चौबीस तीर्थंकर को वंदूं माँ सरस्वती को नमन करूँ।
गणधर गुरु के सब साधु के श्री चरणों में नित शीश धरूँ।।
इस युग में कुंदकुंदसूरी, का अन्वय जगत् प्रसिद्ध हुआ।
इसमें सरस्वती गच्छ बलात्कार गण अतिशायि समृद्ध हुआ।।१।।
इस परम्परा में साधु मार्ग, उद्धारक दिग्अंबर धारी।
आचार्य शांतिसागर चारित्र—चक्रवर्ती पद के धारी।।
इन गुरु के पट्टाधीश हुये, आचार्य वीरसागर गुरुवर।
इनकी मैं शिष्या गणिनी—ज्ञानमती र्आियका प्रथित भू पर।।२।।
मैंने जिनवर की भक्तीवश, बहुतेक विधान रचे सुन्दर।
इन्द्रध्वज, कल्पद्रुम विधान, सर्वतोभद्र पूजा मनहर।।
यह ‘‘श्री जिनेन्द्रस्तुतिसंग्रह’’, रचना जिन भक्तीगंगा है।
सज्ज्ञानमती केवल करने में, एक अकेली समरथ है।।३।।
हस्तिनापुर में जंबूद्वीप आदिक रचना जगमान्य हुर्इं।
भक्तीप्रधान इस युग में तो, भक्तों को अतिशय मान्य हुर्इं।।
श्री जिनेन्द्रस्तुतिसंग्रह, भव्यों को अतिशय प्रिय होवे।
जब तक जिनधर्म रहे जग में, तब तक भक्तों का अघ धोवे।।४।।
दोहा
देव, शास्त्र, गुरु भक्ति से, तीन रत्न हों प्राप्त।
पढ़ो पढ़ावों भव्यजन, हों अनंत गुण प्राप्त।।५।।