मनोज कुमार, शोध छात्र गुरु गोविंद सिंह रेलीजिएस स्टडीज विभाग,
पंजाबी विश्वविद्यालय, पटियाना-१४७००२
पंजाब भारतीय आर्य भाषा
मानव जन्म के साथ भाषा का विस्तार एवं विकास अवश्य ही हुआ है है। इसी क्रम में भाषा के अनेक परिवार विकसित हुए हैं। उन परिवारों में भारोपीय परिवार प्राकृत भाषा से सम्बन्धित है। भाषा से सम्बन्धित है। भाषा के १. ईरानी २. दरद ३. आर्य परिवार हैं। इन परिवारों में से प्राकृत भाषा आर्य परिवार से सम्बन्ध रखती है। भारतीय आर्य भाषा परिवार के तीन भाग है। प्राचीन भारतीय आर्य भाषा परिवार (१६००ई.पू. से ६००ई.पू. तक) मध्यकालीन आर्य भाषा काल (६०० ई.पू. से १०० ई.पू. तक)प्राकृत स्वयं शिक्षक पृ. १ वर्तमान आर्य भाषा काल (१०० ई.पू. से वर्तमान समय तक) प्राकृत भाषा का इन तीनों कालों से किसी न किसी रूप से सम्बन्ध बना हुआ है। भाषा परिवर्तन : शब्द ध्वनि, वाक्य और अर्थ को आधार मानकर भाषा में परिवर्तन होता है। श्रुति सुख और वचन सुख को ध्यान में रखकर कहीं ध्वनि परिवर्तन और कहीं शब्द परिवर्तन होता है उदाहरण के लिये वह मेरे साथ ही है, इस वाक्य में हम वचन सुख एवं श्रुति सुख दोनों को ध्यान में रखते हुये कहते हैं, वह मेरा साथी है। प्राचीन आर्य भाषा : वैदिक भाषा प्राचीन आर्य भाषा है। प्राचीन आर्य भाषा का स्वरूप ऋग्वेद की ऋचाओं में सुरक्षित है।प्राकृत हिन्दी शब्द कोश भाग १ वेद आर्यो के प्रमुख ग्रन्थों में लोक भाषा की विशेषता जो भी प्राप्त होती है वे भी भाषा की पुरातनता को सिद्ध करती है। ध्वान्यात्मक और व्याकरणात्मक सरलीकरण की प्रवृत्ति के कारण प्राकृत भाषा लम्बे समय तक जन सामान्य के बोल चाल की भाषा रही है। महावीर, बुद्ध तथा उनके चारों ओर दूर-दूर तक के विशाल जन समूह को मातृभाषा के रूप में प्राकृत ही उपलब्ध हुई जिस प्रकार वैदिक भाषा को आर्य संस्कृति की भाषा होने का गौरव प्राप्त है, उसी प्रकार प्राकृत भाषा को आगम भाषा एवं आर्य भाषा होने की प्रतिष्ठा प्राप्त है। वह लोक के साथ-साथ साहित्य के धरातल को भी स्पर्श करने लगी। इस लिए उसे राज्याश्रय और स्थायित्य प्राप्त हुआ।प्राकृत स्वयं शिक्षक पृ. ३ प्राकृत भाषा के इस जनाकर्ष के कारण कालिदास आदि महाकवियों ने अपने नाटक ग्रन्थों में प्राकृत भाषा बोलने वाले पात्रों को प्रमुख स्थान दिया।
अभिज्ञानशाकुन्तलम् की ऋषिकन्या शकुन्तला, नाटककार भास की राजकुमारी वासवदत्त, शुद्रक की नगरवधू वसन्तसेना तथा प्राय: सभी नाटकों के राजा के मित्र, कर्मचारी आदि पात्र प्राकृत भाषा का प्रयोग करते देखे जाते हैं। इससे स्पष्ट है कि प्राकृत जन समुदाय की भाषा के रूप में प्रतिष्ठित थी। अथर्ववेद में जन भाषा के अनेक रूप प्राप्त होते हैं। महाभारत, रामायण आदि काव्यों के बाद प्राकृत एवं पाली भाषा जो अध्यात्म और साहित्य में प्रयुक्त हुई। जिसके केन्द्र आगम, त्रिपिटक एवं प्राकृत शिलालेख आदि हैं। अत: वैदिक युग से महावीर एवं बुद्ब पर्यन्त प्राकृत भाषा का विकास हुआ। प्राकृत शब्द की व्युत्पत्ति: प्राक कृत् पद से प्राकृत है। प्राकृत् शब्द का अर्थ पूर्वकृत् लोगों के व्याकरण आदि संस्कार रहित सहज/स्वाभाविक वचन व्यवहार प्रकृति है, इससे उत्पन्न जो है वह प्राकृत है। जो भाषा प्रकृति से, स्वभाव से, स्वयं ही सिद्ध है, उसे प्राकृत कहते हैं।प्राकृत हिन्दी शब्द कोष भाग १ पृ. १७ प्राकृत के भाषा प्रयोग एवं काल दृष्टि से तीन भेद किये जा सकते हैं – १. आदि युग २. मध्य युग ३. अपभंश युग आदि युग : प्राकृत भाषा जन भाषा थी। इस प्राकृत के प्रमुख पांच रूप प्राप्त होते हैं। आर्ष प्राकृत शिलालेखी प्राकृत निया प्राकृत धम्मपद की प्राकृत अश्वघोष के नाटकों की प्राकृतप्राकृत हिन्दी शब्द कोष भाग १ पृ. १९
१. आर्ष प्राकृत- आचार्य हेमचन्द्र ने आर्ष प्राकृत को ऋषि भाषित कहा है। भगवान् महावीर और बुद्ध के पश्चात् आर्ष पुरुषों, महापुरुषों और ऋषिगणों की जो भाषा थी, वह भाषा आर्ष भाषा है। महावीर और बुद्ध के वचनों को आर्ष वचन भी कहा जाता है क्योंकि उनके द्वारा जन भाषा का आश्रय लेकर लोक कल्याण के लिए उपदेश दिये गये। जिसके अर्थ को उनके शिष्यों के द्वारा सूत्रबद्ध किया गया। आयार्चो, महापुरुषों और काव्य साहित्य में प्रवीण जनों के द्वारा काव्य सृजन करके आर्ष भाषा के विकास में अत्याधिक योगदान दिया। आगमों की भाषा को आर्ष प्राकृत कहना उचित है। आर्ष प्राकृत के तीन प्रकार हैं – i पालि ii अर्धमागधी iii शौरसेनी
i पालि –भगवान् बुद्ध के वचनों का संग्रह जिन ग्रन्थों में हुआ है, उन्हें त्रिपिटक कहते हैं। इन ग्रन्थों की भाषा को पालि कहा गया है। पालि का अर्थ है, पंक्ति, परिधि या सीमा। यह पालि भाषा आर्ष है। पालि मूलत: मगध की भाषा थी। पालि को प्राकृत भाषा का ही एक प्राचीन रूप स्वीकार किया जाता है। पालि भाषा बुद्ध के उपदेशों तथा तत्सम्बन्धी साहित्य तक ही सीमित हो गयी थी। इसी कारण पालि भाषा का आगे चलकर अन्य भाषाओं की तरह विकास नहीं हुआ, यद्यपि प्राकृत की सन्तति निरंतर बढ़ती रही। पालि का साहित्य पर्याप्त समृद्ध है। अत: प्राचीन भारतय भषाओं को समझने के लिए पालि भाषा का ज्ञान आवश्यक है।
ii अर्धमागधी – यह मान्यता है कि महावीर ने अर्धमागधी भाषा में उपदेश दिये थे।भगवं च णं अद्धमागहीए भासाए धम्मं आइक्खइ-समयवायांगसूत्र पृ. ९८ उन उपदेशों को अर्धमागधी और शौरसैनी प्राकृत में संकलित किया गया है।महहद्ध विसयाभासानिबद्धं अद्धमागही, निशीथसूत्र कुछ विद्धान् इस भाषा को अर्धमागधी इसलिये कहते है कि इसमें आधे लक्षण मागधी प्राकृत के और आधे अन्य प्राकृत के पाये जाते हैं।प्राकृत भाषा और साहित्य का इतिहास पृ. ३५ iii शौरसैनी – शूरसेन प्रदेश में प्रयुक्त होने वाली जनभाषा को शौरसैनी प्राकृत के नाम से जाना गया है। अशोक के शिलालेखों में भी इसका प्रयोग है। प्राचीन आचार्यों षट्खण्डागम आदि ग्रन्थों की रचना शौसैनी प्राकृत में की है और आगे भी अनेक आचार्योंं ने शताब्दियों तक इस भाषा में ग्रंथ लिखे जाते रहे हैं। नाटकों में पात्र शौरसैनी भाषा का प्रयोग करते हैं। इसका प्रचार मध्यप्रदेश में अधिक था।
२. शिलालेखी प्राकृत – शिलालेखी प्राकृत के प्राचीनतम रूप से शिलालेखों में प्राप्त होते हैं। जन समुदाय में प्राकृत भाषा बहु प्रचलित थी और राजकाज में भी उसका प्रयोग होता था। अशोक के शिलालेख प्राकृत भाषा की दृष्टि से तो महत्वपूर्ण हैं ही, साथ ही वे तत्कालीन संस्कृति के जीते जागते प्रमाण भी हैं। खारवेल का हाथी गुफा शिलालेख, उदयगिरि एवं खण्डगिरि के शिलालेख तथा आन्ध्र राजाओं के प्राकृत शिलालेख का साहित्यिक और इतिहास की दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थान हैं। प्राकृत भाषा के अनेक रूप इन में उपलब्ध हैं।प्राकृत स्वयं शिक्षक पृ. १० खारवेल के शिलालेख में उपलब्ध नमो अरहंतानं, नमो सवसिधानं पंक्ति में प्राकृत के नमस्कार मंत्र का प्राचीन रूप प्राप्त होता है।
३. निया प्राकृत – प्राकृत भाषा का प्रयोग भारत के पड़ौसी प्रान्तों में भी बढ़ गया था। इस बात का पता, निय प्रदेश (चीनी, तुर्किस्तान) से प्राप्त लेखों की भाषा से चलता है, जो प्राकृत भाषा से समानता रखती है। इन लेखों की प्राकृत भाषा का सम्बन्ध दरदी वर्ग की तोखारी भाषा के साथ है। अत: प्राकृत भाषा में इतनी लोच और सरलता है कि वह देश विदेश की किसी भाषा से अपना सम्बन्ध स्ािापित कर सकती है।वही पृ. १०
४. धम्मपद की प्राकृत भाषा –जिस प्रकार पालिभाषा में लिखा धम्मपद उपलब्ध होता है उसी तरह प्राकृत भाषा में भी लिखा गया प्राकृत-धम्मपद उपलब्ध होता है, प्रो. एन. एच. साम्ताणी, वाराणसी ने पालि एवं प्राकृत धम्मपद का तुलनात्मक अध्ययन किया है तो तिब्बती उच्च शिक्षण संस्थान, सारनाथ से प्रकाशित हुआ है। प्राकृत धम्मपद को बी.एम. बरूआ और एस.मित्र ने सन् १९२१ में कलकत्ता से प्रकाशित किया है। यह खरोष्ठी लिपि में लिखा गया था।प्राकृत हिन्दी शब्द कोश पृ. १०प्राकृत हिन्दी शब्द कोश पृ. १०
५. अश्वघोष के नाटकों की प्राकृत – अश्वघोष के नाटकों में अर्धमागधी, शौरसैनी और मागधी भाषा की विशेषताएँ प्राप्त होती हैं। अश्वघोष का शारिपुत्र-प्रकरण ग्रन्थ प्राकृत भाषा में है। नाटकों में मागधी का प्रयोग आदिवासी भील शवर आदि करते हैं। शौरसैनी भाषा का प्रयोग स्त्रीपात और रविदूषक करते हैं। तपस्वी, योगी, साधक अर्धमागधी भाषा बोलते हैं।प्रा.हि.श. कोश पृ. ३३ इसलिये इन नाटाकें की भाषाओं का अपना महत्वपूर्ण स्थान है।
मध्य युग
प्राकृत भाषा का यह युग समस्त विधाओं से समृद्ध था। इस युग में काव्यों की बहुलता थी। इसी युग में कथा, चरित, पुराण एवं महाकाव्य आदि को पुष्पित और फलित होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। प्राकृत के इस साहित्यिक स्वरूपों को महाराष्ट्री प्राकृत कहा गया हैं। इसी युग में गुणाढ्य ने बृहत्कथा नामक कथा ग्रन्थ प्राकृत में लिखा, जिसकी भाषा पैशाची कही गयी है। इस तरह इस युग के साहित्य में प्रमुख रूप से जिन तीन प्राकृत भाषाओं का प्रयोग हुआ है वे हैं – ग् महाराष्ट्री ग्ग् मागधी ग्ग्ग् पैशाची
i महाराष्ट्री- प्राकृत महाराष्ट्री प्रान्त की जनबोली से विकसित प्राकृत का नाम महाराष्ट्री प्रचलित हुआ है। इसने मराठी भाषा के विकास में भी योगदान किया है। महाराष्ट्री प्राकृत के वर्ण अधिक कोमल और मधुर प्रतीत होते हैं, अत: विशेष रूप से यह प्राकृत काव्यो की भाषा बनकर हमारे सम्मुख आई।वही पृ. १२
ii मागधी –मगध प्रदेश की जनभाषा को सामान्य तौर पर मागधी प्राकृत कहा गया है। मागधी राज भाषा थी, अत: इसका सम्पर्क भारत की अनेक बोलियों के साथ हुआ। इसलिये पालि, अर्धमागधी आदि प्राकृतों के विकास में मागधी प्राकृत को मूल माना जाता है। इसमें अनेक लोक भाषाओं का समावेश है। मागधी का प्रयोग अशोक के शिलालेखों में हुआ है और नाटककारों ने अपने नाटकों में इसका प्रयोग किया है।प्राकृत स्वयं शिक्षक पृ. १२
iii पैशाची प्राकृत –देश के उत्तर-पश्चिम प्रान्तों के कुछ भाग को पैशाच देश कहा जाता था। वहाँ पर विकसित इस जनभाषा को पैशाची कहा गया है। प्राकृत भाषा से समानता होने के कारण पैशाची को भी प्राकृत का एक भेद मान लिया गया है। इस भाषा में बृहत्कथा को लिखा गया, किन्तु वह मूल रूप से प्राप्त नहीं है। उसके रूपान्तर प्राप्त हैं, जिस से मूल ग्रन्थ का महत्व सिद्ध होता है।प्राकृत स्वयं शिक्षक पृ. १३ इस प्रकार मध्ययुग में प्राकृत भाषा का जितना विकास हुआ, उतनी ही उसमें विविधता आयी। प्राकृत के वैयाकरणों ने साहित्य के प्रयोगों के आधार पर महाराष्ट्री प्राकृत के व्याकरण के कुछ नियम निश्चित कर दिये। उन्हीं के अनुसार कवियों ने अपने ग्रन्थां में महाराष्ट्री प्राकृत का प्रयोग किया। उसका जन जीवन से सम्बन्ध घटता चला गया और वह साहित्य की भाषा बन कर रह गयी।
अपभ्रंश युग
प्राकृत एवं अपभ्रश इन दानों भाषाओं का क्षेत्र प्राय: एक जैसा था। दोनों भाषाएं जनबोलियों से विकसित हुई हैं। दोनों ही स्वतन्त्र भाषाएं हैं। दोनों का अपना पृथक अस्तित्व है। प्राकृत में सरलता की दृष्टि से जो बाधा रह गयी थी, उसे अपभ्रंश भाषा ने दूर करने का प्रयत्न किया। कारको विभक्तियों प्रत्ययों के प्रयोग में अपभंश निरन्तर प्राकृत से सरल होती गयी है। अपभ्रंश प्राकृत, हिन्दी भाषा को जोड़ने वाली कड़ी है। महाकवि स्वयंभू अपभंश का आदिकवि कहा जा सकता है। इसके बाद महाकवि रइधू तक कई महाकवियों ने इस भाषा को समृद्ध किया।जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश अर्धमागधी प्राकृत का स्थान आदि युग की प्राकृत में है। इस प्राकृत की कुछ अपनी विशेषताएं है। भगवान महावीर ने अपना व्याख्यान अर्धमागधी प्राकृत भाषा में ही दिया था, आगम इस बात का उल्लेख करते हैं। इस समय यह भाषा लोक भाषा के रूप में प्रचलित थी। श्वेताम्बर परम्परा में मान्य आगम जिनका कि पूर्व उल्लेख किया जा चुका है वे इसी भाषा में हैं।
समीक्षा
किसी भी भाषा के व्याकरण को समझने के लिए उसके व्याकरण पक्ष का ज्ञान होना भी अति आवश्यक होता है। व्याकरण के अन्तर्गत स्वर का ज्ञान, व्यंजन का ज्ञान, स्वर परिवर्तन, व्यंजन परिवर्तन, संज्ञा विघन, संधि, समास, शब्द रूप, धातु रूप इन सब का ज्ञान होना अति आवश्यक है, इनके ज्ञान के बिना आगम शास्त्र की विशेषता को नहीं समझा जा सकता, तब उसके अंदर निहित तत्व का ज्ञान केसे किया जा सकता है।