इस युग में चतुर्थ काल प्रारंभ होने के पहले ही भगवान ऋषभदेव को केवलज्ञान होने के बाद ही उनके ही पुत्र वृषभसेन, जो कि पुरिमताल नगर के राजा थे, वे प्रभु से मुनि दीक्षा लेकर भगवान के प्रथम गणधर हो गये तथा भगवान की ही पुत्रीआदिपुराण, पृ. ५९२। ब्राह्मी, जो कि भरत चक्री की छोटी बहन थी, वह भी विरक्त होकर गुरुदेव की कृपा से दीक्षित होकर आर्यिका हो गई और बाहुबली की छोटी बहन सुन्दरी भी आर्यिका हो गई। ये ब्राह्मी समस्त आर्याओं में गणिनी-स्वामिनी थीं। अन्यत्रहरिवंशपुराण, पृ. १८३। भी कहा है-धैर्य से युक्तइसके बारे में जो यह विंâवदन्ती है कि पिताजी ऋषभदेव इनका विवाह करते, तो उन्हें उन जामाताओं को नमस्कार करना पड़ता, इसलिए उन्होंने ब्याह नहीं किया अर्थात् वे प्रभु की इस चिन्ता को दूर करने के लिए बाल ब्रह्मचारिणी रहीं। यह कल्पना बिल्कुल गलत है। भरत चक्री ने हजारों कन्याओं को विवाहा था। तब क्या उनके पिता ने अपने समधी को नमस्कार किया था या अपनी हजारों कन्याओं के पतियों को भी क्या नमस्कार किया था अर्थात् नहीं किया था। ब्राह्मी और सुन्दरी नामक दोनों कुमारियाँ अनेक स्त्रियों के साथ दीक्षा ले आर्यिकाओं की स्वामिनी बन गर्इं। भरत के सेनापति जयकुमार की दीक्षा के बाद सुलोचनाआदिपुराण, द्वितीय भाग, पृ. ५०३। ने भी ब्राह्मी आर्यिका के पास दीक्षा धारण कर ली। अन्यत्रहरिवंशपुराण, पृ. २१३। भी कहा है- दुष्ट संसार के स्वभाव को जानने वाली सुलोचना ने अपनी सपत्नियों के साथ श्वेत साड़ी धारणकर ब्राह्मी तथा सुन्दरी के पास दीक्षा धारण कर ली। मेघेश्वर जयकुमार शीघ्र ही द्वादशांग के पाठी होकर भगवान के गणधर हो गये और सुलोचना आर्यिका भी ग्यारह अंगो की धारक हो गई। आर्यिकाओं या गणिनी से दीक्षा लेने के विषय में और भी अनेकों प्रमाण हैं-कवेरमित्रआदिपुराण, पृ. ४५८। की स्त्री धनवती ने स्वामिनी अमितमती के पास दीक्षा धारण कर ली और उन यशस्वती और गुणवती आर्यिकाओं की माता कुबेरसेना ने भी अपनी पुत्री के समीप दीक्षा ले ली।’’
वनवास के प्रसंग में जब मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र ने यह सुना कि कलिंगाधिपति अतिवीर्य राजा भरत के राज्य पर चढ़ाई करने वाला है, तब अतिवीर्य को पराजित करने का उपाय सोचा- दूसरेपद्मपुराण, द्वितीय भाग, पृ. २६१। दिन डेरे से निकलकर राम ने आर्यिकाओं से सहित जिनमंदिर देखा, सो हाथ जोड़कर बड़ी भक्ति से उसमें प्रवेश किया। वहाँ जिनेन्द्र भगवान को तथा आर्यिकाओं को नमस्कार किया, वहाँ आर्यिकाओं की जो वरधर्मा नाम की गणिनी थीं उनके पास सीता को रखा तथा सीता के पास ही अपने सब शस्त्र छोड़े।
वेष बदलकर श्रीराम और लक्ष्मण दोनों ही अतिवीर्य की सभा में पहुँचकर उसे पकड़कर हाथी पर सवार हो अपने परिजन के साथ वापस जिनमंदिर में आ गये। वहाँ हाथी से उतरकर मंदिर में प्रवेश कर जिनेन्द्र भगवान की बड़ी भारी पूजा की। मंदिर में सर्वसंघ के साथ जो वरधर्मा नाम की गणिनी ठहरी हुई थीं, रामचन्द्र ने सीता के साथ संतुष्ट होकर उनकी भी पूजा की। इस उदाहरण से यह स्पष्ट होता है कि पूर्व काल में भी आर्यिकाएँ जिनमंदिर में रहती थीं और बलभद्र, नारायण आदि महापुरुष उनकी वंदना-पूजा किया करते थे।
‘‘रावण के मरण के बाद मन्दोदरीपद्मपुराण, तृतीय भाग, पृ. ७१। शशिकान्ता आर्यिका के मनोहारी वचनों से प्रबोध को प्राप्त हो उत्कृष्ट संवेग और उत्तम गुणों को प्राप्त हुई गृहस्थ वेष-भूषा को छोड़कर श्वेत साड़ी से आवृत्त हुई आर्यिकाहो गई। उस समय अड़तालीस हजार स्त्रियों ने संयम धारण किया था। इन्हीं में रावण की बहन, जो कि खरदूषण की पत्नी थी, उस चन्द्रनखा ने भी दीक्षा ले ली थी।
माता कैकेयी भरत की दीक्षा के बाद विरक्त हो एक सफेदपद्मपुराण तृतीय भाग, पृ. १५१। साड़ी से युक्त होकर तीन सौ स्त्रियों के साथ ‘‘पृथिवीमती’’ आर्यिका के पास दीक्षित हो गई थीं।’’ अग्निपरीक्षा के बाद श्री रामचन्द्र ने सीता को घर चलने के लिए कहा तब सीता ने कहा कि अब मैं जैनेश्वरी दीक्षा धारण करूँगी’’ वहीं केशलोंच करके पुन: शीघ्र ही पृथिवीमती आर्यिका के पास दीक्षित हो गईं।’’ उनके बारे में लिखा है कि वह वस्त्रमात्र परिग्रहधारिणी, महाव्रतों से पवित्र अंग वाली महासंवेग को प्राप्तपद्मपुराण तृतीय भाग, पृ. २८४। थीं।
हनुमान विरक्त होकर धर्मरत्नपद्मपुराण तृतीय भाग, पृ. ३६२। मुनिराज के समीप मुनि हो गये, तब उनके साथ सात सौ पचास विद्याधर राजाओं ने भी दीक्षा ले ली। उसी समय शीलरूपी आभूषणों को धारण करने वाली राजस्त्रियों ने बंधुमती आर्यिका के पास दीक्षा ले ली।
मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र ने श्रीसुव्रत मुनिराज से दीक्षा धारण की थी, उस समय कुछ अधिक सोलह हजार साधु हुए और सत्ताईस हजार स्त्रियाँ ‘‘श्रीमती’’ नामक आर्यिका के पास आर्यिकापद्मपुराण तृतीय भाग, पृ. ३९५। हुईं।
सीतापद्मपुराण तृतीय भाग, श्लोक ८ से १८, पृ. ३२८। के आर्यिका जीवन का वर्णन करते हुए ग्रंथकार कहते हैं कि धूलि से मलिन वस्त्र से जिनका वक्षस्थल तथा शिर के बाल सदा आच्छादित रहते थे, जो स्नान के अभाव में पसीना से उत्पन्न मैलरूपी कंचुक को धारण कर रही थी, जो चार दिन, पक्ष आदि के उपवास करती थी, शीलव्रत और मूलगुणों के पालन में तत्पर-अध्यात्म के चिंतन में लीन रहती थी, विहार के समय उसे अपने और पराये लोग भी नहीं पहचान पाते थे, इस प्रकार बासठ वर्ष तक उत्कृष्ट तप करके तथा पैंतीस दिन की उत्तम सल्लेखना धारण करके वह आर्यिका सीता इस शरीर को छोड़कर आरण-अच्युत युगल के प्रतीन्द्र पद को प्राप्त हो गई अर्थात् स्त्रीलिंग को छोड़कर प्रतीन्द्र हो गई।
किसी समय कनकोदरीपद्मपुराण तृतीय भाग, १६८ से १९८, पृ. ३८३। महादेवी पट्टरानी ने अभिमानवश सौत के प्रति क्रोध करने से गृहचैत्यालय की जिनेन्द्रदेव की प्रतिमा को घर से बाहर फिकवा दिया था, इसी बीच में संयमश्री नामक आर्यिका ने आहार के लिए इसके घर में प्रवेश किया। संसार में प्रसिद्ध महातपस्विनी संयमश्री ने जिनेन्द्र की प्रतिमा का अनादर देखकर दु:खी होकर आहार का त्याग कर दिया और कनकोदरी को उपदेश देना शुरू किया तथा कहा कि यदि मैं तुझे न सम्बोधन करूँ तो मुझे भी प्रमाद का बहुत बड़ा दोष होगा। तूने नरक-निगोदों में निवास कराने वाला ऐसा महापाप किया, अब उससे विरत हो।’ इत्यादि उपदेश सुनकर कनकोदरी संसार के दु:खों से डर गयी और आर्यिकाश्री से सम्यक्त्व और श्रावक के व्रत ले लिये। प्रतिमाजी को पूर्व स्थान में विराजमान करके नाना प्रकार से उसकी पूजा करके प्रायश्चित्त आदि किया। कालांतर में वही अंजना हुई, तब उसी पाप के फल से उसे बाईस वर्ष तक पति का वियोग सहना पड़ा था।’’ भगवान नेमिनाथ को केवलज्ञान होने के बाद समवसरण रचना हो गई। उस समय राजा वरदत्त ने प्रभु से दीक्षा लेकर गणधर पद प्राप्त किया और राजीमतीषट्सहस्त्र नृपस्त्रीभि: सह राजीमती सदा। प्रव्रज्याग्रेसरी जाता सार्णिकाणांगणस्यतु।। (हरिवंशपुराण ६५६।इस कथन से यह समझना कि जो यह विंâवदन्ती है कि नेमिनाथ के दीक्षित होने पर राजुल रोती-रोती वहाँ गईं और दीक्षित हो गईं सो गलत है। राजुलमती ने प्रभु को केवलज्ञान होने के बाद ही दीक्षा ली है। तीर्थंकर दीक्षा लेने के बाद मौन रहते हैं और किसी को दीक्षा भी नहीं देते हैं। भी छह हजार रानियों के साथ दीक्षा लेकर आर्यिकाओं में प्रधान गणिनी हो गईं। राजा चेटक की पुत्री चन्दना कुमारीहरिवंशपुराण, पृ. १७। एक स्वच्छ वस्त्र धारणकर (भगवान महावीर के समवसरण में) आर्यिकाओं में प्रमुख हो गईं। रानी चेलनाश्रेणिक चरित, पृ. २८७। राजा श्रेणिक की मृत्यु के बाद भगवान के समवसरण में चन्दना गणिनी के पास जाकर दीक्षित हो गर्इं, जो कि चन्दना की बड़ी बहन थीं। जीवन्धर कुमार ने अपने मामा और नन्दाढ्य आदि जनों के साथ भगवान के समवसरण में दीक्षा ले ली और उनकी आठों रानियों ने भी महादेवी विजया के साथ चन्दना आर्यिका के पास उत्तम संयम धारणउत्तरपुराण, पृ. ५२७। कर लिया।
आर्यिकाओंपांडव पुराण, पृ. ४९१। के संघ की एक नवदीक्षित आर्यिका ने पाँच यारों के साथ लताकुंज में एक वेश्या को प्रवेश करते हुए देखा, एक क्षण के लिए मन में यह भाव आ गया कि ऐसा सुख हमें भी प्राप्त हो, तत्पश्चात् गणिनी के पास जाकर आलोचना करके प्रायश्चित्त ग्रहण कर लिया और सल्लेखना से मरण किया फिर भी जन्मान्तर में द्रौपदी की अवस्था में स्वयंवर मंडप में उसने मात्र अर्जुन के गले में माला डाली थी किन्तु हवा से माला का धागा टूट जाने से पाँचों पांडवों पर फूल गिर गये, उस समय लोगों ने चर्चा कर दी कि द्रौपदी ने पाँच पति चुने हैं। ऐसा झूठा अपवाद उसे उतने मात्र भावों से हुआ।’’
गुणरूपी आभूषण को धारण करने वाली कुन्ती, सुभद्रा तथा द्रौपदी ने भी राजीमती गणिनी के पास उत्कृष्ट दीक्षा ले ली। अन्त में तीनों के जीव सोलहवें स्वर्ग में उत्पन्न हुए हैं। आगे वहाँ से च्युत होकर नि:संदेह मोक्ष को प्राप्त करेंगे। कुन्ती उत्तरपुराण, पृ. ४२५। , द्रौपदी तथा सुभद्रा आदि जो स्त्रियाँ थीं, सब राजीमती आर्यिका के समीप तप में लीन हो गईं।
इन सब उदाहरणों से यह देखना है कि पूर्व में आर्यिकाएँ ही आर्यिका दीक्षा देती थीं। सबसे प्रथम तीर्थंकर देव के समवसरण में जो आर्यिका दीक्षित होती थीं, वे ही गणिनी के भार को संभालती थीं। तीर्थंकर देव के अतिरिक्त किन्हीं आचार्य द्वारा आर्यिका दीक्षा के उदाहरण आगम में प्राय: कम मिलते हैंहरिवंशपुराण, पृ. ७९६। तथा इन आर्यिकाओं की दीक्षा के लिए जैनेश्वरी दीक्षा शब्द भी आया है। इन्हें ‘‘महाव्रतपवित्रांगा’’ भी कहा है और इन्हें ‘‘संयमिनी’’ संज्ञा भी दी है। श्रमणी, साध्वी आदि भी नाम कहे हैं। ये आर्यिकाएँ इन्द्र, चक्रवर्ती, बलभद्र, नारायण आदि महापुरुषों द्वारा भी वंदनीय रही हैं।हरिषेणा, श्रीषेणा नाम की दोनों कन्याओं ने ज्ञान सागर मुनीश्वर से आर्यिका दीक्षा ले ली और विहार करने लगीं। (पांडव पुराण, पृ. ४८९)
जब आर्यिकाओं के व्रत को उपचार से महाव्रत कहा है और सल्लेखना काल में उपचार से निग्र्रन्थता का आरोपण किया है, तब वे मुनियों के समान भी वंदनीय क्यों नहीं होंगी ? अवश्य होंगी। ऐसा समझकर आगम की मर्यादा को पालते हुए आर्यिकाओं की नवधाभक्ति करके उन्हें आहारदान देना चाहिए और समयानुसार यथोचित भक्ति करना, उन्हें पिच्छी, कमण्डलु, शास्त्र, वस्त्र (सफेद साड़ी) आदि दान भी देना चाहिए।
आजकल कुछ लोग कहते हैं कि आर्यिकाओं की ‘नवधाभक्ति-पूजा आदि नहीं करना चाहिए, उन्हें सोचना चाहिए कि जब स्वयं श्री कुन्दकुन्द देव ने कह दिया कि इनकी सब चर्या मुनि के समान है केवल वृक्षमूलयोग आदि को छोड़कर तथा रामचन्द्र जैसे महापुरुषों ने भी आर्यिकाओं की पूजा की, पुन: शंका ही क्या रहती है ? अत: आर्यिकाओं को अट्ठाईस मूलगुणधारिणी, उपचार-महाव्रतसहित मानकर उनकी नवधाभक्ति आदि में प्रमाद नहीं करना चाहिए।