—दोहा—
तीर्थंकर को नित नमूँ, नमूँ सरस्वति मात।
गौतमादि गणधर नमूँ, नमूँ साधु जग तात।।१।।
कुंदकुंद आम्नाय में, गच्छ सरस्वति मान्य।
बलात्कारगण ख्यात में, हुये सूरि जग मान्य।।२।।
इस युग के चूड़ामणी, शांतिसागराचार्य।
चारितचक्री धर्मधुरि, हुये प्रथम आचार्य।।३।।
इनके पट्टाधीश थे, वीरसागराचार्य।
मुझे आर्यिका व्रत दिया, नाम ज्ञानमति धार्य।।४।।
वीर संवत् पच्चीस सौ, चालीस अतिशय युक्त।
स्वकृत कृती से संकलन, किया हृदय श्रुतभक्ति।।५।।
वीरशासन जयंती, जैनपर्व विख्यात।
श्रावणकृष्णा प्रतिपदा, मन में कर श्रुत वास।।६।।
द्वादशांग वाणी स्तवन, पूर्ण किया श्रुतप्रीति।
हे श्रुतमात:! दो मुझे, जिनवर वच नवनीत।।७।।
जब तक श्रीजिनधर्म यह, जग में करे प्रकाश।
तब तक ‘गणिनी ज्ञानमति’, कृत स्तोत्र सुखराशि।।८।।
इस जग में जिनभक्त के, मन में करे प्रमोद।
द्वादशांग स्तोत्र यह, जग को दे आलोक।।९।।