जैन-शास्त्रों की मान्यता है कि यह सारा संसार कर्मों की विचित्र-लीला है, क्रीड़ा है, क्योंकि वे मानते हैं कि संसार की समस्त क्रियाओं के आधार ये कर्म ही हैं। यह भी तथ्य है कि जैनागमों में कर्म-सिद्धान्त का मौलिक तथा वैज्ञानिक दृष्टि से बड़ा सूक्ष्म और विस्तृत विवेचन है। इसकी विस्तृत विवेचना से जैनदर्शन की वैज्ञानिकता एवं श्रेष्ठता सिद्ध और पुष्ट होने के साथ-साथ प्रत्येक जीव की स्वतंत्र सत्ता तथा संसार में उसकी कर्माधारिता भी प्रमाणित होती है। यह सिद्धान्त वैज्ञानिक, तात्त्विक तथा तार्किक दृष्टियों से व्यक्ति के आचरण और अध्यात्म की तथा उसमें विद्यमान उसके व्यवहार की कार्य-कारण-लक्षी मीमांसा करता है तथा जीव के साथ बँधने वाले विशेष जाति के पुद्गल-स्कन्धों की विशेषरूप से बड़ी सूक्ष्म विवेचना करता है। अत: इसका परिज्ञान और पारायण एक ओर हमें कर्मों की शक्ति का बोध कराता है, तो दूसरी ओर इस अनादिकालीन कर्म-चक्र को तोड़ने-भेदने का जैनागमोक्त उचित उपाय भी बतलाता है। इस दृष्टि से जैनों का यह कर्मवाद किसी को भी भाग्यवादी बनाकर निराश और अकर्मण्य नहीं करता, अपितु आत्म-हितकारी श्रेष्ठ पुरुषार्थ करने की पावन प्रेरणा देता है। यह व्यक्ति को वर्तमान की विपदाओं, बाधाओं और कठिनाइयों को समता-मूलक परिणामों के साथ सहने की अपूर्व शक्ति देकर भावी जीवन को/भावी पर्याय को सुधारने का शुभ-सन्देश भी देता है।
सिद्धान्त-प्रतिपादक ग्रन्थों के माध्यम से वस्तुत: कर्म-विषयक जितनी तर्कपूर्ण वैज्ञानिक व सूक्ष्म विवेचना जैनदर्शन में है, वैसी अन्य दर्शनों में नहीं मिलती। यही कारण है कि करणानुयोग-प्रतिपादक षट्खंडागम, कसायपाहुड, पंचसंग्रह, कर्मप्रकृति, गोम्मटसार, लब्धिसार, क्षपणासार आदि ग्रंथराज तथा धवला, महाधवला, जयधवला एवं तत्त्वार्थसूत्र आदि की विस्तृत टीकाएँ कर्म-सिद्धान्त की विस्तृत और सूक्ष्म विवेचनाओं से भरी पड़ी हैं। अन्य जैन ग्रन्थों में भी प्रसंगानुसार इसका वर्णन मिलता है।
‘कर्म’ शब्द के अनेक अर्थ हैं, यथा-(१) कर्म कारक, (२) क्रिया, तथा (३) जीव के साथ बँधने वाले विशेष जाति के पुद्गल स्कन्ध। इनमें जीव के साथ बँधने वाले पुद्गल-स्कन्धों का विशेष प्रकार से प्ररूपण केवल जैन-सिद्धान्त ही करता है। वास्तव में ‘कर्म’ का मौलिक अर्थ तो क्रिया ही है। जीव मन-वचन-काय के द्वारा कुछ-न-कुछ करता है, वह सब उसकी क्रिया या कर्म ही है। यही योग-क्रिया है, जो परिस्पन्द-रूप से प्रति-समय होती रहती है। मन-वचन-काय आदि तीन उसके द्वार हैं। इसे जीवकर्म या भावकर्म भी कहते हैं। इसी के निमित्त से जो पुद्गल-स्कन्ध-आकार ज्ञानावरणादि भाव को प्राप्त होते हैं, वे ‘द्रव्य-कर्म’ कहे जाते हैं। भाव-कर्म/जीव-कर्म को प्राय: सभी स्वीकार करते हैं, परन्तु भाव-कर्म से प्रभावित होकर कुछ सूक्ष्म व जड़ पुद्गल-स्कन्ध जीव के प्रदेशों में प्रवेश पाते और उसके साथ बँधते हैं-यह तथ्य केवल जैनागम ही बताता है। ये सूक्ष्म पुद्गल-स्कंध ‘अजीव-कर्म’ या ‘द्रव्य-कर्म’ कहलाते हैं। ये रूप-रसादि के धारक मूर्तिक होते हैं। जैसे-जैसे कर्म यह जीव करता है, वैसे ही स्वभाव को लेकर ये द्रव्यकर्म उसके साथ बँधते हैं और कुछ काल पश्चात् परिपक्व दशा को प्राप्त होकर उदय में आते हैं। उस समय इनके प्रभाव से जीव के ज्ञानादि-गुण तिरोभूत हो जाते हैं, ढक जाते हैं, यह उनका फल-दान कहा जाता है। सूक्ष्मता के कारण ये कर्म- रूप पुद्गल-स्कन्ध दिखाई नहीं देते। जीव को जो परतन्त्र करते हैं अथवा जीव जिनके द्वारा परतन्त्र किया जाता है, उन्हें कर्म कहते हैं अथवा जीव के द्वारा मिथ्यादर्शनादि परिणामों के कारण जो किये जाते हैं, उपार्जित होते हैं, वे कर्म हैं।
साधारणत: जो किया जाता है, वह कर्म है। जैसे-खाना-पीना, चलना-फिरना, सोचना-विचारना, हँसना- खेलना, आदि। अन्य धर्म राग-द्वेष से युक्त जीव की प्रत्येक क्रिया को कर्म कहते हैं और उस कर्म के क्षणिक होने पर भी संस्कार को स्थायी मानते हैं, जबकि जैनदर्शनानुसार कर्म केवल संस्कारमात्र ही नहीं है, अपितु वस्तुभूत पदार्थ है, रागी-द्वेषी जीव की प्रत्येक क्रिया (मानसिक-वाचनिक-कायिक क्रिया) के साथ एक द्रव्य जीव के संपर्क में आता है और उसके राग-द्वेषरूप भावों का निमित्त पाकर जीव से बँध जाता है, वह कर्म है, जो आगे जाकर अच्छा या बुरा फल देता है। प्रवचनसार में भी आ. कुन्दकुन्ददेव कहते हैं- ‘‘राग-द्वेष से युक्त आत्मा जब अच्छे या बुरे कामों में लगती है, तब कर्म-रूपी रज ज्ञानावरण आदि रूप से उसमें प्रवेश करती है। ” इस तरह कर्म एक मूर्त-पदार्थ है, जो जीव के साथ बँधता है।
यह द्रव्य-कर्म का कथन है। कर्म-सिद्धान्त का समस्त वर्णन द्रव्य-कर्म- प्रधान है। पुद्गल के पिण्ड को द्रव्य-कर्म और उसमें रहने वाली फल-दान-शक्ति को भाव-कर्म कहते हैं। जो कर्म-वर्गणाएँ आत्मा के साथ बँधती हैं, वे कर्म कहलाती हैं।
(अनादिकालीन कर्मों के वशीभूत होकर) कर्म-बद्ध संसारी-जीव नाना प्रकार का विकृत परिणमन, अशुद्धभाव, राग-द्वेष तथा मोह-भाव करता है, जिससे पुद्गलपरमाणु अपने-आप कर्मरूप परिवर्तित होकर तत्काल जीव के साथ सम्बद्ध हो जाते हैं। बँधने के पूर्व इन्हें कार्मणवर्गणा कहते हैं और बँधने पर वे कर्म कहे जाते हैं। पुद्गल-जातीय २३ वर्गणाओं में से केवल ५ वर्गणाएँ ही ग्रहण के योग्य हैं- आहारवर्गणा, भाषावर्गणा, मनोवर्गणा, तैजसवर्गणा और कार्मणवर्गणा। कार्मणवर्गणा से कर्म और शेष वर्गणाओं से नो-कर्म बनते हैं। जीव के आत्म-प्रदेशों पर स्थित जो विस्रसोपचयरूप पुद्गल हैं, वे ही कर्मरूप से परिणत होते हैं। कर्म कहीं बाहर से आकर नहीं बँधते हैं। जीव के प्रदेशों के साथ बँधे कर्म और नो-कर्म के प्रत्येक परमाणु के साथ जीवराशि से अनन्तानन्तगुणे विस्रसोपचय-रूप परमाणु भी सम्बद्ध हैं, जो कर्म-रूप या नो-कर्म-रूप तो नहीं हैं, किन्तु कर्म-रूप या नो-कर्म-रूप होने के लिए उम्मीदवार हैं, उन्हें विस्रसोपचय कहते हैं।
कर्म-बन्ध में पुद्गल-परमाणु जीव द्रव्य में अन्तर्लीन/प्रविष्ट हो जाते हैं और एकक्षेत्रावगाही सम्बन्ध स्थापित कर लेते हैं। यह कर्म-बंध की प्रक्रिया है, मोक्षशास्त्र के कर्ता आचार्य श्री उमास्वामी कहते हैं- कषाय सहित होने से/ राग-द्वेष-रूप भावनात्मक परिणमन करने के कारण जीव कार्मण-वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करता है। इसी ग्रहण का नाम बन्ध है-‘‘सकषायत्वात् जीव: कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बन्ध:।” इस बन्ध का मूल कारण जीव की मनसा-वाचा-कर्मणा होने वाली विकृत परिणति है, इसी के फलस्वरूप पुद्गल द्रव्य का जीव द्रव्य के साथ संयोग/बंध कहलाता है।
अनेक जड़ परमाणुओं या वर्गणाओं का परस्पर में अथवा जीव के प्रदेशों के साथ विशेष प्रकार के घनिष्ठ संश्लिष्ट सम्बन्ध होने को बन्ध कहते हैं। इसमें दोनों ही जड़ और चेतन पदार्थ अपने शुद्ध स्वभाव से च्युत होकर किन्हीं विचित्र विजातीय-भाव-रूप विकारों को धारण कर लेते हैं। जीवों की योग तथा उपयोगात्मक क्रिया अथवा भावों का निमित्त पाकर कर्म-वर्गणाएँ जीव के आत्म-प्रदेशों के साथ द्रव्यकर्म के रूप में बँध जाती हैं।
जैविक रासायनिक प्रक्रिया से ये पुद्गल परमाणु जीव के साथ बँधते हैं। जीव और कर्म अपने स्वरूप में नहीं रहते हैं, यह बन्ध एक क्षेत्रावगाही एकाकार और अखण्ड होता है। दृष्टान्त देखिए-
आक्सीजन और हाइड्रोजन गैसें वायु-रूप हैं और अग्नि को भड़काने की शक्ति रखती हैं, परन्तु दोनों मिल जाने पर जल बन जाती हैं, जिसमें आग को भड़काने की बजाय उसे बुझाने की शक्ति आ जाती है। ऐसा बंध ही संश्लेष-बंध कहलाता है। समस्त रासायनिक प्रयोगों का आधार भी यही बंध होता है। जैसे- सोना और तांबा तथा पीतल और काँसा मिलकर एक विजातीय पिण्ड बन जाते हैं। दोनों ही धातुएँ अपने शुद्ध स्वरूप में नहीं रहतीं। इस संश्लिष्ट-बन्ध का यही वैशिष्ट्य/वैचित्र्य है कि द्रव्य के स्व- चतुष्टय ही बदलकर विजातीय-रूप धारण कर लेते हैं। वे विकारी हो जाते हैं; फलत: बंध को प्राप्त सभी जड़ परमाणुओं का तथा जीव का परिणमन एक-दूसरे की अपेक्षा रखकर होता है। यही उसका विकार है कि अपने शुद्ध स्वतंत्ररूप को छोड़कर अन्य के अधीन हो जाना ही उसका विकार है और इस प्रकार अपने कार्य में अन्य की सहायता की अपेक्षा रखने का भाव का होना ही विकार का जन्म लेना है। विकारी भाव से द्रव्य अपने शुद्ध स्वभाव से च्युत होकर विजातीय प्रकार का हो जाता है। जैसे-दूध की मिठास दही की खटास के रूप में बदल जाती है।
शंका-जीव जानने-देखने वाला और संकोच-विस्तार की शक्ति वाला अमूर्तिक द्रव्य है। जबकि कर्म जड़ हैं, मूर्तिक हैं, तब फिर मूर्तिक कर्मों का अमूर्तिक जीव के साथ बंध कैसे संभव है?
समाधान-तत्त्वार्थसार में आ. अमृतचन्द्रसूरि कहते हैं कि किसी अपेक्षा से आत्मा भी मूर्तिक है। अमूर्तिक आत्मा का द्रव्यकर्मों के साथ धारा-प्रवाही-रूप से सम्बन्ध अनादिकाल से चला आ रहा है। मूर्तिक द्रव्यकर्मों के साथ एक क्षेत्र- अवगाही अनादि सम्बन्ध होने से आत्मा भी कथंचित् मूर्तिक है। अत: कथंचित् मूर्तिक आत्मा का मूर्तिक कर्मों के साथ बंध होना संभव है। जैसे- सोना-चाँदी गलाने पर मिलकर एक-रूप हो जाते हैं। द्रव्य-संग्रह में आ. नेमिचन्द्र सिद्धान्त देव कहते हैं कि जीव में यद्यपि ५ वर्ण, ५ रस, २ गंध और ८ स्पर्श नहीं होते। अत: निश्चय से तो वह अमूर्तिक ही है, परन्तु कर्मों से बँधा होने के कारण व्यवहार से वह मूर्तिक है। अत: कथंचित् मूर्तिक आत्मा के साथ मूर्तिक कर्मों का बंध होने में कोई बाधा नहीं है।
शंका-इन पुद्गल कर्मों में ऐसी क्या शक्ति है, जो चेतन-स्वभावी आत्मा को विभाव भावों में परिणमाती है?
समाधान-जैसे-मदिरा पीने-वाले को पागल/मोहित कर देती है। वह मद्य के नशे में मदहोश होकर सब-कुछ भूल-सा जाता है, वैसे ही जड़ कर्म भी जीव को विमोहित कर अपने स्वभाव से च्युत कर देते हैं, विभाव भावों में परिणत करा देते हैं। इस सम्बन्ध में पं. टोडरमल कहते हैं-
जैसे-किसी पुरुष के सिर पर मंत्रित धूल डाल दी जाती है, तो वह उसके निमित्त से अपने को भूलकर विपरीत चेष्टा करता है, क्योंकि मंत्र के निमित्त से धूल में ऐसी शक्ति आ जाती है कि सयाना पुरुष भी विपरीत परिणमन करने लगता है। उसी प्रकार आत्म-प्रदेशों में रागादि के निमित्त से बँधे हुए जड़ कर्मों के प्रभाव से आत्मा अपने को भूलकर अनेक प्रकार के विपरीत भावों से परिणमन करती है। इसके विभाव भावों के निमित्त से जड़ कर्मों में ऐसी शक्ति आ जाती है, जो चैतन्य पुरुष को विपरीत परिणम्ााती है। चेतन-स्वभावी जीव के स्वभाव का पराभव कर यह जड़ कर्म ही मनुष्यादि पर्यायों में उत्पन्न कराता है। पद्म-पुराण में उल्लेख मिलता है कि बलों में कर्म-कृत बल ही प्रबल है- ‘‘बलानां हि समस्तानां बलं कर्मकृतं परम्” तथा बड़े खेद की बात है कि ये संसारी प्राणी इन कर्मों के द्वारा चतुर्गति में कैसे नचाये जाते हैं ?
” कष्टं पश्यत नर्त्यन्ते कर्मभिर्जन्तवः कथम्।।”
वस्तुत: संसार-दशा में सभी जीव कर्माधीन होते हैं। जैन दर्शनानुसार कर्म करने में जीव स्वतन्त्र है, परन्तु कर्मों का फल भोगने में वह कर्माधीन होता है-‘‘स्वयं किए जो कर्म शुभाशुभ, फल निश्चय ही वे देते-स्वयंकृतं कर्म यदात्मना पुरा, फलं तदीयं लभते शुभाशुभम्” आप्तपरीक्षा में भी कहा गया है कि कर्मों के द्वारा संसारी जीव परतन्त्र कर्माधीन होता है। सभी संसारी जीव अपने-अपने कर्मों से बँधे हैं, अत: कर्मों के अनुसार ही उनकी बुद्धि और प्रवृत्ति होती है, यथा-‘‘बुद्धि: कर्मानुसारिणी।” अच्छे कर्मों के अनुसार उत्पन्न बुद्धि सन्मार्ग की ओर ले जाती है। सन्मार्ग पर चलने से मुक्ति-लाभ होता है और कुमार्ग पर चलने से संसार में ही भटकना होता है। अत: बुद्धि के कर्मानुसार होने से मुक्ति की प्राप्ति में कोई बाधा नहीं आती। जयधवला, भाग- १६, पृ. १८७ पर भी कहा है कि संसारी जीव अनादिकालीन कर्म के सम्बन्ध से परतन्त्र/पराधीन है।
आत्मा के साथ कर्मों का एक-क्षेत्रावगाही संश्लेषण-सम्बन्ध हो जाने पर भी इन दोनों की सत्ता स्वतन्त्र ही बनी रहती है। वह सत्ता अव्यक्त या तिरोभूत अवश्य हो जाती है। बंध-दशा में दोनों की वैभाविक परिणति रहने से अपने- अपने स्वभाव से च्युत रहते हैं। कर्म ओर नो-कर्म से बँधकर जीव विजातीय बने रहते हैं, परन्तु सत्पुरुषार्थ से जीव जब कर्मों से पूर्ण मुक्त हो जाता है, तो पूर्ण शुद्ध होकर वह अपने स्वभाव में आ जाता है और जड़कर्म भी बंधन से मुक्त हो अपने स्वभाव को पा लेता है। जैसे-जल रासायनिक प्रयोग से ऑक्सीजन और हाइड्रोजनरूप मूल स्वभाव में आ जाते हैं। यह अवश्य है कि पूर्ण कर्म-मुक्त हुआ जीव फिर कर्मों से नहीं बँधता। जैसे-घी रूप में परिणमित फिर से दूध नहीं बनता।
अस्तु, एकक्षेत्रावगाही सम्बन्ध में रहते हुए भी जीव जीव ही रहता है और पुद्गल पुद्गल ही रहता है। दोनों अपने मौलिक गुणों को एक समय के लिए भी नहीं छोड़ते। जीव की प्रक्रिया जीव में और पुद्गल की प्रक्रिया पुद्गल में ही होती है। जीव की जीव के द्वारा और पुद्गल की पुद्गल के द्वारा प्रक्रिया सम्पन्न होती रहती है, परन्तु इन दोनों की प्रक्रियाओं में ऐसी समता/एक-रूपता रहती है कि जीव द्रव्य कभी पुद्गल की प्रक्रिया को अपनी और अपनी प्रक्रिया को पुद्गल की मान बैठता है। जीव की यही भ्रान्त मान्यता मिथ्यात्व, मोह या अज्ञान कहलाती है और यही संसार का बीज है। प्रत्येक जीव अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार अलग-अलग कर्म करता है। वह कर्म प्रत्येक जीव में भिन्न-भिन्न ढंग से स्वतन्त्ररूप से व्यक्त होता है। यही कारण है कि मानव की बाह्यरचना/बनावट एक-जैसी होने पर भी उनके आकार-प्रकार, बुद्धि वैभव, स्वास्थ्य, हाव-भाव तथा व्यक्तित्व आदि पृथक्-पृथक् होते हैं। एक ही माता की सन्तानों में भी व्यवहार, बुद्धि, आचार-विचार, अलग-अलग देखे जाते हैं इससे कर्मों की स्वतन्त्रता सिद्ध होती है।
बन्ध—दशा में जीव के स्वाभाविक गुण कर्मों से आवृत्त होने के कारण उसकी दृष्टि विकार युक्त रहती है, अत: प्रत्येक पदार्थ को जीव विपरीत देखता—जानता है और तदनुसार क्रियाएँ/चेष्टाएँ करता है, परन्तु बंध—दशा में भी जीव और कर्म—रूप पुद्गल अपने—अपने स्वाभाविक गुणों को छोड़कर अन्य रूप नहीं होते। जीव कर्म नहीं बन जाता और कर्म जीवरूप परिणत नहीं होते। अपने—अपने स्वाभाविक गुणों के साथ दोनों की सत्ता स्वतन्त्र बनी रहती है।
जब से जीव है, तभी से जीव के साथ कर्मों का संयोग भी है। चूँकि जीव अनादि हैं, अत: यह कर्म—सम्बन्ध भी अनादि है। अनादिकाल से ही ये दोनों बँधी हुई दशा में पाये जाते हैं। जैसे—सोने की खान में सोना तथा अन्य विजातीय पदार्थ अनादि से ही संयुक्त अवस्था में पाये जाते हैं। खदान में उन्हें किसी ने मिलाया नहीं है। इसी तरह किसी ने जीव के साथ कर्मों का जबरन सम्बन्ध नहीं कराया है। इस विषय में सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द शास्त्री का कथन भी इस प्रकार है—
‘‘जैन दर्शन प्रत्येक संसारी आत्मा को अनादिकाल से ही कर्मों से बद्ध मानता है। यह कर्म—बन्धन किसी अमुक समय में नहीं हुआ, अपितु अनादि से है। जैसे–खान से सोना मैल सहित ही निकलता है, वैसे ही संसारी आत्माएँ भी अनादि से कर्मों से बद्ध ही पायी जाती हैं। यदि आत्माएँ अनादिकाल से शुद्ध ही होतीं, तो—फिर उनके कर्म—बन्ध नहीं हो सकता, क्योंकि कर्म—बन्ध के लिए आन्तरिक अशुद्धि का होना आवश्यक है। इसके बिना यदि कर्मबन्ध होने लगे, तो मुक्त—आत्माओं के भी कर्म—बन्ध का प्रसंग आएगा और ऐसी दशा में मुक्ति के लिए प्रयत्न करना व्यर्थ हो जाएगा। अत: जीव और कर्मों का सम्बन्ध अनादि से है।
परमात्मप्रकाश में भी कहा है—‘‘जीवों के कर्म अनादिकाल से हैं। इस जीव ने कर्म नहीं उत्पन्न किए तथा कर्मों ने भी जीव को नहीं उपजाया, क्योंकि जीव और कर्म—इन दोनों का ही सम्बन्ध आदि नहीं, अपितु अनादि है।’’ कर्मप्रकृति में भी उल्लेख है—‘‘संसारी जीव का स्वभाव रागादिरूप से परिणत होने का है और कर्म का स्वभाव उसे रागादिरूप से परिणमाने का कहा जाता है। इस प्रकार जीव और कर्म का यह स्वभाव अनादिकालिक है; अत: दोनों की सत्ता भी अनादिकाल से है। पंचास्तिकाय में आ. कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं—जन्म—मरण के चक्र में पड़े हुए संसारस्थ प्राणी के राग—द्वेष—रूप परिणाम होते हैं। उनसे नये कर्म बँधते हैं। कर्मों से गतियों में जन्म लेना पड़ता है। जन्म लेने से शरीर मिलता है। शरीर में इन्द्रियाँ होती हैं और इन्द्रियों के विषयों का ग्रहण होता है। विषयों के ग्रहण से इष्ट विषयों में राग और अनिष्ट विषयों में द्वेष होता/करता है। इस तरह संसार चक्र में पड़े हुए जीव के भावों से कर्म—बन्ध और कर्म—बन्ध से राग—द्वेष रूप भाव होते रहते हैं। यह संसार—चक्र अभव्य जीवों की अपेक्षा अनादि अनन्त है और भव्य जीवों की अपेक्षा अनादि सान्त है।’’ निष्कर्ष रूप से कहा जा सकता है कि जीव और कर्म का सम्बन्ध अनादि है।
आचार्य उमास्वामी कर्म—जन्य शरीरों की विशेषतों बतलाते हुए कहते हैं कि औदारिक, वैक्रियक, आहारक, तैजस् और कार्माण आदि इन पाँच शरीरों में से अन्तिम दो शरीर तैजस् और कार्माण शरीर पूर्व के शरीरों से उत्तरोत्तर अनन्तगुणे—अनन्तगुणे सूक्ष्म हैं, प्रतिघात—रहित हैं, सभी संसारियों के अनादिकाल से सम्बन्धित हैं तथा अन्तिम कार्माण—वर्गणाओं से बना कार्माणशरीर भोग रहित है। निष्कर्ष-कर्म और जीव अनादिकाल से ही एक—दूसरे से सम्बद्ध हैं। पद्मपुराणकार भी संसारी प्राणियों का वर्णन करते हुए कहते हैं—‘‘अनादिकाल से बँधे हुए ज्ञानावरणादि आठ कर्मों से संसारी प्राणी की आत्म—शक्ति छिपी/ढकी हुई है। अत: अनादिकाल से ही अनेक लाख योनियों में इन्द्रिय–जनित सुख–दु:खों का सदा अनुभव करता हुआ, एक–दो—तीन—चार—पाँच इन्द्रिय जीवों में उत्पन्न होकर जन्म—मरण करता हुआ निरन्तर इस संसार में भटक रहा है। कसायपाहुड, सवार्थसिद्धि, तत्त्वार्थसार, द्रव्यसंग्रह—टीका आदि में जीव और कर्मों के सम्बन्ध को अनादिकालिक कहा गया है।
जड़ कर्म मूर्त पुद्गल और अमूर्त जीव के बीच निमित्त—नैमित्तिक भाव—रूप सम्बन्ध है। देखिए, इस संश्लिष्ट शरीर और संयोगी धन—धान्यादि पदार्थों का प्रभाव हम सभी के जीवन पर पड़ता है। इसकी प्रतीति हम—सब सदा ही करते हैं। इनके प्रति हमारी चित्त—वृत्तियाँ आकृष्ट होती हैं। शरीर में रोग या पीड़ा होने पर दु:ख होता है। इससे सिद्ध होता है कि जड़ पदार्थों में भी अमूर्तिक जीव के भावों को आकर्षित/प्रभावित करने की शक्ति विद्यमान है। यही इनके बीच निमित्त—नैमित्तिक सम्बन्ध की सिद्धि करता है।
ऐसा ही सम्बन्ध इस जीव का अन्य चेतन पदार्थों के साथ भी है। तभी तो हम पुत्र—कलत्र आदि चेतन पदार्थों के सुख में सुखी और दु:ख में दु:खी होते हैं। क्रोधी को देख भय और वीतरागी सन्त को देखकर श्रद्धा—भक्ति के भाव जाग्रत होते हैं। इससे सिद्ध होता है कि जीव का भी अन्य जीवों के भावों के साथ सम्बन्ध है, जिसे निमित्त—नैमित्तिक कहते हैं। इससे यह भी प्रकट होता है कि जीव के अमूर्तिक भावों में बाह्य जड़ पदार्थों पर तथा अन्य जीवों के अमूर्तिक भावों पर निमित्तरूप से प्रभाव डालने की सामर्थ्य है।
इनके सिवाय जीव की इच्छा का निमित्त पाकर हाथ–पाँव का संचालित होना, इच्छावान् कुम्हार द्वारा घटादि पदार्थों की उत्पत्ति होना, जड़—चेतन दोनों में परस्पर निमित्त—नैमित्तिक शक्ति को सिद्ध करते हैं।
अन्य अनेक दृष्टान्त और भी हैं, जिनसे जीव के अमूर्तिक भावों का मूर्तिक द्रव्य व भाव पर प्रभाव पड़ना प्रमाणित होता है। जैसे—भौतिक जड़ द्रव्यों, विषयों के सेवन से जीव के भावों में सुख—दु:ख का होना, सुन्दर—असुन्दर वस्तुओं के प्रति ग्रहण व त्याग का भाव होना, प्रिय—अप्रिय शब्दों को सुनकर प्रेम या क्रोध उत्पन्न होना, शराब—सेवन कर मदहोश हो जाना, क्लोरोफार्म सूँघने से अचेत हो जाना आदि से जाना जाता है कि अमूर्तिक जीव का मूर्तिक (जड़) पदार्थों के साथ निमित्त–नैमित्तिक सम्बन्ध ही है, जो वस्तु—स्वभाव के आश्रित है, किसी ईश्वरीय—व्यवस्था के अधीन नहीं है।
जीव के राग—द्वेष—मोह के परिणाम के निमित्त से पुद्गल कर्म—रूप में परिणत होते हैं और जीव भी पुद्गल कर्म के निमित्त से रागादिरूप परिणमन करता है। सम्बन्ध होने पर भी जीव कर्म के गुणों को नहीं करता, किन्तु परस्पर निमित्त—नैमित्तिक सम्बन्ध होने से दोनों के परिणाम होते हैं।
संसार का मूलभूत मिथ्याभावरूप भावकर्म तथा द्रव्यरूप में बद्ध होने वाला पुद्गल पिण्डरूप द्रव्यकर्म मूल में एक–रूप ही (भेदरहित) होता है, परन्तु बँधने के बाद ज्ञानावरणादिरूप से ८ भेदरूप तथा १४८ उत्तर प्रकृति—रूप परिणत हो जाता है। ‘‘जैसे एक बार में खाये गये एक ही अन्न का रस—रुधिर आदि सात धातु रूपों से परिणमन होता है, वैसे ही एक आत्म—परिणाम से ग्रहण किये गये पुद्गल ज्ञानावरण आदि अनेक भेद—रूप हो जाते हैं। आचार्य श्री अकलंकदेव भी कहते हैं कि जैसे एक अग्नि में दाह, पाक, प्रताप, प्रकाशरूप सामर्थ्य है, वैसे ही एक ही पुद्गल में आवरण तथा सुख—दु:ख आदि में निमित्त होने की शक्ति है, इसमें कोई विरोध नहीं है। आचार्य वीरसेन स्वामी का भी कथन है कि एक कर्म अनेक प्रकृति—रूप हो जाता है। जीव स्वयं ऐसी आठ शक्तियों वाला है कि मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योगरूप प्रत्ययों के आश्रय से जीव के साथ एक अवगाहना में स्थित कार्मण—वर्गणा के पुद्गल—स्कन्ध एक—स्वरूप होते हुए भी आठकर्मों के आकार—रूप में परिणत हो जाते हैं। जैसे—मेघ का जल पात्र—विशेष में (नीम, ईख, नदी, सरोवर आदि) पड़कर विभिन्न रसों में परिणमित हो जाता है। इसी तरह अन्य कर्मों का भी मूल और उत्तरप्रकृतिरूप से परिणमन हो जाता है।
आचार्य भास्करनन्दि का कथन है कि जैसे—खाये हुए अन्न आदि को विकारोत्पादक वात—पित्त—कफ और उससे रस व रक्त आदि परिणमनरूप भेद को करा देते हैं, वैसे ही आत्मा के परिणाम द्वारा ग्रहण किये गए पुद्गल प्रवेश करते समय ही अपनी सामर्थ्य से आवरण, अनुभवन, मोहापादन, भवधारण, नाना जातिरूप नामकरण, गोत्र और विघ्न डालने की सामर्थ्ययुक्त होने से अनेक रूप से परिणमन करते हैं।