जैन सिद्धांत में न्याय शास्त्र कसौटी के पत्थर सदृश हैं जिनके द्वारा सत्य असत्य की परीक्षा की जाती है। कसौटी के पत्थर पर कसा हुआ सुवर्ण शुद्ध कहलाता है उसी प्रकार इन न्याय शास्त्रों में सच्चे आप्त, सप्त प्रमाण एवं सत्य पदार्थों को तर्क की कसौटी पर कसकर शुद्ध माना जाता है। श्री समंत भद्र स्वामी ने आप्तमीमांसा स्तोत्र में आप्त की तर्क की कसौटी पर कस कर उन्हें सत्य मानकार नमस्कार किया है। अनेकों बड़े—बड़े ग्रन्थों में स्वामी श्री सिद्धसेन दिवाकर, स्वामी भट्टाकलंक देव, आ० माणिक्यनंदि एवं अस्टसहस्त्री के कर्ता आचार्य श्री विद्यानन्द आदि महान् महान् आचार्यों ने विशद रीति से आप्त—आप्ताभास आदि का वर्णन किया है । अष्टसहस्त्री, प्रमेयकमल— मार्तंड, श्लोकवार्तिक, न्यायकुमुदचन्द्रोदय, सिद्धिविनिश्चय, न्यायविनिश्चय आदि ग्रन्थों को सरलता से समझने के लिए श्री माणिक्यनंदि आचार्य का परीक्षामुख श्री धर्म भूषणयति विरचित न्यायदीपिका आदि लघु पुस्तके भी विद्यमान हैं। फिर भी आजकल प्राय: न्याय ग्रन्थ पढ़ने की रूचिकर और सरल हैं। अत: इन विशेष ग्रनथों में सरलता से प्रवेश कराने के लिए ही यह न्यायसार ग्रंथ लिखा गया है। इसमें पूर्वोचार्यों के द्वारा कथित प्रमाण आदि के लक्षण का संकलन किया जायेगा और अन्य मतावलम्बियों के क्या—क्या सिद्धाँत हैं उनका भी संक्षेप से दिग्दर्शन कराया जायेगा एवं आत्मा, सर्वज्ञ, प्रमाण और तत्वों के विषय में किन—किन की क्या—क्या मान्यतायें है? उनमें क्या क्या दूषण आते हैं ? न्याय की कसौटी से कसी गई शुद्ध वास्तविक व्यवस्था क्या है ? इस पर विचार किया जायेगा। सर्व प्रथम इसमें ग्रंथ का उद्देश्य, लक्षणनिर्देश और परीक्षा का लक्षण बतलाते हुए प्रमाण समीक्षा की जायेगी; जिसमें जैनाचार्यों द्वारा मान्य प्रमाणा का लक्षण, भेद—प्रभेद, विषय और फल बतलाते हुए अन्य मतावलम्बियों द्वारा मान्य प्रमाण के लक्षण आदि में दोष दिखलाते हुए प्रमाण की समीक्षा की जायेगी। अनन्तर दूसरे अधिकार में प्रमेय की समीक्षा करते हुए अन्य मतावलम्बियों द्वारा मान्य सिद्धांत, तत्त्व, आत्मा, ज्ञान, संसार, मोक्ष और इन दोनों के कारणों पर विचार करते हुए निर्दोष सर्वज्ञ कथित मान्यता स्पष्ट fकया जायेगा। इस ग्रंथ में चार्वाक, बौद्ध सांख्य, नैयायिक, वैशेषिक, मीमाँसक, वेदांती और वैयाकरण के मत की अधिक रूप से समीक्षा की जायेगी। अंत में स्याद्वाद शैली से वस्तु व्यवस्था को समझने का उल्लेख होगा क्योंकि स्याद्वाद शासन ही सार्वभौम शासन है। जैन सिद्धांत में जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये छह द्रव्य माने हैं एवं जीव, अजीव, आश्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्व होते हैं। इन सबको जानने का उपाय ‘प्रमाणनयैर—धगम:’ इस महाशास्त्र तत्त्वार्थ सूत्र के छठे सूत्र से कहा गया है। क्योंकि प्रमाण और नयों के द्वारा ही जीवादि तत्वों का यथार्थज्ञान होता है। किसी का भी वर्णन करने के लिए तीन बातों का प्रमुख आवश्यकता रहती है। उद्देश्य , लक्षणनिर्देश और परीक्षा।
उद्देश्य — विवेक्तव्यनाममात्रकथनमुद्देश: । (न्यायदीपिका पृ.५)कहने योग्य वस्तु के केवल नाम मात्र कथन को उद्देश्य कहते हैं। लक्षण निर्देश—व्यतिकीर्णवस्तुवृत्तिहेतुलक्षणं । (न्या. पृ. ६) मिली हुई अनेक वस्तुओं में से किसी एक वस्तु को अलग करने वाले हेतु को लक्षण कहते हैं। श्री अकलंक देव ने भी ऐसा ही कहा है—‘‘परस्परव्यतिकरे सति येनान्यत्वं लक्ष्यते तल्लक्षणं’’(तत्त्वार्थत. २—८) परम्पर मिली हुई वस्तुओं में किसी एक वस्तु को अलग करने वाले हेतु को लक्षण कहते हैं। परीक्षा— विरूद्ध नानायुक्ति— प्राबल्यदौर्बल्यावधारणाय प्रवर्तमानो विचार: परीक्षा। सा खल्वेवं चेदेवं स्यादेवं चेदेवं न स्यादित्येवं प्रवर्तते।(न्या.पृ.८) विरोधी नाना युक्तियों की प्रबलता और दुर्बलता का निर्णय करने के लिए प्रवृत्त हुये विचार को परीक्षा कहते हैं। वह परीक्षा ‘‘यदि ऐसा हो तो ऐसा होना चाहिए और यदि ऐसा नहीं होना चाहिए’’ इस प्रकार से प्रवृत्त होती है। इन तीनों में से अब यहाँ लक्षण के भेद कहते हैं लक्षण के दो भेद हैं — आत्मभूत और अनात्मभूत । आत्मभूत— यद्वस्तुवस्वरूपानुप्रविष्टं तदात्मभूतं यथाग्नेरौष्ण्यं।न्या. पृ.६। जो वस्तु के स्वरूप में मिला हुआ हो उसे आत्मभूत कहते हैं , जैसे— अग्नि की उष्णता ।यह उष्णता अग्नि का स्वरूप होती हुई अग्नि को जलादि से पृथक् कर देती है। इसलिये यह उष्णाता अग्नि का आत्मभूत लक्षण है। अनात्मभूत— तद्विपरीतमनात्मभूतं यथा दण्ड: पुरुषस्य । (न्या. पृ. ६) जो वस्तु के स्वरूप में मिला हुआ न हो उसे अनात्मभूत लक्षण कहते हैं जैसे दण्डी पुरूष का लक्षण दण्ड। ‘दण्डी को लाओ’ ऐसा कहने पर दण्ड पुरूष का स्वरूप न होता हुआ भी पुरूष को भिन्न पदार्थों से पृथक् कर देता है। इसलिये वह दण्ड पुरूष का अनात्मभूत लक्षण है। लक्षणाभास को बताते हैं। सदोष लक्षण को लक्षणाभास कहते हैं। उसके तीन भेद हैं— अव्याप्त , अतिव्याप्त और असंभवी। अव्याप्त— लक्ष्यैकदेशवृत्यव्याप्तम् । यथा गो: शावलेयत्वं। (न्या.पृ.७) जो लक्ष्य के एक देश में रहता है उसे अव्याप्त दोष कहते हैं। जैसे गो का लक्षण शावलेयत्व। शावलेयत्व—चितकबरा धर्म सभी गायों में नहीं पाया जाता है कुछ ही गायों में रहता है अत: अव्याप्त है। अतिव्याप्त— लक्ष्यालक्ष्यवृत्यतिव्याप्तं, यथा तस्यैस्व पशुत्वं। (न्या.पृ.७) जो लक्षण लक्ष्य और अलक्ष्य दोनों में रहता है उसे अतिव्याप्त कहते हैं जैसे गो का लक्षण पशु पना। यह पशुपना गाय के सिवाय अन्य अश्व आदि में भी पाया है। अत: अतिव्याप्त है। अतिसंभवि — बाधितलक्ष्यवृत्यसंभवि, यथा नरस्य विषाणित्वं। (न्या.पृ.७) जिसका लक्ष्य में रहना असंभव हो वह असम्भव है जैसे मनुष्य का लक्षण सींग। सींग किसी भी मनुष्य में नहीं पाया जाता है अत: यह असम्भविलक्षणाभास है। लक्षण किसे कहते हैं जिसका लक्षण किया जाता है वह लक्षय कहलाता है। जैसे जीव का लक्षण उपयोग है ऐसा कहने पर जीव तो लक्ष्य है और उसका उपयोग है जो कि अव्याप्त, अतिव्याप्त और असंभवी दोषों से रहित है। ‘प्रमाणनयैरधिगम:’ इस सूत्र से प्रमाण का उद्देश्य हो चुका है अब प्रमाण का लक्षण निर्देश करते हैं एवं प्रमाण की परीक्षा यथा अवसर होवेगी।