कांपिल्य नाम का एक प्रसिद्ध शहर था। वहाँ के राजा का नाम नरसिंह था। ये राजा बहुत ही धर्मात्मा और बुद्धिमान थे। सदा न्याय नीतिपूर्वक अपने राज्य का संचालन करते थे। इसलिये सारी प्रजा उनसे प्रसन्न रहती थी।राजा के मंत्री का नाम सुमति था। इनकी पत्नी का नाम धनश्री और पुत्र का कडारपिंग था। वह दुर्व्यसनी था।
इसी नगर में एक कुबेरदत्त सेठ रहते थे, ये बड़े ही धर्मात्मा थे, सतत देवपूजा, गुरूपास्ति आदि क्रियाओं में लगे रहते थे। इनकी पत्नी का नाम प्रियंगु सुन्दरी था। यह जैसे सौंदर्य में विशेष थी, वैसे ही पातिव्रत्य धर्म में और बुद्धि में भी बहुत ही विशेष थी।
एक दिन यह प्रियंगुसुन्दरी जिनमंदिर जा रही थी। उधर से कडारिंपग निकला। उस महिला के रूप को देखकर वह उन्मत्त हो उठा। वहीं पर कुछ क्षण के लिये स्तब्ध सा खड़ा रह गया। पुन: किसी से उसने पता लगाया कि यह महिला किसकी भार्या है। वह जैसे-तैसे अपने घर पहँुचा और प्रियंगुसुन्दरी को प्राप्त करने की चिंता में बेचैन हो गया। जब माता-पिता को विदित हुआ कि वह प्रियंगुसुन्दरी को प्राप्त कर सका तो ठीक, अन्यथा विष खाकर प्राण देने को तैयार है तो वे बहुत चिंतित हो उठे। लाखों उपायों से पुत्र को समझाने की चेष्टा की लेकिन सब कुछ शिक्षा व्यर्थ रही। तब बुद्धिमान सुमति मंत्री भी पुत्र के मोह में पड़कर उसे जीवित रखने की इच्छा से उसकी पाप-वासना को पूरी करने के लिये उपाय सोचने लगे। वे पुत्र की आशा पूरी करने के लिये कुछ षड्यंत्र बनाकर राजा के पास पहँुचे। कुछ इधर-उधर की बात होने के बाद मंत्री जी बोले-‘‘राजन्! रत्नद्वीप में एक िंकजल्क जाति के पक्षी होते हैं, वे जिस शहर में रहते हैं वहाँ महामारी, दुर्भिक्ष, रोग, अपमृत्यु आदि नहीं होते हैं तथा उस शहर पर शत्रुओं का चक्र नहीं चल पाता है और चोर वगैरह उसे किसी प्रकार से हानि नहीं पहँुचा सकते हैं।’’ तब महाराज ने पूछा-‘‘वे पक्षी अपने देश में लाये जा सकते हैं क्या?’’ मंत्री ने कहा-‘‘हाँ महाराज! उनके लाने का उपाय आपके लिये तो बहुत ही सरल है। अपने शहर में जो कुबेरदत्त सेठ हैं उनका आना-जाना प्राय: वहाँ हुआ करता है और वे हैं भी कार्यकुशल, इसलिये उन पक्षियों को लाने के लिये आप उन्हें आज्ञा दीजिये।’’
अपने मंत्री की इस विशेष बात को सुनकर राजा िंकजल्क पक्षी को देखने को अकुला उठे। भला ऐसी आश्चर्य उपजाने वाली बात सुनकर किसे ऐसी अपूर्व वस्तु की चाह नहीं होगी और इसीलिये राजा ने भी शीघ्र ही राजसभा में कुबेरदत्त सेठ को बुलवा लिया तथा उसे सारी बातें समझाकर रत्नद्वीप जाने के लिये आदेश दे दिया।
इस अभूतपूर्व बात को सुनकर बेचारे कुबेरदत्त सेठ विस्मय में पड़ गये। पुन: सरल भाव से उन्होंने राजा की आज्ञा शिरोधार्य कर ली और घर पहँुचे। अपनी प्रिया प्रियंगुसुन्दरी से सारी बातें सुना दीं। सुनते ही प्रियंगुसुन्दरी के मन में कुछ संदेह उत्पन्न हुआ। उसने कहा-‘‘स्वामिन्! जरूर कुल दाल में काला है। आप ठगे गये हो।
िंकजल्क पक्षी की बात बिल्कुल असम्भव है। भला कहीं पक्षियों का भी ऐसा प्रभाव हुआ करता है? तब क्या रत्नद्वीप में किसी को कोई कष्ट नहीं होता होगा? ये सब बातें बिल्कुल झूठ हैं। अपने राजा तो सरल-स्वभाव के हैं, सो जान पड़ता है कि वे भी किसी के कुचक्र में आ गये हैं। उस सुमति मंत्री का पुत्र कडारिंपग सप्तव्यसनों में पारंगत है। वह जब तब किसी-न किसी भद्र घराने की महिला के साथ व्यभिचार करके बदनामी उठा रहा है। एक दिन मैं मंदिर जा रही थी, उस समय वह रास्ता चलते हुए रुक गया था और बार-बार मेरी ओर निहार रहा था। उसकी पापभरी दृष्टि से पता चल रहा था कि इसके भाव गलत हैं। आप निश्चित ही विश्वास कीजिये। वह मंत्री अपने पुत्र की इच्छापूर्ति के हेतु ही आपको विदेश भेजना चाहता है, ऐसा मुझे प्रतीत हो रहा है।’’
पत्नी की इस प्रकार की सारी बातों को सुनकर कुबेरदत्त को भी जंच गया और वे कहने लगे-‘‘हो सकता है प्रिये! आपका अनुमान मुझे भी सच ही प्रतीत हो रहा है। अब अपने को कुछ ऐसी युक्ति निकालनी होगी कि जिससे राजा की आज्ञा का भी पालन हो जाये और आपके ऊपर किसी प्रकार की आपत्ति का प्रसंग न आये। प्रियंगुसुन्दरी ने कहा-‘‘सबसे बढ़िया उपाय यही है कि अब आप यहाँ से तो जहाज द्वारा रवाना हो जायें जिससे कि किसी को सन्देह न हो और रात होते ही जहाज को आगे जाने की आज्ञा देकर आप वापस लौट आइये। फिर देखिये कि क्या होता है? यदि मेरा अनुमान सत्य निकले तो फिर आपको जाने की कोई भी आवश्यकता नहीं है और यदि नहीं, तो फिर दस-पन्द्रह दिन बाद आप चले जाइएगा। कुबेरदत्त ने वैसा ही किया। जहाज को आगे भेजकर वापस आकर चुपचाप घर में छुपकर ठहर गया।
जब कडारिंपग को कुबेरदत्त के विदेश जाने का पता चला, तब उसकी प्रसन्नता का ठिकाना ही न रहा। वह पापी दुराचारी एक रात को भी निकलने को समर्थ नहीं हुआ अत: वह काम से अन्धा हुआ शीघ्र ही कुबेरदत्त के घर आ पहँुचा। इधर प्रियंगुसुन्दरी ने भी उसी दिन ही उसके स्वागत की पूरी तैयारी कर ली थी। उसने विष्ठागृह (पाखाना) के स्थान को स्वच्छ कराकर उसमें बिना निवार का एक पलंग बिछवाकर उस पर एक चादर डलवा दी थी। जैसे ही मंत्रीपुत्र कडारिंपग महोदय ऊपर पहँुचे, ाfप्रयंगुसुन्दरी ने भी मधुर मुस्कान द्वारा उसका स्वागत किया और संकेत करके उसी कमरे में लिवा ले गयी। पुन: नम्र निवेदन किया कि आप यहाँ विराजिये। कडारिंपग अपनी ऐसी आव-भगत देखकर मन ही मन फूल उठा और अपनी आशा की सफलता पर गद्गद हो शीघ्र ही उक्त पलंग पर बैठते ही बेचारा धड़ाम से नीचे विष्ठागृह में जा गिरा।
वहाँ की भीषण दुर्गन्धि ने उसकी नाक में प्रवेश किया। वह गन्दगी से लथपथ हो गया। एक क्षण तो वह समझ ही नहीं सका कि यह क्या हुआ? मैं यहाँ कहाँ आ गया हूँ? फिर कुछ क्षण बाद सारी स्थिति उसकी समझ में आ गई। वह अत्यर्थ आकुल-व्याकुल हो रहा था और सोच रहा था कि-‘‘अहो! पाप का फल मुझे तत्क्षण ही मिल गया है। अब मैं क्या करूँ? वैâसे इस नरक कूप से निकलूँ? क्या होगा?’’जैसे नारकी नरक में दु:ख उठाते हैं, वैसे ही वह दुराचारी वहाँ घृणित स्थान में पड़ा हुआ दु:ख उठा रहा था। इस तरह उसे वहाँ सड़ते हुए छह माह व्यतीत हो गये थे, तब तक कुबेरदत्त का जहाज भी रत््नाद्वीप से वापस आ गया।
जहाज का आना सुनते ही सारे शहर में शोर मच गया कि कुबेरदत्त सेठ िंकजल्क पक्षी लेकर आ गये हैं। इधर कुबेरदत्त ने रात में जहाज को रोक दिया और स्वयं कडारिंपग को विष्ठागृह से निकलवाकर उसे अनेकों प्रकार के पक्षियों के पंखों से खूब सजाया और उसका काला मुँह करके एक विचित्र ही जीव बना दिया। इसके बाद सेठ ने उसके हाथ-पैर बाँधकर उसे एक लोहे के िंपजड़े में बन्द कर उसे जहाज पर पहँुचा दिया। पुन: स्वयं भी रात में ही उस जहाज पर पहँुच गये। प्रात: बहुत से लोगों के साथ उस िंपजड़े को लेकर राजसभा में उपस्थित हो गये। उस समय वहाँ पर न जाने कितने लोग इस नये िंकजल्क पक्षी को देखने के लिये उपस्थित थे और चारों तरफ से जन-समुदाय का तांता लगा हुआ था। वहीं राजसभा में मंत्री सुमतिचन्द्र भी उपस्थित थे।
सेठ कुबेरदत्त ने राजा का यथोचित अभिवादन किया और उनकी आज्ञा के अनुसार उस िंपजड़े को खोलकर उस पक्षी को बाहर निकालकर वहाँ बिठा दिया। राजा, मंत्री और सारे लोग अतीव आश्चर्य को प्राप्त हुए उस विचित्र पक्षी को देख रहे थे। तब गौर से देखकर राजा ने कहा कि यह तो एक मनुष्य जैसा दिख रहा है। क्या बात है? कुबेरदत्त जी! कहिये क्या रहस्य है? तब कुबेरदत्त ने सारी घटना सुना दी। बेचारे मंत्री उस समय हैरान थे कि यह क्या हो गया? राजा को मंत्री के ऊपर बहुत ही गुस्सा आया और उन्होंने उसका भी मुँह काला कर गधे पर बिठाकर सारे शहर में घुमाया। कडारिंपग को अपने दुराचार का फल इसी भव में मिल गया और वह खोटे परिणामों से मरकर नरक में चला गया। शहर के समस्त स्त्री-पुरुषों ने उस पिता-पुत्र को धिक्कारते हुए कुशील पाप की महानिन्दा की तथा प्रियंगुसुन्दरी की खूब प्रशंसा की। राजा ने भी प्रियंगुसुन्दरी और कुबेरदत्त का खूब ही सम्मान किया। सचमुच में यह एक शीलव्रत सर्वव्रतों में सर्वोपरि है, ऐसा समझना चाहिये।