श्री वीरप्रभू निर्वाण वर्ष, पच्चिस सौ तेंतिस सुखकारी।
आश्विन शुक्ला१ दशमी की तिथि है, जग में अति मंगलकारी।।
उस दिन विधान यह पूर्ण किया, निजगुरु की छत्रच्छाया में।
शुभ तीर्थ हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप की शीतल छाया में।।१।।
बीसवीं सदी के प्रथम सूरि, आचार्य शांतिसागर जी थे।
उन प्रथम शिष्य अरु पट्टसूरि, आचार्य वीरसागर जी थे।।
उनकी शिष्या गणिनी माता, श्री ज्ञानमती जी कहलाईं।
इस युग की पहली बालब्रह्मचारिणी मात वे बन आईं।।२।।
इनकी शिष्या आर्यिका चन्दनामती नाम मैंने पाया।
गुरुचरणों की रज पाकर मेरी, सफल हुई नश्वर काया।।
इनके ही आशीषों से मैंने, इस विधान को रच डाला।
कल्याण का मंदिर इसे कहें, या सर्वसिद्धि करने वाला।।३।।
यूँ तो गणिनी श्री ज्ञानमती, माता ने कई विधान दिये।
ढाई सौ से भी अधिक ग्रंथ, लिखकर निज-पर उपकार किये।।
उनसे प्रेरित होकर मैंने भी, भक्ती के कुछ क्षण पाये।
भक्तामर अरु नवग्रहशांति के, लघु विधान तब रच पाये।।४।।
तीर्थंकर जन्मभूमि एवं, है मनोकामनासिद्धि पाठ।
षट्खण्डागम सिद्धान्त सुचिंतामणि टीका का अनुवाद।।
हे प्रभु! ऐसी ही ज्ञानसाधना, की मुझमें वृद्धी होवे।
बस यही ज्ञान हो पूर्ण ज्ञान, जिससे आतमसिद्धी होवे।।५।।