प्राणावाय पूर्व में विवेचित विषय को ही वर्तमान में आयुर्वेद संज्ञा दी गई है। प्रस्तुत आलेख में इस ज्ञान के मूल स्रोत, जैनचार्यों द्वारा इस ज्ञान के आधार पर रचित प्रमाणिक ग्रन्थों का विस्तार पूर्वक विवेचन किया गया है।
जैनागम में द्वादशांग के अन्तर्गत बारहवें दुष्टिवादांग के चतुर्दश पूर्व में ‘‘प्राणावाय पूर्व’’ का प्रतिपादन किया गया है। इसे वर्तमान में आयुर्वेद के नाम से जाना जाता हैं। जैन सिद्धांत के अनुसार विश्व की समस्त विद्याओं और कलाओं की उत्पत्ति आद्य तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव से मानी गई है। समस्त विद्याओं—कलाओं ज्ञान—विज्ञान के वे ही आद्य उपदेष्टा हैं तथा विभिन्न विद्याओं के प्रवर्तक हैं। भगवान ऋषभदेव के पहले सर्वत्र भोग भूमि थी जिसमें कल्पवृक्षों का बाहुल्य था। लोगों के सभी मनोरथ उन कल्पवृक्षों से पूर्ण हो जाते थे। अत: उन्हेंन तो किसी आधि—व्याधि की चिंता थी और न ही अपनी आजीविका के लिएण् किसी वृत्ति या व्यवसाय की चिन्ता थी। काल प्रभाव वश शनै: शनै कल्पवृक्षों का ह्रास हो गया और भोग—भूमि का स्थान कर्म भूमि ने ले लिया। परिणाम स्वरूप उदर पूर्ति के लिए लोगों को श्रम का आश्रय लेना पड़ा जिससे समाज में श्रम को प्रतिष्ठा प्राप्त हुई और उसके परिणाम स्वरूप अन्यान्य वृत्तियों का आविर्भाव एवं प्रचलन समाज में हुआ। उन वृत्तियों का अनुसरण या पालन करने के लिए उनसे सम्बन्धित विद्याओं एवं कलाओं का ज्ञान आवश्यक था। श्री ऋषभदेव ने अपने राज्यकाल में इस परिवर्तन का अनुभव किया और उन्होंने ही सर्वप्रथम सामाजिक व्यवस्था के लिए लोगों को प्रेरित किया। इस प्रकार एक व्यवस्था का प्रांरभ हुआ। लोक में शिक्षा एवं विद्या का प्रसार करने के उद्देश्य से उन्होंने सर्वप्रथम अपनी दो पुत्रियों ब्राह्मी और सुन्दरी को क्रमश: लिपि विद्या अर्थात् वर्णमाला तथा अंक विद्या अर्थात् संख्या लिखना सिखाया। इस प्रकार इस युग में ऋषभदेव ने अपनी पुत्रियों के माध्यम से सर्वप्रथम शिक्षा का सूत्रपात कराकर वाङ्मय्ज्रे उपदेश दिया शिक्षा के तीनों अंगो—व्याकरण शास्त्र, छन्द शास्त्र एवं अलंकार शास्त्र की रचना की। पुत्रियों की भांति पुत्रों को भी विभिन्न विद्याओं की शिक्षा देकर उन्हें निपुण बनाया। विभिन्न विद्याओं—कलाओं में अर्थशास्त्र, गन्धर्व शास्त्र, काम शास्त्र, सामुद्रिक शास्त्र आयुर्वेद, धनुर्वेद, अश्वविद्या, गज विद्या, रत्न परीक्षा, ज्योतिष, शकुन विद्या, मंत्र ज्ञान, द्यूत विद्या, स्थापत्य कला आदि प्रमुख हैं। कालान्तर में इन्हीं विद्याओं का विकास एवं विस्तार जगत में हुआ।
आयुर्वेद की उत्पत्ति एवं प्रसार के सम्बन्ध में श्री उग्रादित्याचार्य जी का कथन
आयुर्वेद की उत्पत्ति एवं प्रसार के सम्बन्ध में श्री उग्रादित्याचार्य ने जो वर्णन अपने ग्रंथ ‘कल्याणकारक’ में किया है, तदनुसार अशोक वृक्ष, सुरपुष्प वृष्टि दिव्य ध्वनि, छत्र, चमर, रत्नमय सिंहासन, भामण्डल और देव दुन्दुर्भि इन अष्ट महा प्रातिहार्य तथा द्वादश विध समाओं से वेष्ठित आदि तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के समवशरण में पहुंचकर भरत चक्रवर्ती आदि नरेशों ने त्रिकरण शुद्धि पूर्वक त्रिलोकीनाथ को नमन कर निम्न प्रकार से पूछा— ‘‘हे भगवन्! प्रथम, द्वितीय और तृतीय काल मेें जब यहां भोग भूमि की व्यवस्था थी, लोक परस्पर एक दूसरे को स्नेह की दृष्टि से देखते थे और कल्पवृक्षोें से उनके सभी मनोरथ पूर्ण हो जाया करते थे, मनुष्य भव में आयु पर्यन्त उत्कृष्ट से उत्कृष्ट सुख भोग कर वे पुण्यात्मा भोग भूमिज जीव मृत्य के बाद इष्ट सुख प्रदायक स्वर्ग को प्राप्त होते थे। इस क्षेत्र को भोग भूमि का रूप पलट कर कर्मभूमि का रूप मिला। फिर भी उपवाद शैया में उत्पन्न होने वाले देवगण, चरम व उत्तम शरीर को प्राप्त धारण करने वाले पुण्यात्मा, अपने पुण्य प्रभाव से विष शस्त्रादि से घात होने योग्य शरीर को धारण करने वाले भी बहुत से मनुष्य उत्पन्न होने लगे हैं। उन्हें (त्रिदोष) वात —पित्त— कप के प्रकोप से महाभय उत्पन्न होने लगता १. प्राग्भोगभूमिषु जना जनितातिरागा: कल्पद्रुमार्पित समस्त महोपभोगा:। दिव्यं सुखं समनुभूय [[मनुष्य]]भावे स्वर्ग ययु:पुनरपीष्टसुखै सुपुप्या:।। अत्रोपपादचरमोत्त देहिवर्गा: पुण्याधिकास्त्वनप वत्र्य महायुषस्ते। अन्येऽपवत्र्यपरमायुष एव लोके तेषां महदभय्भूदिह दोष कोपात्।। (कल्याणकारक, श्लोक ३—४) है।’’ आगे वे पूछते हैं:— ‘‘हे प्रभो! इस कर्म भूमि में शीत, अतिताप और वर्षा से पीड़ित, कालक्रम से मिथ्या आहार—विहार के सेवन में तत्पर तथा व्याकुल बुद्धि वाले आपकी शरणागत हम लोगों के लिए आप ही शरण हैं अर्थांत् रक्षा करने वाले हैं। हे त्रिलोकी नाथ! अनेक प्रकार के रोगों के भय से अत्यन्त दुखी और आहार—औषधि के क्रम को नहीं जानने वाले हम रोगियों के स्वास्थ्य की रक्षा का विधान और उपाय क्या है? वह बतलाने की कृपा करें।’’ भगवान आदिनाथ (ऋषभदेव) के समवशरण में पहुंच कर भरत चक्रवर्ती आदि जनों ने करबद्ध रूप से उपर्युक्त प्रकार से निवेदन किया और मनुष्यों को पीड़ित करने वाले रोगों के शमन का उपाय पूछा। भगवान सर्वज्ञ थे, केवलज्ञानी थे, त्रिलोकदर्शी और त्रिकालदर्शी थे। जगत् के कल्याण हेतु उनके मुख से साक्षात् वाग्देवी रूप दिव्य ध्वनि में आयुर्वेद का वह सम्पूर्ण स्वरूप भी विद्यमान था जिसमें मनुष्य के स्वास्थ्य की रक्षा के साथ रोगों के शमन का उपाय भी प्रतिपादित था समवशरण में बैठे हुए वृषभसेन आदि गणधरों ने उस दिव्य ध्वनि को ग्रहण किया और तत्पश्चात् धृति, स्मृति आदि के वैभव से सम्पन्न मनीषी आचार्यों ने विभिन्न विद्याओं को ज्ञानरूप में प्राप्त कर उसे अपने बुद्धि वैशिष्टय के द्वारा विभिन्न शास्त्रों में निबद्ध किया। इस प्रकार मनुष्यों में आयुर्वेद सहित समस्त लौकिक विद्याओं के ज्ञान का प्रसार हुआ। भगवान की दिव्य ध्वनि का प्रस्फुट भाव तथा तदन्तर्गत वस्तु चतुष्टय का निरूपण करते हुए श्री उग्रादित्यचार्य ने लिखा है:— ‘‘सम्पूर्ण जगत के हित के लिए गणधर प्रमुख वृषभसेन भरत चक्रवर्ती आदि प्रधान पुरूष भगवान आदिनाथ से करबद्ध निवेदन कर अपने—अपने स्थान पर मौन होकर बैठ गए। तब उस समोसरण में साक्षात् पटरानी के रूप में रहने वाली सरस वाणी दिव्य ध्वनि से युक्त प्रसारित हुई। वह दिव्य ध्वनि इस प्रकार चार भाग में विभक्त करती हुई इन वस्तु चतुष्ट्य के लक्षण, भेद—प्रभेद सहित सम्पूर्ण विषयों का संक्षिप्त रूप से कथन करने लगी जिसने भगवान की सर्वज्ञता को सूचित किया।’’
आयुर्वेद शास्त्र का अध्ययन करने से ज्ञात होता है
आयुर्वेद शास्त्र का अध्ययन करने से ज्ञात होता है, कि वह कितना विशाल और सुव्यवस्थित शास्त्र है। भगवान् ऋषभदेव के मुखकमल से जब वह दिव्य ध्वनि के रूप में उद्भाषित हुआ तब यद्यपि वहां उपस्थित समस्त प्राणियों ने उसे यथावत् रूप से स्वविवेक के अनुसार जान लिया, तथापि, अविकल रूप से उसका ग्रहण साक्षात् गणधर परमेष्ठी ने किया। उन गणधरों द्वारा उस आयुर्वेद का कथन यथावत् रूप से किया गया जिसे निर्मल मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान तथा मन:पर्ययज्ञान के धारक परम तपस्वी धर्माचार्यों, मुनियों ने अविच्छिन्न रूप से जान लिया। इस प्रकार जैन मतानुसार आयुर्वेद का आदि स्रोत आद्य तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव हैं जिनकी दिव्य ध्वनि साक्षात् सरस्वती रूप में अवतरित होकर गणधरों द्वारा ग्रहण की गई। तत्पश्चात एक लम्बी परम्परा उपलब्ध होती है जिसके माध्यम से विभिन्न विद्याओं—विषयों के साथ—साथ आयुर्वेद का ज्ञान भी सुरक्षित रखा गया। जैन धर्म के चौबीस तीर्थंकरों को यह ज्ञान अविच्छिन्न और यथावत् रूप में प्राप्त हुआ। इसका मूल कारण यह रहा कि सभी तीर्थंकर ‘केवल ज्ञान’ प्राप्त करने के कारण सर्वज्ञ थे और उनका समस्त विषयों का ज्ञान सम्पूर्ण अव्याहत एवं अविच्छिन्न था। अत: आदि तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव के मुख से प्रसूत वाग्देवी का स्वरूप अखण्डित एवं अविकृत रहना स्वाभाविक ही है। यहां पर एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि जिस प्रकार आदि तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव की वाणी भी विकीर्ण हुई और वह ‘दिव्य ध्वनि’ की संज्ञा दी गई उसी प्रकार अन्य तेइस तीर्थंकरों की वाणी विकीर्ण हुई और वह ‘दिव्यध्वनि में कहलाई संसार का ऐसा कोई विषय अवशिष्ट नहीं रहा जो उस दिव्य ध्वनि में समाविष्ट नहीं हुआ हो। प्रत्येक तीर्थंकर की दिव्यध्वनि पूर्व की भांति तत्कालीन गणधरों द्वारा धारण की गई। तत्पश्चात् श्रुत केवली द्वारा उसका उपदेश दिया गया जो अपेक्षाकृत अल्पांग ज्ञानी मुनियों द्वारा सुना गया और तत्पश्चात् उनके द्वारा तद् विषयक विभिन्न शास्त्रों ग्रंथों की रचना की गई। वर्तमान में धार्मिक ग्रन्थों के रूप में आचार शास्त्र के रूप में, नीतिशास्त्र, गणित शास्त्र, ज्योतिष, आयुर्वेद, व्याकरण आदि के रूप में तथा प्रथमानुयोग, करणानुयोग, द्रव्यानुयोग और चरणानुयोग के रूप में तथा इन चारों अनुयोगों के अन्तर्गत समाविष्ट समस्त ग्रंथों के रूप में जो भी वाङ्मय या साहित्य समुपलब्ध है वह सब जैन धर्म के अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर की देशना (दिव्य ध्वनि) से सम्बद्ध। तीर्थंकर महावीर की दिव्यध्वनि को धारण करने वाले उनके प्रधान गणधर गौतम इन्द्रभूति ने भगवान की देशना को धारण कर उसे द्वादशांग और चतुर्दश पूर्व रूप में प्रतिपादित किया था। द्वादशांग रूप वह सम्पूर्ण वाङ्मय द्वादशांग श्रुत कहलाता है और उस द्वादशांग श्रुत के पारगामी श्रुतकेवली कहलाते हैं।
श्रुत केवली द्वारा उपविष्ट अन्यान्य विषयों में आयुर्वेद भी समाविष्ट हैं
श्रुत केवली द्वारा उपविष्ट अन्यान्य विषयों में आयुर्वेद भी समाविष्ट हैं। अत: जिन वीतरागी मुनिजनों ने अन्य विषयों का उपदेश श्रुत केवली से ग्रहण किया उन्होंने अन्य विषयों के साथ आयुर्वेद का भी ज्ञान ग्रहण किया। उनमें से कुछ मुनिप्रवर ऐसे हुए जिन्होंनें अन्य विषयों के साथ—साथ आयुर्वेद विषय को भी अधिकृत कर स्वतंन्त्र ग्रंथ रचना की। इनमें से बहुत थोड़े से ग्रंथों का उल्लेख या जानकारी मिल पाई है। आयुर्वेद शास्त्र की परम्परा का उल्लेख श्री उग्रादित्याचार्य ने अपने ग्रंथ कल्याण कारक में इस प्रकार किया है— ‘‘जिस प्रकार अन्य तीर्थंकरों (आद्य तीर्थंकरों ऋषभदेव के पश्चात् अन्य अजितनाथ आदि महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थंकरों) द्वारा प्रतिपादित सिद्ध मार्ग से चला आया वह आयुर्वेद शास्त्र अत्यन्त विस्तृत, दोष रहित तथा गंभीर अर्थ से युक्त है। यह सम्पूर्ण आयुर्वेद शास्त्र तीर्थंकरों के मुखकमल से अपने आप उत्पन्न होने से स्वयम्भू और अनादिकाल से निरन्तर चला आने के कारण सनातन है। यह आयुर्वेद गोवर्धन भद्रबाहु आदि श्रुत केवलियों द्वारा उपविष्ट होने के कारण अन्य वीतरागी श्रुताभ्यासी मुनिजनों द्वारा साक्षात् रूप से सुना गया।’’ श्रुत ज्ञान की परम्परा से यह स्पष्ट हुआ है कि वर्तमान में जो भी श्रुत या आगम उपलब्ध है यह अंतिम श्रुत केवली भद्रबाहु द्वारा भणित है। वस्तुत: भगवान् जिनेन्द्र देव जो कुछ जानते हैं वह अनन्त होता है, जो कुछ कहते है वह उसका अनन्तवां भाग जिनवाणी होता है। इसके पश्चात् जो गणधर अन्य उसे ग्रहण करते हैं। वह उसका भी अनन्तवां भाग होता है। गधधरों से जो प्रति गणधर उनसे जो श्रुत केवली औरउनसे जो वीतरागी मुनि उनसे आचार्य आदि क्रमश: अनन्तवां भाग ग्रहण करते हैं। वस्तुत: श्रुत केवलियों तक अंगश्रुत अपने मूल रूप में आया।। उसके पश्चात् बुद्धिबल और धारणा शक्ति के उत्तरोत्तर क्षीण होते जाने से तथा बहुआयामी उस ज्ञान को ग्रंथ या पुस्तकाकार रूप में किए जाने की परम्परा नहीं होने से वह ज्ञान क्रमश: शनै: शनै: क्षीण होता चला गया। अन्य विद्याओं की भांति आयुर्वेद शास्त्र भी लोकहितार्थ तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित किया गया है। अत: यह भी धर्मशास्त्र आदि की भांति जिनागम है। जिनागम की अनवरत परम्परा के अनुसार तीर्थंकरों से गणधरों ने गणधरों से प्रति गणधरों ने, प्रतिगणधरों से श्रुत केवलियों ने श्रुत केवलियोंसे वीतरागी मुनियों ने ,वीतरागी मुनियों से अन्य आचार्यों आदि ने आयुर्वेद का ज्ञान उपदेश रूप से ग्रहण कर आद्यन्त जान लिया और तत्पश् चात् लोकहित की भावना से प्रेरित होकर उसे लिपिबद्ध कर ग्रंथ रूप प्रदान किया जिससे शास्त्र या ग्रंथ रूप में कुछ अंशों में ही वह सुरक्षित रह पाया। आयुर्वेद के अनेक ग्रंथ, जिनका उल्लेख विभिन्न आचार्यों ने किया है, काल कवलित होने से लुप्त प्राय: हो गए हैं। श्री उग्रादित्याचार्य अपने ग्रंथ ‘‘कल्याणकारक’’ में ऐसे अनेक मुनियों—आचार्यो द्वारा प्रणीत ग्रंथों का उल्लेख किया है। जिनके आधार पर उन्होंने अपने ग्रंथ‘ कल्याणकारक’ की रचना की। इस सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि उन्होंने कल्याणकारक में स्पष्टतया पूर्वक इस तथ्य को उद्घ्टित किया है कि ‘आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने आयुर्वेद विषय को अधिकृत कर किसी ग्रंथ की रचना की थी जिसमें विस्तारपूर्वक विषय का विवेचन था। अष्टांग संग्रह नामक ग्रंथ का अनुसरण करते हुए मैंने संक्षेप में इस कल्याणकारक ग्रंथ की रचना की है।’’ श्री उग्रादित्य के इस उल्लेख से यह असंदिग्ध रूप से प्रमाणित होता है कि उनके काल में श्री समन्तभद्र स्वामी द्वारा विरचित अष्टांग वैद्यक विषयक कोई महत्वपूर्ण ग्रंथ अवश्य ही विद्यमान एवं उपलब्ध रहा होगा। इसी प्रकार ज्ञान गाम्भीर्य और प्रखर पाण्डित्य धारी श्री पूज्यपाद स्वामी का आयुर्वेद ग्रंथ कर्तृव्य असंदिग्ध है। यद्यपि उनके द्वारा लिखित आयुर्वेदाधारित कोई ग्रंथ या रचना वर्तमान में उपलब्ध नहीं है, अत: कुछ विद्वान उनका आयुर्वेद ग्रंथ कर्तृव्य संदिग्ध मानते हैं। किन्तु ऐसे अनेक उद्धरण और प्रमाण उपलब्ध हैं जो उनके द्वारा आयुर्वेद के ग्रंथ की रचना किए जाने की पुष्टि करते हैं। आचार्य शुभचन्द्र ने अपने ग्रंथ ‘‘ज्ञानार्णव’’ में देवनन्दी (पूज्यपाद) को निम्न प्रकार से नमस्कार किया है:—अपाकुर्वन्ति यद्वाच: कायवाक् चित्तसम्भवम्। कलंकमग्निनां सोऽयं देवनन्दी नमस्यते।।जिनके वचन प्राणियों के काय, वाक् (वाणी) और चित्त (मन) में उत्पन्न दोषों को दूर कर देते हैं उन देवनन्दी को नमस्कार है। इसमें देवनन्दी (पूज्यपाद) के तीन ग्रंथोें का उल्लेख सन्निहित है । —काय (शरीर) के दोषों को दूर करने वाला वैद्यक शास्त्र, वाग्दोषों (वाणी या वचन के दोषों ) को दूर करने वाला व्याकरण ग्रंथ (जैनेन्द्र व्याकरण) और चित्त (मन) के दोषों को दूर करने वाला ग्रंथ—समाधि तंत्र। इनमें प्रथम वैद्यक ग्रंथ उपलब्ध नहीं है, जबकि शेष दोनों विषयों के दोनों ग्रंथ उपलब्ध हैं। अनेक विद्वानों ने इस तथ्य को स्वीकार किया है, इस तथ्य को स्वीकार किया है, कि उपर्युक्त श्लोक में ‘‘काय’’ शब्द से यह ध्वनित होता है कि पूज्यपाद स्वामी का कोई चिकित्सा ग्रंथ रहा है। इसके अतिरिक्त श्री उग्रादित्यचार्य ने अपने ग्रंथ कल्याणकारक की रचना में जिन आचार्यों, मुनिवरों के द्वारा रचित ग्रंथों को आधार बनाया हे उनमें श्री पूज्यपाद स्वामी द्वारा रचित शालाक्य तंत्र का भी उल्लेख है। गोम्मट देवमुनि ने भी पूज्यपाद द्वारा वैद्यामृत नामक ग्रंथ की रचना किए जाने का उल्लेख किया है। इसी प्रकार पाश्र्व पण्डित ने भी पूज्यपाद स्वामी द्वारा आयुर्वेद के ग्रंथ की रचना किए जाने का संकेत किया है। इस प्रकार इन उद्धरणोंसे यह सुस्पष्ट है कि श्री पूज्यपाद स्वामी द्वारा आयुर्वेदाधारित ग्रंथ या ग्रंथों का प्रणयन किया गया था जो उनके उत्तरवर्ती मुनियोें के दृष्टिगत थे। आयुर्वेदाधारित ग्रंथ निर्माण की यह परम्परा आग्र भी चलती रही और मुनियों आचार्यों ने आयुर्वेद को अधिकृत कर ग्रंथों की रचना की। जिस मुनि प्रवट या आचार्य ने आयुवेर्द के जिस विषय को अधिकृत कर जिस ग्रंथ विशेष का निर्माण किया उसका उल्लेख करते हुए श्री उग्रादित्याचार्य लिखते हैं— श्री पूज्यपाद स्वामी ने शालाक्य तंत्र और पात्र केसरी मुनि ने शल्य तंत्र की रचना की। प्रसिद्ध आचार्य सिद्धसेन के द्वारा अगद तंत्र एवं भूत विद्या, दशरथ मुनि के द्वारा काय चिकित्सा, मेधनादाचार्य के द्वारा बालरोगाधारित कौमार भृत्य और सिंहनाद मुनीन्द्र के द्वारा वाजीकरण एवं दिव्यामृत (रसायन) तंत्र का निर्माण किया गया। दु:ख का विषय है कि इनमेंसे कोई भी ग्रंथ आज विद्यमान नहीं है। किन्तु इन ग्रंथों का आधार लेकर जिस ग्रंथ की रचना की गई वह है ‘कल्याणकारक’ जो लगभग विक्रम एवं ईसा की ९ वीं शताब्दीं में लिखा गया। इसके बाद भी जैनाचार्यों द्वारा आयुर्वेद के ग्रंथ निर्माण का कार्य चलता रहा। इस प्रकार प्राणवाय (प्राणावाय) पूर्व की विकास यात्रा सुदीर्घ काल तक हमारे देश में चलती रही। प्राणावाय पूर्व (जैनायुर्वेद) की यह प्राचीन परम्परा मध्ययुग से पूर्व ही लुप्त हो चुकी थी। क्योंकि प्राणावाय पूर्व परम्परागत शास्त्रों—ग्रंथों के आधार पर अथवा उनके सार रूप में ईसवीय आठवीं शताब्दी के अन्त में दक्षिण भारत के आन्ध्रप्रदेश के प्राचीन चालुक्य राज्य में दिगम्बराचार्य श्री उग्रादित्य ने कल्याणकारक नामक ग्रंथ की रचना की थी। वर्तमान में यही एक मात्र ऐसा ग्रंथ उपलब्ध होता है जिसमें प्राणावाय पूर्व का अनुसरण करते हुए सम्पूर्ण अष्टांग आयुर्वेद का वर्णन विस्तार से किया गया है। इस ग्रंथ में मुनिप्रवर उग्रादित्यचार्य ने प्राणावाय पूर्व के आधार ग्रंथ की रचना करने वाले पूर्ववर्ती समन्तभद्र, पूज्यपाद स्वामी, प्रभृति आचार्यों और उनके द्वारा लिखित ग्रंथों का उल्लेख किया है। श्री उग्रादित्याचार्य के पश्चात् किसी अन्य आचार्य द्वारा प्राणावाय पूर्व पर आधारित सर्वांग पूर्ण ग्रंथ का विवरण या उल्लेख नही मिलता है।यद्यपि चौदहवीं शताब्दी के मुनि यश:कीर्ति द्वारा लिखित ‘जगत्’ सुन्दरी प्रयोग माला’ नामक ग्रंथ की जानकारी प्राप्त होती है।यह ग्रंथ अपभ्रंश संस्कृत मिश्रित भाषा में लिखा गया है। इसका उल्लेख स्व. श्री जगुलकिशोर मुख्तार ने अनेकान्त में किया है तथा इस पर कुछ प्रकाश डाला है। इसी प्रकार लगभग ई. सन् की १३६० के आसपास जैन कवि भंगराज के द्वारा लिखित ‘‘खगेन्द्र मणि दर्पण ’’ नामक ग्रंथ की जानकारी मिलती है। यह ग्रंथ स्थावर विष की चिकित्सा (अगदतंत्र) पर आधारित है। यह ग्रंथ कन्नड़ लिपी में लिखा गया है जिसे मद्रास विश्वविद्यालय द्वारा कन्नड़ सीरीज के अन्तर्गत प्रकाशित किया गया था। मध्ययुग में प्राणावाय पूर्व की परम्परा समाप्त हो गई थी। इसके कतिपय कारण थे। एक तो यह है कि प्राणावाय या आयुर्वेद का मुख्य विषय चिकित्सा शास्त्र था जिसे दिगम्बर जैन श्रुत परम्परा में लौकिक विद्या के रूप में स्वीकार या मान्य किया गया है। अपरिग्रह महाव्रत का पालन करने वाले दिगम्बर साधुओं के लिए इसे अपनाना या सीखना अभीष्ट नहीं था, क्योंकि उनके लिए लौकिक विद्याएं निष्प्रयोजन मानी जाती थीं। इसके अतिरिक्त भ्रमण शील होने के कारण वे सदैव एक स्थान से दूसरे स्थान पर विचरण करते रहते थे। श्रावक—श्राविकाओं की चिकित्सा करना उनके लिए निषिद्ध था, क्योंकि इसके लिए औषधि तथा अन्य साधन रखना अनिवार्य था जो परिग्रह का कारण बनते। मोह—राग आदि भी इससे उत्पन्न होता है और उनकी प्रवृत्ति आत्म हित चिन्तन की अपेक्षा पर हित चिन्तन की ओर उन्मुख हो जाती। अत: सांसारिक गतिविधियों की ओर उन्मुख करने वाली इस प्रकार की प्रवृत्ति उनके लिए हेय थी। संयमशील साधना पूर्ण—तप: पूत साधुओं का जीवन यापन अनुशासित होनेसे उनका शरीर प्राय: निरोगी होता हे और वे दीर्घायु होते हैं जिससे उन्हें औषधोपचार की आवश्यकता प्राय: नहीं होती है, तथापि, दैव वशात् कदाचित् अस्वस्थ होते हैं तो उपवासादि क्रियाओं से वे अनेक रोगों का शमन कर लेते हैं। ऐसा लगता है कि उत्तर भारत की दक्षिण भारत की अपेक्षा विशेषत: कर्नाटक में प्राणावाय पूर्व का प्रचलन अधिक था। क्योंकि दक्षिण भारत में आठवीं शताब्दी के प्राणावाय पूर्व के ग्रंथ अभी भी मिलते हैं, जबकि उत्तर भारत में प्राणावाय प्रतिपादक एक भी ग्रंथ प्राप्त नहीं होता है। इससे प्रतीत होता है कि उत्तर भारत में प्राणावाय पूर्व की परम्परा बहुत पहले ही समाप्त हो गई थी। आठवीं शताब्दी से तेरहवीं शताब्दी तक एक अन्तराल सा आ गया प्रतीत होता है। क्योंकि इस काल में किसी जैन आचार्य द्वारा प्राणावाय पूर्व अथवा जैनायुर्वेद विषय अथवा चिकित्सा पर आधारित किसी ग्रंथ की रचना किये जाने का कोई संदर्भ या संकेत अथवा प्रमाण नहीं मिलता है। ईसा की तेरहवीं शताब्दी से जैन श्रावकों और यति मुनियों के द्वारा रचित आयुर्वेद के ग्रंथों की जानकारी प्राप्त होती है। कतिपय ग्रंथ भी उपलब्ध होते हैं। किन्तु उन्हें प्राणावाय पूर्व की परम्परा के ग्रंथ कहना युक्ति संगत या समीचीन नहीं होगा, क्योंकि उनमें कहीं भी प्राणावाय के अनुसरणका कोई संकेत या प्रमाण नहीं मिलता है। तेरहवीं शताब्दी और उसके उत्तर काल में जैन श्रावकों और यति—मुनियों द्वारा आयुर्वेद जो भी ग्रंथ लिखे गये उनमें रोग—निदान, लक्षण चिकित्सा आदि का वर्णन आयुर्वेद के अन्य प्रचलित ग्रंथों की भांति ही है। उनमें से कुछ ग्रंथ मौलिक हैं और कुछ संकलनात्मक। कुछ टीका ग्रंथ भी है जो आयुर्वेद के प्राचीन ग्रंथों की टीका या व्याख्या रूप हैं। ये टीकायें संस्कृत अथवा तत्कालीन प्रचलित हिन्दी या देशी भाषा में हैं। कुछ ग्रंथ पद्यमय भाषानुवाद मात्र हैं। जैन यतियों द्वारा लिखित जो ग्रंथ वर्तमान में उपलब्ध हैं उनमें अधिकांश पद्यमय भाषानुवाद वाले ही हैं। जैन साधु परम्परा के अन्तर्गत दिगम्बर साधुओं में भट्टारकों और श्वेताम्बर साधुओं में यतियों का आविर्भाव होने के पश्चात् इस प्रकार के लोकोपयोगी साहित्य का सजृन हुआ। यतियों और भट्टारकों ने परम्परात्मक जैन साधुओं की चर्या के विरीत स्थान विशेष में अपना निवास बना कर जिन्हें उपाश्रय (उपासरे) कहा और वहां निवास करते हुए लोक समाज में चिकित्सा, तन्त्र—मंत्र (झाड़—फूक) तथा ज्योतिष विद्या के बल पर प्रतिष्ठा प्राप्त की । जैन साधुओं में ऐसी परम्परायें प्रारंभ होने के पीछे तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था, परिस्थितयां और कतिपय मान्यतायें कारण भूत थीं। इतर भारतीय समाज में भी नाथो, शावतों आदि का प्रभाव लौकिक विद्याओं—चिकित्सा, रसायन जादू टोना, झड़ा—फूकी, ज्योतिष, तंत्र—मंत्र के कारण विशेष रूप से बढ़ता जा रहा था। ऐसी स्थिति में समाज के सम्मुख अपनी प्रतिष्ठा और सम्मान को बनाये रखने के लिए लौकिक विद्याओं का आश्रय लेना आवश्यक था, ताकि उनका अनुसरण और प्रयोग कर श्रावक वर्ग तथा इतर लोगों में उनका सम्मान स्थान बना रहे। यद्यपि दिगम्बर परम्परायी भट्टारकों ने लौकिक विद्याओं विज्ञान का विशेष आश्रय नहीं लिया, किन्तु श्वेताम्बर परम्परानुयायी यतियों ने लौकिक विद्याओं का आश्रय विशेष रूप से लेकर उनका भरपूर उपयोग किया। यतियों ने अपने निवास हेतु जो उपासरे बनाये थे वहां श्रावकों के बच्चों को धार्मिक शिक्षा एवं धर्मोपदेश के अतिरिक्त लौकिक विद्याओं की भी शिक्षा दी जाती थी। साथ ही तंत्र—मंत्र, ज्योतिष, चिकित्सा आदि के द्वारा पीड़ित लोगों का उपचार भी किया जाता था जिससे उन उपाश्रयों और वहां रहने वाले यतियों पर लोगों की श्रद्धा एवं विश्वास सुदृढ़ हो जाता था। उन यातियों ने योग, बल और तंत्र—मंत्र की साधना कर अनेक सिद्धियां प्राप्त कर ली थीं तथा चिकित्सा और रसायन के अद्भुत चमत्कारों से जन सामान्य को चमत्कृत कर उन्होंने लोगों को आकर्षित करने और समाज में अपनी प्रतिष्ठा बनाने में भी उन्होंने सफलता प्राप्त की थी। भट्टारकों का प्रभाव दक्षिण भारत में विशेष रूप से था। उन्होंने आयुर्वेद की विशिष्ट चिकित्सा रसायन में विशेष दक्षता प्राप्त कर उसके माध्यम से समाज में न केवल अपनी प्रतिष्ठा स्थापित की अपितु अपने प्रभुत्व एवं आधिपत्य का भी विस्तार किया। पारद, गन्धक और खनिज द्रव्योें के योग, से निर्मित रसौषधियों के द्वारा विशेष रूप से की जाने वाली चिकित्सा के माध्यम से रोगों का रोग दूर करना तथा रोग एवं जरा से जर्जरित शरीर में शक्ति एवं स्पूर्ति का संचार करना रसायन चिकित्सा का मुख्य उद्देश्य है। अत: रसायन चिकित्सा के द्धारा उन्होंने जन सामान्य को प्रभावित एवं आकर्षित किया। रसौषधि, चिकित्सा के चिकित्सीय प्रयोगों को दक्षिण भारत के अन्य चिकित्सकों ने भी अपना कर वहां के जन सामान्य एवं समाज में अपना विशिष्ट स्थान बनाया और अपने वर्ग को सिद्ध सम्प्रदाय के रूप में स्थापित किया। कालान्तर में यह रस चिकित्सा सिद्धों और जैन भट्टारकों के माध्यम से उत्तर भारत में पहुंची। वहां इसका और अधिक विकास, विस्तार एवं प्रसार हुआ जिससे रसौषधि चिकित्सा संबंधी अनेक ग्रंथों की रचना हुई। इस प्रकार आठवीं शताब्दी तक प्राणावाय पूर्व की परम्परा एवं विकास में दिगम्बर जैन साधुओं एवं आचार्यों का योगदान उल्लेखनीय है तथा तेरहवीं शताब्दी के पश्चात् जैन भट्टारकों, जैन यति और मुनियों के द्वारा आयुर्वेदीय ग्रंथ निर्माण में किया गया योगदान भी उल्लेखनीय है। इसके द्वारा रचित ग्रंथोें मेंसे अनेक ग्रंथ आज भी राजस्थान, पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, आन्ध्र के हस्तलिखित ग्रंथागारों में भरे पड़े हैं। दुर्भाय से इसमें से अनेक ग्रंथ अप्रकाशित हैं और अनेक अज्ञात हैं तथा और अनेक काल कवलित हो चुके हैं।
टिप्पणी
२. देव! त्वमेव शरणं शरणागतानामस्माकमाकुलधियामिह कर्म भूमौ। शीततिताप हिम वृष्टि निपीडितानां कालक्रमात् कदशनाशनतत्पराणाम्।। नानाविधामयमेयादति दु:खिताना माहार भेषज निरूक्ति मजानतां न:—। तत्स्षास्थ्यरक्षणविधानमिहातुराणां का वा क्रिया कथयतामथ लोकनाथ।। (कल्याणकारक, श्लोक ५—६