-नरेन्द्र छंद-
वीरनाथ अंतिम तीर्थंकर, जिनका शासन अब है।
जिनका नाम लेत ही तत्क्षण, क्षय होते अघ सब हैं।।
उनके शासन के अनुयायी, कुन्दकुन्द गुरु मानेें।
गच्छ सरस्वति विश्वप्रथितगण, बलात्कार भी जानें।।1।।
उस ही परम्परा के )षिवर, शंातिसागराचार्या।
जिनके शिष्य वीरसागर ने, गुरूपट्ट को धर्या।।
ऐसे सूरि वीरसागर के, चरण कमल में आके।
‘ज्ञानमती’ हो गई तभी मैं, आर्यिकाव्रत को पाके।।2।।
अल्पबु(ि भी गुरुप्रसाद से, शब्द ज्ञान कुछ पाया।
कष्टसहड्डी अष्टसहड्डी, का अनुवाद रचाया।।
नियमसार आदिक ग्रन्थों का, हिंदी अर्थ किया है।
न्यायसार आदिक पुस्तक लिख, शास्त्राभ्यास किया है।।3।।
अनुपम श्रेष्ठ ‘इन्द्रध्वज’ आदिक प्रथित विधन रचे हैं।
प्रभु की अमित भक्ति ही उसमें, कारण मात्रा लखें हैं।।
पंचपरमगुरु पदपंकज की, भक्ति असीम हृदय में।
उनके लेश गुणों की भक्ती, गुण का करे उदय में।।4।।
हस्तिनागपुर क्षेत्रा पुण्यभू, सुरनर मुनिगण अभिनुत।
वीर अब्द पच्चीस शतक त्राय, वर्षायोग सुप्रस्तुत।।
आश्विन शुक्ला दशमी तिथि में, संस्तव पूर्ण किया मैं।
निजभावों को निर्मल करके, दुर्गति चूर्ण किया मैं।।5।।
-दोहा-
ख्याति लाभ पूजादि की, वांछा नहिं लवलेश।
‘ज्ञानमती’ कैवल्य हितु, संस्तव रचा विशेष।।6।।
यावत् जिनशासन अमल, जग में रहे प्रधन।
तावत् परमेष्ठी स्तवन, सबको दे सज्ज्ञान।।7।।