सम्यक् जीवन शैली : स्वास्थ्य का मूलाधार – महावीर का दर्शन मौलिक रूप से स्वस्थ्य और चिकित्सा का दर्शन नहीं है, वह तो आत्मा से आत्मा का दर्शन है। परन्तु जब तक आत्मा मोक्ष को प्राप्त नहीं हो जाती तब तक, आत्मा शरीर के बिना रह नहीं सकती। शरीर की उपेक्षा कर आत्म-शुद्धि हेतु साधना भी नहीं की जा सकती। महावीर की दृष्टि में शरीर का आत्म-साधना हेतु महत्त्व होता है, इन्द्रियों के विषय भोगों के लिए नहीं। उनका अधिकाां चिन्तन आत्मा को केन्द्र में रख कर हुआ, परन्तु उन्होंने शरीर के निर्वाह हेतु केवल ज्ञान के आलोक में जिस सम्यक् जीवन शेली का कथन किया, वह स्वत: मानव जाति के स्वास्थ्य का मौलिक शास्त्र बन गया।
जीवन हेतु प्राण आवश्यक – जिस शक्ति विशेष द्वारा जीवित रहता है अर्र्थात् जीवन जीने की शक्ति को प्राण कहते हैं। संसार में दो तत्त्व मुख्य होते हैं। प्रथम- जीव या आत्मा अथवा चेतन और दूसरा अजीव अथवा जड़ या अचेतन। इन तत्त्वों से ही संपूर्ण ब्रह्माण्ड की संरचना होती है। इसी आधार पर ऊर्जा को भी मोटे रूप में दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। पहली चैतन्य अथवा प्राण ऊर्जा और दूसरी भौतिक ऊर्जा। जिस ऊर्जा के निर्माण, वितरण, संचालन और नियंत्रण हेतु चेतना की उपस्थिति आवश्यक होती है, उस ऊर्जा को प्राण ऊर्जा और बाकी ऊजाओं को जड़ अथवा भौतिक ऊर्जा कहते हैं। जब तक शरीर में आत्मा अथवा चेतना का अस्तित्व रहता है, प्राण ऊर्जा क्रियाशील होती है। मानव जीवन का महत्त्व होता है, परन्तु उसकी अनुपस्थिति में अर्थात् मृत्यु के पश्चात् प्राण ऊर्जा के अभाव में मानव शरीर का कोई महत्त्व नहीं। अत: उसको जला अथवा, दफना कर नष्ट कर दिया जाता है। भौतिक विज्ञान प्राय: जड़ पर ही आधारित है। अत: उसकी सारी शोध एवम् चिन्तन जड़ पदार्थों तक ही सीमित रहती है। फलत: विज्ञान के इने विकास के बावजूद आज के स्वास्थ्य वैज्ञानिक शरीर के किसी भी अवयव जैसे बाल, नाखुन, कोशिकाएँ, रक्त, वीर्य जैसे किसी भी अवयव को निर्माण करने में अपने आपको असमर्थ पा रहे हैं, जिसका चेतना युक्त शरर में स्वयं निर्माण होता है। प्राण ऊर्जा और उसके मूल स्रोत पर्याप्तियाँ (Bio Potential Energy Source): भगवान महावीर के सिद्धान्तानुसार जब मानव का जीव गर्भ में आता है तो, उसे अपने कर्मों के अनुसार आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा और मन रूपी छह पर्याप्तियाँ मूल ऊर्जा के स्रोत (Bio Potential Energy Source) प्राप्त होते हैं। प्रत्येक पर्याप्ति अपने-अपने गुणों के अनुसार पुद्गलों को आकर्षित का मानव शरीर का विकास करती है। जिन्हें ये शक्तियाँ पूर्ण रूप में प्राप्त होती है, उनका सम्पूर्ण एवं संतुलित विकास होता है तथा जिन्हें पर्याप्तियाँ आंशिक रूप में प्राप्त होती हैं उनका विकास आंशिक ही होती है। महावीर ने चेतना के विकास में इन्द्रियों के स्वतंत्र अस्तित्व का कथन किय। जबकि अन्य दर्शनों एवं चिकित्सा वैज्ञानिकों ने उनकी शरीर के एक अवयव तक ही कल्पना की। उनका सम्बन्ध पंच तत्त्वों में से किसी तत्तव अथवाअंग तक ही सीमित कर दिया। श्वासोच्छवास पर्याप्ति से ही वायुमण्डल से श्वसन योग्य पुद्गलों को ग्रहण कर जीव शरीर के लिये आवश्यक विशेष ऊर्जा में परिणित करता है। भाषा पर्याप्ति के कारण ही जीव भाषा योग्य पुद्गलों को ग्रहण कर बोलने की योग्यता प्राप्त करता है। जिन जीवों में भाषा पर्याप्ति का अभाव होता है, वे मुँह होते हुये भी बोल नहीं सकते। मन पर्याप्ति के प्रभाव से जीव में मनोवर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण कर द्रव्य मन की सहायता से चिन्तन मनन करने की क्षमता प्राप्त होती है। जिन जीवों को मन पर्याप्ति प्राप्त नहीं होती, वे मुनष्य की भांति मनन, चिन्तन, अध्ययन आदि नहीं कर सकते। उपचार करते समय जब तक चेतना के विकास के इस क्रम की उपेक्षा होगी, निदान अपूर्ण और उपचार अस्थायी होगा। ये जीवन शक्तियाँ कार्य के अनुसार मुख्य रूप से दस भागों में रूपांतरित हो मानव की समस्त गतिविधियों का संचालन करती हैं। जिन्हें प्राण भी कहते हैं। प्राण जीवन शैली को शक्ति प्रदान करता है। प्रत्येक प्राण अपने लिए आवश्यक पुद्गलों को आसपास के वातावरण से ग्रहण कर अपने-अपने कार्य कर सकते हैं। कानों के द्वारा शब्दों को ग्रहण करने अथवा सुनने की शक्ति विशेष को श्रोत्र इन्द्रिय बल प्राण आंखों के द्वारा देखने की शक्ति विशेष को चक्षु इन्द्रिय बल प्राण, नासिक द्वारा गंध ग्रहण करने की शक्ति विशेष को घ्राणेन्द्रिय बल प्राण, जीभ द्वारा स्वाद का अनुभव कराने की शक्तिविशेष को स्पर्शेन्द्रिय बल प्राण, मन से चिंतन मनन करने की शिक्त को मनोबल प्राण, भाषा वर्गणा के पुद्गलों की सहायता के वाणी की अभिव्यक्ति की विशेष ऊर्जा वचन बल प्राण, शरीर के माध्यम से उठने-बैठने, हलन-चलन करने की विशेष शक्ति कार्य बल प्राण, श्वासोच्छवास बल प्राण तथा निश्चित समय तक निश्चित योनि में जीवत रहने की शक्ति विशेष आयुष्य बल प्राण कहलाती है। आयुष्य बल प्राण के अभाव में अन्य प्राणों का कोई अस्तित्व नहीं होता। आयुष्य बल प्राण का प्रमुख सहयोगी श्वासोच्छवास बल प्राण होता है। प्रत्येक व्यक्ति की एक निश्चित आयुष्य होती है जिसका निर्धारण उसके पूर्व भव में ही हो जाता है। अन्य प्राणों की स्थिति बदल सकती है। क्षय के साथ-साथ उन प्राणों का निर्माण भी हो सकता है। प्राणों की विविधता के कारण ही प्रत्येक व्यक्ति के सुनने, देखने, सूंघने, चिंतन-मनन करने, वाणी की अभिव्यकित आदि अलग-अलग होती है। कभी-कभी भौतिक उपचरों से कान, नाक, चक्षु जीभ आदि इन्द्रियों के द्रव्य उपकरणों में उत्पन्न खराबी की तो दूर किया जा सकता है परन्तु उनमें प्राण ऊर्जा न होने से भौतिक उपचार सदैव सफल नहीं होते। इसी कारण सभी नेत्रहीनों को नेत्र प्रत्यारोपण द्वारा रोशनी नहीं दिलाई जा सकती। सभी बहरे उपकरण लगाने के बाद भी सुन नहीं सकते। मूर्ति में मानव की आँख लगाने के बाद उसमें देखने की शक्ति नहीं आ जाती। सारी प्राण शक्तियाँ आपसी सहयोग और समन्वय से कार्य करती है, परन्तु एक दूसरे का कार्य नहीं कर सकती। आंख सुन नहीं सकती। कान बोल नहीं सकता, नाक देख नहीं सकता इत्यादि। प्राण ऊर्जा का जितना सूक्ष्म एवं तर्क संगत विश्लेषण महावीर दर्शन में है उतना, आधुनिक चिकित्सा पद्धति में भी नहीं किया गया।
संयम ही स्वस्थ जीवन की कुंजी – प्राण और पर्याप्तियों पर ही हमारा स्वास्थ्य निर्भर करउा है। शरीर एवम् प्राण का परस्पर सम्बन्ध न जानने पर कोई भी व्यक्ति न तो प्राणों का अपव्यय अथवा दुरूपयोग ही रोक सकता है और न अपने आपको निरोग ही रख सकता है। आत्मिक आनन्द और सच्ची शांति तो प्राण ऊर्जा के सदुपयोग से ही प्राप्त होती है। यही प्रत्येक मानव के जीवन का सही लक्ष्य होता हैं प्रतिक्षण हमारे प्राणों का क्षय हो रहा है। अत: हमारी सारी प्रवृत्तियाँ यथा संभव सम्यक् होनी चाहिये। पाँचों इन्द्रियों, मन, वचन का संयम स्वास्थ्य में सहायक होता है तथा उनका असंयम रोगों को आमंत्रित करता है। हवाख् भोजन और पानी से ऊर्जा मिलती है परन्तु उनका उपयोग कब, कैसे, कितना कहाँ का सम्यक्ज्ञान और उसके अनुरूप आचारण आवश्यक होता है? स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग भी ऊर्जा के स्रोत होते हैं, जिनका जीवन में आचरण आवश्यक होता है। प्राण ऊर्जा के सदुपयोग से शरीर स्वस्थ, मन संयमित, आत्मा जागृत और प्रज्ञा विकसित होती हैं स्वास्रूथ्य की दृष्टि से पर्याप्तियों और प्राणों का बहुत महत्त्व होता है। अत: महावीर ने प्राण और पर्याप्तियों के संयम एवं सदुपयोग को सर्वाधिक महत्त्व दिया। जहाँ जीवन है वहाँ प्रवृत्ति तो निश्चित रूप से होती ही है। अत: पर्याप्तियों और प्राणों के संयम का मतलब हम उनका अनावश्यक दुरूपयोग अथवा अपव्यय न करें, अपितु अनाकिाल से आत्मा के साथ लगे कर्मों से छुटकारा पाने हेतु सदुपयोग द्वारा सम्यक् पुरुषार्थ करें।
आहार संयम –जीवन चलाने के लिए जितना आवश्यक हो भक्ष्य-अभक्ष्य का विवेक रखकर आहार-पानी आदि ग्रहण करना।
शरीर का संयम –शरीर की आवश्यक प्रवृत्तियों से बचना एवं सम्यक् पुरुषार्थ करना।
इन्द्रियों का संयम – इन्द्रियों की क्षमता से अधिक तथा अनावश्यक कार्य न लेना। वीर्य का नियंत्रण रखना अर्थात् ब्रह्मचर्य का पालप करना। इन्द्रिय विषयों को उत्तेजित करने वाली प्रवृत्त्यिों एवं वातावरण से यथा संभव दूर रहना।
श्वास का संयम – मन्द गति से दीर्घ श्वास लेना तथा पूरक और रेचक के साथ-साथ कुम्भक कर श्वास को अधिकाधिक विश्राम देना। जितना अधिक श्वास का संयम होगा, उतना व्यक्ति संवेगों से सहज बच जाता है। इससे शरीरऔर मन को बहुत आराम मिलता है। आवेग नहीं आते हैं। आवेग से शरीर में असंतुलन और रोग होने की संभावनाएँ बढ़ जाती हैं।
भाषा का संयम –वाणी का विवेक एवंयथा संभव मौन रखना, परन्तु आवश्यकता पड़ने पर सत्य एवं मधुर बोलना। अनावश्यक बोलने से जीवनी शक्ति क्षीण होती है। वाणी के प्रकम्पन हमारे स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं। ध्वनि और मंत्र चिकित्सा का यही आधार होता है। वाणी शरीर और मन दोनों को प्रभावित करती है।
मन का संयम – मन में अनावश्यक मनन, चिन्तन, स्मृति और कल्पनायें न करना अर्थात् मन की सम्यक् प्रवृत्ति करना। मनोबल कमजोर करने वाले दृश्यों को न तो देखना और न सुनना मन का संयम होता है। हिंसा, कुरता, घृणा, कामुकता, भय इत्यादि मनोबल कमजोर करने वाले वातावरण में रहना, मन का असंयम होता है।
संयम ही स्वास्थ्य की कुंजी है – उपर्युक्त सभपी आचरण अर्थात् संयम भगवान् महावीर के अनुसार स्वास्थ्य की कुंजी होता है। सभी रोगों का कारण पर्याप्तियों के असंयम से हाने वाले प्राणों का असंतुलन ही होता है। पर्याप्तियों के संयम से शरीर में रोग उत्पन्न होने की संभावनाएँ काफी कम हो जाती है और यदि रोग की स्थिति हो भी जाती है तो पर्याप्तियों, के संयम से पुन: शीघ्र स्वास्थ्य को प्राप्त किया जा सकता है। यही भगवान् महावीर के सिद्धान्तानुसार शरीर स्वास्थ्य का मूलाधार है।
महावीर का स्वास्थ्य चिंतन पूर्णत: वैज्ञानिक – महावीर का स्वास्थ्य दर्शन पूर्ण रूप से मौनिक एवं वैज्ञानिक है। अहिंसा को आधार मानकर, अनेकान्त दृष्टि से उसमें स्वास्थ्य का विवेकपूर्ण सनातन सिद्धान्तों को स्वीकारते हुए चिंतन किया गया है। महावीर ने जहाँ एक तरफ प्राण और पर्याप्तियों के संयम को स्वास्थ्य का आधार कहा, वहीं दूसरी तरफ अशुभ कर्मों एवं आश्रवों से बचने की स्पष्ट प्रेरणा दी तथा उन्हें ही रोग हेतु जिम्मेदार बतलाया। सम्यक् प्रवृत्ति एवं संवर युक्त जीवन शैली का कथन कर, महावीर ने जनमानस को स्वस्थ जीवन जीने का राजमार्ग बतलाया। पूर्व में उपार्जित, अशुभ कर्मों के रूप में होने वाले रोग के कारणों के उपचार हेतु बारह प्रकार के तपों की सम्यक् आराधना का सुझाव दिया, जिससे न केवल आत्म शुद्धि ही होती है अपितु अधिकांश पुराने शारीरिक एवं मानसिक रोगों से भी मुक्ति मिलती है। शरीर एवं रोगों की अपेक्षा रोग के मूल कारणों को दूर करने पर उन्होंने जो जोर दिया वह आधुनिक स्वास्थ्य विज्ञान के लिए चिन्तनीय हें। अत: उनके दर्शन पर जितनी अधिक शोध की जायेगी उतने-उतने स्वास्थ्य के प्रति नये आयाम सामने आते जायेंगे। अत: उनके दर्शन आपने आप में परिपूर्ण है। अत: उसकी अपेक्षा करने वाला आधुनिक स्वास्थ्य विज्ञान अपने आपको पूर्ण वैज्ञानिक मानने का दावा नहीं कर सकता।
अनेकान्त शोध पत्रिका – अप्रैल-जून २०१३ अंक से साभार