श्री सिद्धचक्र सब आठ कर्म, विरहित औ आठ गुणों युत हैं।
अनुपम हैं सब कार्य पूर्ण कर, अष्टम पृथ्वी पर स्थित हैं।।
ऐसे कृतकृत्य सिद्धगण का, हम नितप्रति वंदन करते हैं।
मन वचन काय की शुद्धी से, शिरसा अभिनन्दन करते हैं।।१।।
तीर्थंकर होकर सिद्ध हुए, बिन तीर्थंकर जो सिद्ध हुए।
जल से थल से जो सिद्ध हुए, जो भी आकाश से सिद्ध हुए।।
जो हुए अंतकृत केवलि या, बिन हुए सिद्धि को प्राप्त हुए।
उत्तम जघन्य मध्यम तनु की, अवगाहन धर जो सिद्ध हुए।।२।।
जो ऊध्र्वलोक औ अधोलोक, औ तिर्यक् लोक से सिद्ध हुए।
उत्सर्पिणी अवसर्पिणी के भी, छह कालों से जो सिद्ध हुए।।
उपसर्ग सहन कर सिद्ध हुए, उपसर्ग बिना भी सिद्ध हुए।
उन सबको वंदूं ढाई द्वीप, दो समुद्र से जो सिद्ध हुए।।३।।
मति श्रुत से केवलज्ञान प्राप्त, या तीन ज्ञान या चार सहित।
केवलज्ञान हो सिद्ध हुए, पांचों संयम या चार सहित।।
संयम समकित औ ज्ञान आदि, से च्युत हो पुनि ग्रह सिद्ध हुए।
जो संयम समकित ज्ञान आदि, से बिना पतित हो सिद्ध हुए।।४।।
जो साधु संहरण सिद्ध बिना, संहरण प्राप्त हो सिद्ध हुए।
जो समुद्घात कर सिद्ध हुए, बिन समुद्घात भी सिद्ध हुए।।
खड्गासन और पर्यंकासन से, कर्म नाश कर सिद्ध हुए।
उन परम ज्ञानयुत सिद्धों को, मैं वंदूं त्रिकरण शुद्धि किये।।५।।
जो भाव पुरुषवेदी मुनिवर, वर क्षपक श्रेणी चढ़ सिद्ध हुए।
जो भाव नपुंसक वेदी भी, थे पुरुष ध्यान धर सिद्ध हुए।।
जो भाववेद स्त्री होकर, भी द्रव्य पुरुष अतएव उन्हें।
हो शुक्लध्यान सिद्धि जिससे, सब कर्म नाश कर सिद्ध बने।।६।।
प्रत्येक बुद्ध और स्वयंबुद्ध, औ बोधित बुद्ध सुसिद्ध बनें।
उन सबको पृथक्-पृथक् प्रणमूँ, औ एक साथ भी नमूँ उन्हें।।७।।
पण नव दो अट्ठाईस चार, तेरानवे दो औ पांच प्रकृति।
इक सौ अड़तालिस प्रकृति नाश, सब सिद्ध हुए प्रणमूं नित प्रति।।८।।
जो अतिशय अव्याबाध सौख्य, और अनंत अनुपम परम कहा।
इंद्रिय विषयों से रहित, पूर्व, अप्राप्त, ध्रौव्य को प्राप्त किया।।९।।
लोकाग्रशिखर पर स्थित वे, अंतिम तनु से किंचित् कम हैं।
गल गया मोम सांचे अंदर, आकार सदृश आकृति धर हैं।।१०।।
वे जन्म मरण औ जरा रहित, सब सिद्ध भक्ति से नुति उनको।
बुधजन प्रार्थित और परम शुद्ध, वर ज्ञानलाभ देवो मुझको।।११।।
बत्तिस दोषों से रहित शुद्ध, जो कायोत्सर्ग विधी करके ।
अतिभक्तीयुत वंदन करते, वे तुरतहिं परम सौख्य लभते।।१२।।
हे भगवन् ! श्री सिद्ध भक्ति का, कायोत्सर्ग किया उसका।
आलोचन करना चाहूं, जो सम्यग्रत्नत्रय युक्ता।।
अठविध कर्मरहित प्रभु ऊध्र्वलोक मस्तक पर संस्थित जो।
तप से सिद्ध नयों से सिद्ध, सुसंयम सिद्ध चरितसिध जो।।
भूत भविष्यत् वर्तमान, कालत्रय सिद्ध सभी सिद्धा।
नित्यकाल मैं अर्चूूं पूजूं, वंदूं नमूं भक्ति युक्ता।।
दुःखों का क्षय, कर्मों का क्षय, हो मम बोधि लाभ होवे।
सुगतिगमन हो समाधि मरणं, मम जिनगुण संपति होवे।।