‘प्राणायाम’ संस्कृत के दो शब्द ‘प्राण’ और ‘आयाम’ से मिलकर बना है। प्राण का अर्थ—जीवनी शक्ति (वायु) तथा आयाम का अर्थ है—विकास अथवा नियन्त्रण। प्राणायाम शब्द का अर्थ हुआ—जीवनी शक्ति को विकसित अथवा नियंत्रित करने की क्रिया। प्राणायाम की कुछ आवश्यक बाते हमें समझ लेनी चाहिए। हम नाक के बायें और दायें छिद्रों श्वासोच्छ्वास की क्रिया करते हैं। दाहिने नथुने का प्राण प्रवाह सूर्य नाड़ी और बायें नथुने का प्राण प्रवाह चन्द्र नाड़ी के द्वारा होता है। ये दोनों प्राण प्रवाह अन्दर आते ही मिलकर तीसरा प्राण प्रवाह बनाते हैं और जो दोनों नथुनों से प्रभावित होता है उसे सुषुम्ना नाड़ी कहते हैं। इन तीनों नाड़ियों का कार्य इस प्रकार है।
१. इडा या चन्द्र नाड़ी— यह ठण्डी नाड़ी है और शरीर के बायें भाग का नियन्त्रण करती है तथा विचारों को संतुलित रखती है। जब शरीर को ठण्डक की आवश्यकता होती है तो चन्द्र नाड़ी चलती है। इसको गंगा भी कहते हैं।
२. पिगला या सूर्य नाड़ी— यह शरीर के दायें भाग का नियन्त्रण करती है तथा शरीर को गर्मी देती है। यह प्राण शक्ति को नियंत्रित करती है। इसको यमुना भी कहते हैं।
३. सुषुम्ना नाड़ी — यह मध्य नाड़ी है न गरम न ठण्डी; परन्तु दोनों के सन्तुलन में सहायक है, प्रकाश तथा ज्ञान देती है। इसको सरस्वती भी कहते हैं। प्राणायाम का उद्देश्य इडा तथा पिगला में ठीक सन्तुलन स्थापित करके सुषुम्ना के द्वारा प्रकाश तथा ज्ञान प्राप्त कराकर आध्यात्मिक उन्नति करना है। इसके साथ तीन बन्ध भी होते हैं। जालन्धर बन्ध -ठोड़ी को हृदय से चार अंगुल ऊपर कण्ठकूप में लगाने से होता है।
उड्डियान बन्ध – श्वास को बाहर निकालकर पेट को अन्दर खींचना।
मूल बन्ध — गुदा के आकुंचन से होता है। प्राणायाम में श्वास की तीन क्रियाएँ होती हैं।
१. पूरक—श्वास को अन्दर लेना।
२. रेचक–श्वास को बाहर निकालना।
३. कुम्भक—श्वास को अन्दर या बाहर रोकना। श्वास को अन्दर रोकने को आन्तरिक कुम्भक व श्वास को बाहर रोकने को र्बिहर्कुम्भक कहते हैं।
प्राणायाम के प्रकार- नाड़ी शोधन, भ्रामरी, भस्त्रिका, कपालभाती, सूर्य भेदी, शीतली व शीतकारी आदि। भस्त्रिका व सूर्य भेदी, र्सिदयों में लाभदायक होते हैं तथा शीतली व शीतकारी ग्रीष्म ऋतु में लाभ देते हैं।
नाड़ी—शोधन प्राणायाम (अनुलोम—विलोम प्राणायाम)
विधि : सुखासन में बैठकर दायें हाथ के अंगूठे से दायीं नासिका बंद करें तथा अनामिका को बायीं नासिका पर रखें तथा तर्जनी व मध्यमा दोनों भौहों के बीच वाले स्थान पर रखें। अब दायीं नासिका बन्द कर बायीं नासिका से धीरे—धीरे जितना श्वास अन्दर की ओर खींच सकते हों खींचें। अब बायीं नासिका भी बन्द करें तथा कुछ क्षण आन्तरिक कुम्भक करें। अब दायीं नासिका से अंगूठे को हटा लें तथा उसी गति से श्वास बाहर निकालें। कुछ क्षण बहिर्कुम्भक करें। फिर दायीं नासिका से ही श्वास को लें, आन्तरिक कुम्भक करें तथा बायीं नासिका से श्वास बाहर निकाल दें। यह नाड़ी शोधन प्राणायाम एक बार हुआ। श्वास लेने और छोड़ने की लय एक जैसी हो। जब श्वास छोड़ें तो आपका श्वास एकदम से न निकलकर नियंत्रित होकर धीमी गति से बाहर निकले। इसे तीन चार बार प्रतिदिन करते हुए अभ्यास करें कि आप आन्तरिक कुम्भक अधिक देर तक कर सके। उतनी देर ही श्वास रोकना है जितनी देर रोकने से जब श्वास छोड़ा जाये तो छोड़ने की गति श्वास लेने की गति से धीमी हो। श्वास लेने, रोकने और छोड़ने के समय का अनुपात एक दो और दो का हो। धीरे—धीरे अभ्यास करके इसको एक, चार और दो का अनुपात कर सकते हैं। प्राणायाम में श्वास लेते समय मन की गतिविधियों का सूक्ष्म निरीक्षण करना चाहिए तथा बाहर निकालते समय रहना चाहिए। कुम्भक के समय प्राणों को ‘आज्ञा चक्र’ अर्थात् दोनों भौहों के बीच वाली जगह में एकाग्र करना चाहिए। इससे मानसिक शक्तियों का विकास तथा आत्मा में शांति और आनन्द की अनुभूति होती है।