हंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु इनका परम भक्त, उपासक-इनकी आराधना करने वाला, नित्य प्रति इनकी पूजा करने वाला भव्यात्मा जीव होता है। शास्त्रों में बतलाया है कि आज तक जितने भी महापुरुष हुए हैं सभी ने भगवान की भक्ति और पूजा करते हुए अपने गृहस्थ धर्म को सार्थक किया है। प्रारंभ से ही आप देखें भरत चक्रवर्ती ने घर में रहते हुए प्रतिदिन भगवान की पूजा, भक्ति की है, वैâलाशपर्वत पर त्रिकालचौबीसी के मंदिर बनवाए और उनमें रत्नों की प्रतिमाएँ विराजमान कराईं।
सती सुलोचना के बारे में लिखा है कि उनने भी मंदिर बनवाए एवं उनमें रत्नों की प्रतिमाएँ विराजमान कराईं। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचंद्र जी ने भी कुंथलगिरि पर्वत पर अनेकों जिनमंदिर बनवाए और उनमें अनेकों जिनप्रतिमाएँ विराजमान करवाकर उनकी खूब पूजा, भक्ति, आराधना की है और भी वर्णन आता है कि महाराजा दशरथ ने भरत चक्रवर्ती के द्वारा वैâलाशपर्वत पर बनवाए गए जिनमंदिरों का जीर्णोद्धार कराया था। हरिषेण चक्रवर्ती ने अनेकों जिनमंदिर बनवाए थे। यह परम्परा अनादिकाल से चली आ रही है। आज कुछ लोग कहते हैं कि मूर्ति बनाने की परम्परा अर्वाचीन है किन्तु यह गलत है। मूर्तियाँ तो अकृत्रिम अनादिनिधन भी हैं। मध्यलोक में ४५८ अकृत्रिम जिनमंदिर हैं जिनमें १०८-१०८ जिनप्रतिमाएँ अनादि-अनिधन-शाश्वत है। सुमेरु पर्वत आदि शाश्वत हैं।
पद्मासन प्रतिमा, नासाग्रदृष्टि, सौम्यछवि, वीतराग मुद्रा में जिनप्रतिमाओं की आकृति दो आसन में दिखती हैं-एक खड्गासन और एक पद्मासन मुद्रा में। कृत्रिम प्रतिमाओं की परम्परा काल प्रवाह की अपेक्षा तो अनादि है अर्थात् चतुर्थकाल में तो हमेशा चक्रवर्ती आदि महापुरुष जिनप्रतिमाओं का निर्माण करवाते ही रहे हैं। पंचमकाल में भी अनेकों महापुरुषों ने अनेकों जिनप्रतिमाएँ विराजमान कराई हैं। अनेकों पर्वत पर, मंदिरों में, पर्वतों के शिलाखण्डों में उत्कीर्ण कराई हैं। प्रतिमाएँ रत्नों की, पाषाण की, धातु की, सोने-चाँदी की बनाई जाती हैं, उनकी पंचकल्याणक प्रतिष्ठा होती है और वे पूज्य हो जाती हैं। इन सभी अकृत्रिम-कृत्रिम जिनप्रतिमाओं की भक्ति महान पुण्य का बंध कराती है। शास्त्रों में पंचपरमेष्ठी की मूर्ति का भी वर्णन है अर्थात् अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधुओं की भी मूर्ति का वर्णन है। श्रुतदेवी यानि सरस्वती माता की मूर्ति का भी वर्णन है जो कि द्वादशांग के रूप में मानी गई हैं।
बारह अंगंगिज्जा, दंसणतिलया चरित्तवत्थहरा।
चोद्दसपुव्वाहरणा, ठावे दव्वाय सुयदेवी।।
द्वादशांगरूप श्रुतज्ञान से जिनके शरीर का निर्माण माना गया है, ऐसी रचना का वर्णन प्रतिष्ठातिलक आदि ग्रंथों में मिलता है। देखा जाये तो जिनेन्द्र भगवान की भक्ति कामदुहि-कामदायिनी अर्थात् इच्छानुसार फलों को देने वाली है। मन को पराङ्मुख कराने वाली अर्थात् विषय भोगों से प्राणियों का मन हटाने वाली है। ‘जल तें भिन्न कमल है’ जैसे कमल जल से भिन्न हैं, उसी प्रकार जो श्रावक उदासीन भाव से गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी अपनी आवश्यक क्रियाओं का पालन करता है, तो वह श्रावक समाधिपूर्वक मरणकर सोलहवें स्वर्ग तक को प्राप्त कर सकता है। यही कारण है पद्मपुराण (जैन रामायण) में कहा है यह गृहस्थ धर्म मुनिधर्म का लघु भ्राता है। पंचपरमेष्ठी की आराधना, भक्ति करने वाला भव्य प्राणी अपने अनेक प्रकार के मनोरथों को सफल कर लेता है।
मैना सुन्दरी ने जब अपने पति के कुष्ट रोग को दूर करने में अनेक प्रकार की औषधियों का प्रयोग करके भी सफलता नहीं प्राप्त की, तब उसने एक दिन मंदिर में गुरु के दर्शन करके उनसे प्रश्न किया-भगवन्! हमारे पति के और उनके साथ में ५०० योद्धाओं के जो कुष्ट रोग हैं, वो वैâसे दूर होंगे? तब मुनि ने उसे सम्बोधित करते हुए कहा-बेटी! तू सिद्धचक्र की उपासना कर, सिद्धचक्र मण्डल विधान करके सिद्धचक्र यंत्र और भगवन्तों के अभिषेक का जल अर्थात् गंधोदक ला करके कुष्ट रोगियों पर छिड़केगी तो निश्चित ही इनका यह कुष्टरोग समाप्त हो जायेगा। मैना सुन्दरी ने वैसा ही किया और उसका साक्षात् फल प्राप्त किया। सिद्धचक्र विधान में यह भजन बहुत प्रसिद्ध है-
श्री सिद्धचक्र का पाठ, करो दिन ठाठ बाठ से प्राणी,
फल पायो मैना रानी।
देखा जाये तो ऐसे बहुत से उदाहरण शास्त्रों में भरे पड़े हैं। जिन्हें मैं अनेकों बार सुनाया करती हूँ। एक घटना मैं आपको और बताती हूँ-पोदनपुर के राजा विजयनरेश, जब उन्हें निमित्तज्ञानी से विदित हुआ कि उनकी आयु मात्र सात दिन की शेष रह गई है, आज से सातवें दिन उनके सिर पर वङ्का गिरेगा और वे मृत्यु को प्राप्त हो जायेंगे, तब उन्होंने मंत्रियों से मंत्रणा करके सात दिन तक लगातार जिनमंदिर में बैठकर भगवान की पूजा-आराधना किया, अखण्ड अनुष्ठान किया। सातवें दिन जब वङ्कापात की घड़ी आने वाली थी तब उन्होंने ध्यानमुद्रा में बैठकर भगवान का स्मरण किया। वे ध्यान मुद्रा में अपनी आत्मा का ध्यान कर रहे थे कि आकस्मिक आकाश में बादल घिर आये, घटाघोट बिजली की गर्जना और वङ्कापात हुआ। भव्यात्माओं! उत्तरपुराण में कथा वर्णित है कि वह वङ्कापात राजसिंहासन पर हुआ। राजसिंहासन पर मंत्रियों ने एक यक्ष की पत्थर की मूर्ति विराजमान कर दी थी अत: उस मूर्ति पर वङ्कापात हुआ और जिनेन्द्रदेव की भक्ति से राजा की अकाल मृत्यु टल गई।
अकाल मृत्यु का योग मनुष्यों और तिर्यंचों के माना गया है। देवों और नारकियों की अकाल मृत्यु नहीं होती है। अकाल मृत्य को अपमृत्यु भी कहते हैं। मनुष्यों के अपमृत्यु का योग आ सकता है पर उसे टाला भी जा सकता है। यही कारण है कि शास्त्रों में अनेक प्रकार की औषधियों के प्रयोग वर्णित हैं। औषधालय, चिकित्सालय, शल्य चिकित्सालय अनेक प्रकार के उपायों से रोग को दूर करके, असाता को शमन करके, अकाल मृत्यु से बचा लेते हैं। सभी के अकाल मृत्यु का योग नहीं टाला जा सकता। किन्हीं-किन्हीं के अकाल मृत्यु का योग टाला जा सकता है। विशेष धर्माराधना से, पुण्य प्रभाव से, मृत्युंजय विधान के अनुष्ठान से, मृत्युंजय जाप्य से, मृत्युंजय यंत्र से अकालमृत्यु टाली जा सकती है, ऐसा शास्त्रों में वर्णन है।
विचार करके देखा जाये तो भगवान की भक्ति एक ऐसी अमोघ शक्ति है जिसे सहज दूर नहीं किया जा सकता, इसका फल निश्चित ही मिलेगा। भगवान की भक्ति आपको फल देगी ही देगी। कदाचित् तीव्र कर्म का उदय है तो आज भले ही फल न मिले लेकिन कालान्तर में, कुछ दिनों के बाद, कुछ वर्षों के बाद फल मिलेगा, निश्चित है परलोक में तो मिलेगा ही मिलेगा। भगवान की भक्ति का फल कभी निरर्थक नहीं जाता है।
आज कुछ लोगों में एक प्रश्न उठ रहा है कि क्षेत्रपाल, पद्मावती, धरणेन्द्र आदि जो शासन देव देवी हैं, इन्हें मंदिर में नहीं रखना चाहिए, इन्हें नमस्कार नहीं करना चाहिए। वस्त्रधारी आर्यिकाएँ पूज्य नहींं हैं, क्षुल्लक-क्षुल्लिकाएँ पूज्य नहीं हैं लेकिन यह बात गलत है। आप इस बात को हमेशा ध्यान में रखना। आप ग्रंथों को, जिनवाणी को, वस्त्र में अच्छी तरह से बांध कर रखते हैं, फिर भी वस्त्र सहित उनकी पूजा करते हैं, उन्हें नमस्कार करते हैं। चूँकि वह जिनवाणी है, जिनेन्द्र भगवान की वाणी है उसी प्रकार से आर्यिकाएँ भी उपचार से महाव्रती हैं। मुनियों के समान वे पूज्य हैं उनकी नवधाभक्ति की जाती है ऐसा ग्रंथों से सिद्ध है। मूलाचार आदि ग्रंथों में मुनियों के समान आर्यिकाओं की चर्या मानी है। समाचारी विधि भी मुनियों के समान आर्यिकाओं की मानी है। चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज की परम्परा में तो बराबर आर्यिकाओं की नवधाभक्ति आदि की विधि चली आ रही है। शास्त्रों में भी आर्यिकाओं की पूजा के विधान हैं।
यह प्रश्न उठता है कि यक्ष-यक्षिणी चतुर्थ गुणस्थानवर्ती है अत: पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक उनकी वैâसे पूजा करें, उनको वैâसे अर्घ्य चढ़ाएँ आदि। लेकिन मैं तो यही जानती हूँ कि शास्त्रों में जो वर्णन है, उन पर यह अनेक प्रकार के तर्क नहीं उठाना चाहिए। हजारों वर्ष पूर्व श्री पूज्यपादस्वामी एक महान आचार्य हुए हैं, उनके द्वारा रचित सर्वार्थसिद्धि ग्रंथ, समाधिशतक आदि ग्रंथ प्रसिद्ध हैं, जैनेन्द्र व्याकरण भी प्रसिद्ध है। दिगम्बर परम्परा में इन्हें महान पूज्य माना है। ऐसे पूज्यपाद स्वामी का बनाया हुआ एक पंचामृत अभिषेक पाठ उपलब्ध होता है जिसमें उन्होंने भगवान की पूजा-विधि का वर्णन करते हुए लिखा है-
भगवान की पूजा करने में प्रारंभ में १५ तिथि देवता, नवग्रह, सुरपति आदि यक्ष-यक्षिणी की स्थापना करने का विधान है। २४ तीर्थंकरों के जिनशासन देव गोमुख आदि २४ यक्ष और चक्रेश्वरी आदि २४ यक्षिणी जिनशासन देवी मानी गई हैं, प्रत्येक तीर्थंकर के एक-एक शासन देव और एक-एक शासन देवी हैं। क्षेत्रपाल ५ माने हैं-मणिभद्र, भैरव आदि। इन सबको क्रम से और द्वारपाल, लोकपाल की स्थापना मंत्रों से की जानी चाहिए। उन्होंने दशदिग्पाल का मंत्र भी दिया है-
ॐ ह्रीं क्रों प्रशस्तवर्णसर्वलक्षणसम्पूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्ह सपरिवारा इन्द्राग्नियमनैऋतवरुण-वायुकुबेरेशानधरणेन्द्रसोमनाम दशदिग्पाला: आगच्छत आगच्छत संवौषट् स्वस्थाने तिष्ठत तिष्ठत ठ: ठ: मम अत्र सन्निहिता भवत भवत वषट् इदं अर्घ्यं पाद्यं गृण्हीध्वं गृण्हीध्वं ॐ भूर्भुव: स्व स्वाहा स्वधा।यह पूज्यपाद स्वामी का दिग्पाल के आह्वान का मंत्र है, उनको अर्घ्य चढ़ाने का मंत्र है। तो भव्यात्माओं! यह विचार करने का विषय है जब पूज्यपाद स्वामी जैसे महान आचार्य दिग्पालकों के, यक्ष-यक्षिणी के आह्वान के मंत्र, अर्घ्य चढ़ाने के मंत्र दे सकते हैं जो कि ग्रंथों में वर्णित हैं तो इसे मिथ्यात्व कहना और इन देव-देवी को मंदिर से हटाने का आदेश देना मैं समझती हूँ यह आगम से विपरीत है, उचित नहीं है। किसी को भी ऐसा नहीं करना चाहिए। आप देखिए! जितने भी प्राचीन मंदिर हैं चाहे दक्षिण में हों चाहे उत्तर में, प्राय: सभी जगह क्षेत्रपाल, पद्मावती माता की मूर्ति मिलती हैं। बड़वानी में भगवान ऋषभदेव की ८४ फुट ऊँची प्रतिमा जो कि पाषाण में उत्कीर्ण हैं, उनके आजू-बाजू में गोमुख यक्ष और चक्रेश्वरी देवी भी विराजमान हैंं। भगवान पार्श्वनाथ के शासनदेव धरणेन्द्र देव और शासन देवी पद्मावती माता हैं इनकी मान्यता आज पूरे भारत में चाहे उत्तर हो या दक्षिण, पूरब हो या पश्चिम, सर्वत्र प्रत्येक मंदिरों में प्राय: विशेषरूप से देखी जाती है। यह शासन देव-देवी हमेशा धर्म की रक्षा करने वाले माने गये हैं। इन्हें भगवान अर्हंत देव या सिद्ध मानकर पूजा नहीं करते हैं। इन्हें शासन देव मानकर ही इनकी आराधना करते हैं। इनकी उपासना की पद्धति में अन्तर है जिसे आपको ग्रंथों से समझ लेना चाहिए।
भगवान की पूजा करते समय जब हम जल चढ़ाते हैं तो बोलते हैं-ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
लेकिन शासन देव-देवी के सामने जल चढ़ाते हुए जलधारा छोड़ेंगे तो उसमें जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जलं………नहीं कहेंगे क्योेंकि अभी उनका जन्मजरामृत्यु नहीं नष्ट हुआ है अत: वे आपका भी नहीं नष्ट कर सकते अत: उन्हें जल चढ़ाते समय मंत्र बोलेंगे-
श्री पद्मावती देव्यै इदं जलं समर्पयामि स्वाहा।
आप उन्हें अष्टद्रव्य समर्पित करते हैं जिससे आपके गार्हस्थ्य जीवन में आने वाले या संसार में आने वाले अनेक प्रकार के विघ्नों को वे दूर कर सकते हैं। यह एक नियोग है, विधि है, आगम की आज्ञा है। मैं समझती हूँ कि आगम की आज्ञा का उल्लंघन करने से और पूज्यपाद जैसे महान आचार्यों की अवहेलना करने से अवश्य मिथ्यात्व आ जाता है अत: विचार करके देखा जाये तो जिनशासन देवी-देवताओं की मान्यता, उपासना या भक्ति मिथ्यात्व नहीं है। बल्कि आज किसी न किसी रूप में घर-घर में प्राय: मिथ्यात्व डेरा डाले हुए है, कहीं किसी ने घर में मिट्टी के लक्ष्मी-गणेश को स्थापित कर रखा है, कहीं आफिस में, घरों में, कहीं दुकानों पर लक्ष्मी-गणेश की मूर्ति दिखती है। कोई विद्या के लिए, कोई धन के लिए वैष्णव देवी जा रहे हैं। कोई दुर्गादेवी की उपासना कर रहे हैं और न जाने कहाँ-कहाँ जाते हैं। कहीं हनुमान को प्रसाद चढ़ा रहे हैं। पता नहीं क्या-क्या मिथ्यात्व करते हैं। कोई छिपकर करते हैं, कोई खुलेआम करते हैं। यहाँ तक कि कोई पीर परचादर चढ़ाते हुए भी देखे गये हैं।
ऐसी स्थिति में अगर अपने गार्हस्थ्य जीवन में समस्याओं के समाधान के लिए कोई भी शासन देव-देवी की भक्ति करता है तो वह मिथ्यात्व नहीं है, यह निश्चित है। जैन ग्रंथों के अनुसार-तिलोयपण्णत्ति आदि ग्रंथ, उमास्वामी श्रावकाचार, वसुनन्दिश्रावकाचार के आधार से और भी अनेक श्रावकाचार ग्रंथों से, प्रतिष्ठातिलक आदि ग्रंथों से, पूज्यपाद स्वामी के अभिषेक पाठ की व्यवस्था से इसे मिथ्यात्व नहीं कहना चाहिए।
सम्यग्दृष्टि का लक्षण बताते हुए कहा है-सम्यग्दृष्टि पंचपरमेष्ठी की शरण लेता है। यथाशक्ति और आगम की आज्ञा के अनुरूप शासन देव-देवी की आराधना करता है। साथ ही आर्यिकाओं की भक्ति और पूजा भी करता है। क्षुल्लक और क्षुल्लिकाओं को भी अर्घ्य चढ़ाता है। अनेक जगह शास्त्रों में ऐसा वर्णन आया है।
जिनके मन में अनेक प्रकार की शंकाएँ उठती हैं तो मैं समझती हूँ कि उन्हें परम्परागत प्राचीन जो चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी की परम्परा के साधुवर्ग हैं, उनके निकट पहुँच करके और ग्रंथों का अवलोकन करके समाधान प्राप्त करना चाहिए।
सम्यग्दर्शन के २५ मलदोष माने गये हैं। नि:शंकित आदि आठ अंग हैं। उन अंगों से विपरीत-जिनेन्द्र भगवान के वचनों में शंका करना, भोगों की आकांक्षा करना, गुरुओं के मलिन शरीर को देखकर ग्लानि करना आदि आठ दोष और ज्ञान का मद, पूजा, कुल आदि का मद ये ८ मद माने गये हैं। छ: आयतन माने गये हैं। देव-शास्त्र-गुरु और उनके भक्त अर्थात् इन्हें मानने वाले ये तो आयतन हैं और इसके विपरीत जो उपासना के योग्य न हो वे अनायतन कहलाते हैं। कुदेव, कुशास्त्र, गुरु और इनको मानने वाले, ये छ: अनायतन हैं। तीन मूढताएं-देवमूढ़ता, गुरुमूढ़ता और पाखंडिमूढ़ता है। इन मूढ़ताओं से अपने आपको दूर रखना चाहिए। आज मूढ़ताएं इतनी प्रसिद्ध हैं-कहीं-कहीं बालू का ढेर लगाते हैं और उसे नदी में विसर्जित कर देते हैं और वे समझते हैं कि हमने बहुत बड़ा पुण्य संचित कर लिया। कोई वृक्षों की पूजा कर रहे हैं, उसमें तमाम सिंदूर आदि लेपते हैं, न जाने क्या-क्या फूल-फल चढ़ाकर उपासना करते हैं, प्रदक्षिणा देते हैं। यह वृक्षों की पूजा, बालू के ढेर की पूजा, जहाँ-तहाँ पत्थरों की पूजा आदि अनेक प्रकार की कल्पनाएँ, मूढ़ताओं में गर्भित हैं।
इन मूढ़ताओं से और मिथ्यात्व से अपने आपको बचाते हुए जो जैनशासन में वर्णित देव-देवी हैं, उनकी उपासना करने वाले सम्यग्दृष्टि अपने सम्यग्दर्शन को मलिन नहीं करते हैंै। देखा जाये तो २५ मलदोषरहित सम्यग्दर्शन ग्राह्य है। इस सम्यग्दर्शन को धारण करने वाला व्यक्ति हमेशा-‘संसारशरीरभोगनिर्विण्णा’ अर्थात् संसार, शरीर और भोगों से उदासीन रहता है। ‘जगत्काय स्वभावौ वा संवेग वैराग्यार्थम्’ संसार के स्वरूप का चिंतन करता है, संवेग और वैराग्य को बढ़ाता है, भोग को भुजंग के समान समझता है।
जहाँ देह अपनी नहीं, तहाँ न अपना कोय।
घर संपत्ति पर प्रकट है, पर हैं परिजन लोय।।
सम्यग्दृष्टि का हमेशा यही चिंतन चलता है कि यह संसार असार है, जहाँ पर शरीर ही अपना नहीं है, वहाँ परिवार के लोग, सगे-संबंधी, धन वैभव, दुकान, मकान आदि अपने वैâसे हाे सकते हैं?
जहाँ शरीर ही अपना नहीं है, वहाँ शरीर के आश्रित कुटुम्ब परिवार आदि अपने वैâसे हो सकते हैं, ये तो सर्वथा अपने से पृथक् हैं इत्यादि संसार के स्वरूप का चिंतन करता रहता है। संसार के भोग क्षणिक हैं, क्षणभंगुर हैं, दुर्गति में ले जाने वाले हैं, अनंत संसार में परिभ्रमण कराने वाले हैं। अनंतकाल से मैंने इनका अनुभव किया है, इन्हें भोगा है, ये उच्छिष्ट के समान नि:स्सार हैं ऐसा चिंतन करते हुए संसार, शरीर, भोगों से उदासीन होना चाहिए। शरीर का स्वभाव वैâसा है? तो आचार्यों ने लिखा है-
पोषत तो दुख दोष करे, अति सोषत सुख उपजावे।
दुर्जन देह स्वभाव बराबर, मूरख प्रीति बढ़ावे।।
यह शरीर दुर्जन के समान है इसका जितना-पोषण करेंगे, उतना-उतना ही दुख को उत्पन्न करेगा और पाप का आश्रव कराएगा और जितना-जितना शोषण करेंगे-तपस्या आदि के द्वारा सुखायेंगे, उतना-उतना ही यह पुण्य का आस्रव कराएगा और आपको सुगति की ओर-स्वर्ग, मोक्ष की ओर ले जाने वाला होगा।
आचार्य श्री पूज्यपाद स्वामी ने इष्टोपदेश में कहा है-
यज्जीवस्योपकाराय, तद्देहस्यापकारकम्।
यद्देहस्योपकाराय, तज्जीवस्यापकारकम्।।
अर्थात् जिन क्रियाओं से शरीर का उपकार होता है उनसे आत्मा का अपकार होता है और जिनसे आत्मा का उपकार होता है उनसे शरीर का अपकार होता है, यह प्रत्यक्ष देखने में आता है। तभी जैन शासन में क्या प्रत्येक शासन में, प्रत्येक सम्प्रदाय में उपवासों का, व्रतों का महत्व बतलाया गया है इसीलिए व्रत आदि किये जाते हैं।
देखा जाये तो संसार, शरीर और भोगों से उदासीनता रखते हुए, मन में विरक्त भाव रखते हुए जो श्रावक गृहस्थ आश्रम में रहते हैं, पंचपरमेष्ठी की भक्ति आराधना करते हैं, सम्यग्दर्शन से शुद्ध वे भव्यात्मा अपने जीवन को सार्थक कर लेते हैं, अपने मनुष्य पर्याय को धन्य कर लेते हैं, एक दिन परम्परा से मोक्ष के अधिकारी बन जाते हैं, सल्लेखनापूर्वक मरण करके वे निश्चित ही स्वर्ग को प्राप्त कर सकते हैं, इसलिए गृहस्थ धर्म भी किसी दृष्टि से सर्वथा हेय नहीं है, बल्कि उपादेय भी है। गृहस्थाश्रम में रहते हुए, धन का संचय करते हुए उस धन को भगवान की भक्ति में, गुरुओं की भक्ति में, तीर्थयात्रा में लगाते रहना चाहिए, यही इस धन की एवं समय की सफलता है और यही मनुष्य जीवन की सार्थकता है। इसी प्रकार से अपने गार्हस्थ्य जीवन को आप लोग भी सफल करें, यही मेरी मंगल प्रेरणा है।