-नरेन्द्र छंद-
तीर्थंकर के चरण कमल में, झुक-झुक शीश नमाऊँ।
सरस्वती का वंदन करके, त्रिविध साधु गुण गाऊँ।।
चौबीसों तीर्थंकर जिनवर, मंगल कर्ता जग में।
इनकी भक्ती से विधान यह, रचा सौख्यकर मैंने।।१।।
मूलसंघ में कुंदकुंद, आम्नाय प्रसिद्ध हुआ है।
गच्छ सरस्वति बलात्कार गण, इसमें मान्य हुआ है।।
श्री चारित्रचक्रवर्ती, आचार्य शांतिसागर जी।
इनके प्रथम शिष्य पट्टाधिप, गुरू वीरसागर जी।।२।।
मुझे आर्यिका दीक्षा लेकर, ज्ञानमती कर जग में।
ज्ञानामृत कण से पावन कर, सार्थक नाम दिया मे।।
तीर्थंकर भक्ती प्रसाद से, देव-शास्त्र-गुरु भक्ती।
मिली आत्मनिधि त्रिभुवन उत्तम, प्राप्त करन की शक्ती।।३।।
ब्रह्मचारी रवीन्द्र कुमार का, बारम्बार निवेदन।
चौबीसी पूजा रचने का, मंगल भाव हुआ मम।।
वीरनिवृति संवत् पचीस सौ, उन्निस मगसिर वदि में।
तेरस तिथि को पूर्ण किया यह, श्रेष्ठ विधान तभी मैं।।४।।
महावीर शासन इस जग में, जब तक मंगलमय हो।
हस्तिनागपुर में सुमेरु सह, जम्बूद्वीप स्थिर हो।।
वीरप्रभू का कमलजिनालय, त्रिमूर्ति जिनगृह तब तक।
तब तक चौबीसी विधान यह, जग में हो मंगलप्रद।।५।।
।।इति शं भूयात्।।