इस प्रकार मुनियों ने जब बड़ी शान्ति और गम्भीरता के साथ स्तुति कर गणधर महाराज से प्रार्थना की तब उन्होंने उनके अनुग्रह में अपना चित्त लगाया—उस ओर ध्यान दिया।।८४।। इसके अनन्तर जब स्तुति से उत्पन्न होने वाला कोलाहल शान्त हो गया और सब लोग हाथ जोड़कर पुराण सुनने की इच्छा से सावधान हो चुपचाप बैठ गये तब वे भगवान् गौतमस्वामी श्रोताओं को संबोधते हुए गम्भीर मनोहर और उत्कृष्ट अर्थ से भरी हुई वाणी—द्वारा कहने लगे। उस समय जो दाँतों की उज्ज्वल किरणें निकल रही थीं उनसे ऐसा मालूम होता था मानो वे शब्द सम्बन्धी समस्त दोषों के अभाव से अत्यन्त निर्मल हुई सरस्वती देवी को ही साक्षात् प्रकट कर रहे हों। उस समय वे गणधर स्वामी ऐसे शोभायमान हो रहे थे जैसे भक्तिरूपी मूल्य के द्वारा अपनी इच्छानुसार खरीदने के अभिलाषी मुनिजनों को सुभाषितरूपी महारत्नों का समूह ही दिखला रहे हों। उस समय वे अपने दाँतों के किरणरूपी फूलों को सारी सभा में बिखेर रहे थे। जिससे ऐसा मालूम होता था मानों सरस्वती देवी के प्रवेश के लिए रङ्गभूमि को ही सजा रहे हों। मन की प्रसन्नता को विभक्त करने के लिए ही मानो सब ओर फैली हुई अपनी स्वच्छ और प्रसन्न दृष्टि के द्वारा वे गौतम स्वामी समस्त सभा का प्रक्षालन करते हुए से मालूम होते थे। यद्यपि वे ऋषिराज तपश्चरण के माहात्म्य से प्राप्त हुए आसन पर बैठे हुए थे तथापि अपने उत्कृष्ट माहात्म्य से ऐसे मालूम होते थे मानो समस्त लोक के ऊपर ही बैठे हों। उस समय वे न तो सरस्वती को ही अधिक कष्ट देना चाहते थे और न इन्द्रियों को ही अधिक चलायमान करना चाहते थे। बोलते समय उनके मुख का सौन्दर्य भी नष्ट नहीं हुआ था। उस समय उन्हें न तो पसीना आता था, न परिश्रम ही होता था, न किसी बात का भय ही लगता था और न वे बोलते—बोलते स्खलित ही होते थे—चूकते थे। वे बिना किसी परिश्रम के ही अतिशय प्रौढ़—गम्भीर सरस्वती को प्रकट कर रहे थे। वे उस समय सम, सीधे और विस्तृत स्थान पर पर्यज्रसन से बैठे हुए थे जिससे ऐसे मालूम होते थे मानो शरीर—द्वारा वैराग्य की अन्तिम सीमा को ही प्रकट कर रहे हों। उस समय उनका बायाँ हाथ पर्यज्र् पर था और दाहिना हाथ उपदेश देने के लिए कुछ ऊपर को उठा हुआ था जिससे ऐसे मालूम होते थे मानो वे मार्दव (विनय) धर्म को नृत्य ही करा रहे हों अर्थात् उच्चतम विनय गुण को प्रकट कर रहे हों।।८५—९५।। वे कहने लगे—हे आयुष्मान् बुद्धिमान् भव्यजनों, मैंने श्रुतस्कन्ध से जैसा कुछ इस पुराण को सुना है सो ज्यों का त्यों आप लोगों के लिए कहता हूँ, आप लोग ध्यान से सुनें।।९६।। हे श्रेणिक, आदि ब्रह्मा प्रथम तीर्थंकर भगवान् वृषभदेव ने भरत चक्रवर्ती के लिए जो पुराण कहा था उसे ही मैं आज तुम्हारे लिए कहता हूँ, तुम ध्यान देकर सुनो।।९७।।