ऋषभदेव पदकमल में, नमूँ अनंतों बार।
तीर्थ अयोध्या को नमूँ, जन्मभूमि हितकार।।१।।
तीर्थंकर चक्री मदन, त्रय-त्रय पदवी धार।
शांति, कुंथु, अरनाथ को, नमूँ अनंतों बार।।२।।
सदी बीसवीं के प्रथम, शांतिसागराचार्य।
उनके पट्टाचार्य थे, वीरसागराचार्य।।३।।
देकर दीक्षा आर्यिका, दिया ज्ञानमति नाम।
गुरुवर कृपाप्रसाद से, सार्थ हुआ कुछ नाम।।४।।
वीर शब्द पच्चीस सौ, त्रय जगमान्य प्रसिद्ध।
हस्तिनागपुर तीर्थ पर, वर्षायोग विशिष्ट।।५।।
कुंदकुंद गुरुदेव कृत, नियमसार वर ग्रंथ।
पद्मप्रभमलधारि गुरु, कृत टीका अभिनंद्य।।६।।
इस टीका में पद्य में, कलश काव्य अतिरम्य।
संस्कृत में रचना सरल, उन्हें पृथक््â कर ग्रंथ।।७।।
भाषामय अनुवाद यह, आध्यात्मिक वर शास्त्र।
‘गणिनी ज्ञानमती’ रचित, किया पूर्ण यह शास्त्र।।८।।
जब तक जग में तीर्थ यह, हस्तिनागपुर भव्य।
आध्यात्मिक इस ग्रंथ को, पढ़ो पढ़ावो भव्य।९।।