ऋषभदेव तीर्थेश को नमूँ अनंतों बार।
चक्री भरत प्रभु सिद्ध को, नमूँ भक्ति उरधार।।१।।
चौबीसों तीर्थेश युत, ह्रीं नमूँ अतिशायि।
पंचवर्णयुत बिम्ब जिन, नमूँ नमूँ सुखदायि।।२।।
कुंदकुंद आम्नाय में, गच्छ सरस्वती मान्य।
बलात्कारगण सिद्ध है, उनमें सूरि प्रधान।।३।।
सदी बीसवीं के प्रथम, शांतिसागराचार्य।
उनके पट्टाचार्य थे, वीरसागराचार्य।।४।।
देकर दीक्षा आर्यिका, दिया ज्ञानमती नाम।
गुरुवर कृपा प्रसाद से, सार्थ हुआ कुछ नाम।।५।।
वीर अब्द पच्चीस, सौ, सैंतालिस जग सिद्ध।
चैत्र कृष्ण नवमी तिथी, ऋषभ जयंती सिद्ध।।६।।
भरत जन्मदिन भी यही, आगम मान्य महान्।
लघु पुस्तक पूरण किया, सर्व संमती प्रधान।।७।।
‘‘ऋषभदेव के पुत्र भरत, से भारत’’ जग वंद्य।
पढ़ो पढ़ावो भव्यजन, ‘भरत’ विश्व अभिनंद्य।।८।।
राजधानी भारत की ये, दिल्ली जगत्प्रसिद्ध।
कनाटप्लेस में बन गया, जैन तीर्थ सुसमृद्ध।।९।।
‘‘चक्रवर्ति भगवान भरत-ज्ञानस्थली’’ अतिशायि जगमान्य।
सभी विश्व के पर्यटक, दर्श करें सुखदायि।।१०।।
जब तक जग में सौख्यकर, परम अहिंसा धर्म।
भरतप्रभू रक्षा करें, सब पावें सुखमर्म१।।११।।
‘ज्ञानमती’ वैâवल्य तक, मिले भरत चरणाब्ज।
यही भावना सफल हो, पाऊँ निज साम्राज।।१२।।