आचार्य उमास्वामी विरचित तत्त्वार्थसूत्र एक ऐसी कालजयी अपूर्व कृति है, जिसमें निहित संदेश सर्वजन हिताय और सार्वकालिक उपादेयता की भावना से परिपूर्ण है।
वर्तमान में इस ग्रन्थ को जैन परम्परा में वही स्थान प्राप्त है, जो हिन्दू धर्म में भगवद्गीता को, इस्लाम में कुरान को, ईसाई में बाइबिल को प्राप्त है। यह ग्रन्थ समग्र जैन दर्शन में अत्यन्त सम्मानित हुआ है।
जैन सिद्धान्तों को संस्कृत भाषा में प्रकट करने वाला यह पहला सूत्र ग्रन्थ माना जाता है। इसमें १० अध्याय एवं ३५७ सूत्र हैं।
१८०० वर्ष पूर्व रचित इस ग्रन्थ में सांसारिक दुःखों से मुक्ति प्राप्त करने का सहज मार्ग दर्शाया गया है।
इस ग्रन्थ में साम्प्रदायिकता नहीं है। विशाल आगम साहित्य का सार बड़ी कुशलता से ग्रंथित किया गया है। इसमें चारों अनुयोगों का समावेश है।
श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही सम्प्रदायों को थोड़े से पाठभेद को छोड़कर समान रूप से प्रिय है।
जैन जीव विज्ञान, जैन भौतिक विज्ञान, जैन रासायनिक विज्ञान, जैन विश्व संरचना, सांसारिक सुख दुःख का कारण, कर्मबन्ध और उनसे छूटने का उपाय, व्यवहारिक जीवन जीने की कला, आ प्रेम, कर्त्तव्य पालन का संदेश, आर्थिक विषमता को दूर करने का उपाय इत्यादि अनेक बातों का सारगर्भित व्याख्यान गागर में सागर के समान इस ग्रन्थ में उपलब्ध है।
इस ग्रन्थ की सर्वाधिक टीकाएँ लिखी गयी हैं। आचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्द्धसिद्धि, आचार्य अकलंक ने राजवार्तिक और आचार्य विद्यानंदजी ने श्लोकवार्तिक दार्शनिक टीकाएँ लिखकर इस ग्रन्थ का महत्त्व व्यक्त किया है।
उमास्वामी द्वारा प्रतिपादित जीवन शैली को जीवन में अपना कर वर्तमान जीवन की समस्त विसंगतियों एवं विषमताओं का निवारण किया जा सकता है।