—शंभुछंद—
तीर्थंकर समवसरण त्रिभुवन, में सर्वोत्तम अतिशायी है।
यतिवृषभाचार्य आदि वर्णित, गणधर वंदित सुखदायी है।।
इसको पढ़ते वंदन करते, प्रभु समवसरण वंदन होगा।
सीमंधर प्रभु के समवसरण का, निश्चित ही दर्शन होगा।।१।।
श्री मूलसंघ में कुंदकुंद, आम्नाय सरस्वति गच्छ कहा।
विख्यात बलात्कारगण से, गुरु आम्नायों में मुख्य रहा।
इस परम्परा के आचार्यों का, मैं नित वंदन करती हूँ।
बीसवीं सदी के प्रथम सूरि, श्री शांतिसिंधु को नमती हूँ।।२।।
उन पट्टाचार्य सुशिष्य प्रथम, श्री वीरसागराचार्य हुए।
गुरुवर्य आर्यिका दीक्षा दे, मुझ ज्ञानमती को धन्य किये।।
वीराब्द पच्चीस सौ उनतालिस१, वर पौष शुक्ल दशमी तिथि में।
यह ग्रंथ ‘समवसरण रचना’, इसको संकलित किया मैंने।।३।।
पूर्वाचार्यों के ग्रन्थों से, अमृतमय वचन ग्रहण करके।
संकलित किया ग्रंथ मैंने, अतिशय आल्हादित हो करके।
सब भव्यों को ज्ञानामृत का, आनंद मिले भावना यही।
जब तक भूपर जिनशासन है, यह ग्रन्थ सुशोभित करे मही।।४।।
-दोहा-
गणिनी ज्ञानमती ग्रथित, ग्रन्थ रहे चिरकाल।
जिनगुणसंपति देय कर, कर दे मालामाल।।५।।