-दोहा-
ऋषभदेव को नित नमूँ, नमूँ अयोध्या तीर्थ।
हुए अनंतानंत ही, तीर्थंकर मुनिकीर्त्य।।१।।
ढाईद्वीप में पण भरत, पण ऐरावत मान्य।
उनके त्रिकाल तीर्थकर, नमत मिले सुख साम्य।।२।।
तीर्थंकर त्रयकाल के, कहे अनंतानंत।
नमूँ अनंतों बार मैं, पाऊँ सौख्य अनंत।।३।।
सदी बीसवीं के प्रथम, शांतिसागराचार्य।
उनके पट्टाचार्य थे, वीरसागराचार्य।।४।।
देकर दीक्षा आर्यिका, दिया ज्ञानमती नाम।
गुरुवर कृपा प्रसाद से, सार्थ हुआ कुछ नाम।।५।।
वीर अब्द पच्चीस सौ, उनंचास जग ख्यात।
माघ शुक्ल द्वादश तिथी, वंद्य हुई विख्यात।।६।।
अभिनंदन प्रभु जन्म तप, कल्याणक तिथि वंद्य।
प्रभु के चार कल्याण से, तीर्थ अयोध्या धन्य।।७।।
‘तीस चौबीसी तीर्थकर, नाम मंत्र’ लघु ग्रंथ।
तीर्थंकर प्रभु नाम को, नमन किया जग वंद्य।।८।।
तीस चौबीसी तीर्थंकर, प्रतिमाएं अतिशायि।
नमन करें जो भव्यजन, पावें सुख स्थायि।।९।।
लघु ग्रंथ यह पूर्ण कर, मांगू बस फल एक।
‘ज्ञानमती’ वैâवल्य हो, यही एक फल श्रेष्ठ।।१०।।
जब तक जग में स्थिर रहे, ‘परम अहिंसा धर्म’।
तीर्थ अयोध्या स्थिर रहे, भक्त लहें सुख सद्म।।११।।
।।इति प्रशस्ति।।