प्रेम का स्वरूप
प्रेम ईश्वर का स्वरूप है। यद्यपि समाज में इसके विविध रूप हैं, पर अपने सभी रूपों में यह आंतरिक ही होता है। बाह्य आकर्षण कभी प्रेम नहीं हो सकता। पति-पत्नी के बीच होने वाला निश्छल एवं निष्कपट प्रेम सदा सच्चे दांपत्य सुख को जन्म देता है, जो पूरे परिवार का मंगल करता है। दांपत्य प्रेम का उद्देश्य भोग न होकर योग है, जो प्रेम की उदात्त भावनाओं पर आधारित होता है। इसलिए इसमें वासना का स्पर्श भी नहीं होता। बस प्रेम ही प्रेम होता है, जो इसे सदा जीवंत बनाए रखता है। मृत्यु भी इसमें अवरोधक नहीं बनती। इसीलिए भारतीय संस्कृति में वैवाहिक बंधन एक जन्म का नहीं, जन्म जन्मांतर का होता है। भारतीय संस्कृतिं कभी भोगवादी नहीं रही। इसमें सदैव त्याग- समर्पण की प्रधानता रही है। वस्तुतः रिश्तों की उम्र का निर्धारक प्रेम है। भोग में वासना के अतिरिक्त कुछ नहीं होता, जो प्रेम को कभी उपजने नहीं देता। दांपत्य प्रेम एक साधना भी है। अद्वैतभाव के साथ पति-पत्नी इसके साधक हैं। अर्धनारीश्वर की संकल्पना का आधार यही है। यह सुख- दुखादि सभी अवस्थाओं में समान रहता है। समय का परिवर्तनशील स्वभाव भी इसे परिवर्तित नहीं कर पाता। वृद्धावस्था में भी इसके विलक्षण रस में कमी नहीं आती। ऐसा दांपत्य प्रेम किसी सौभाग्यशाली को ही प्राप्त होता है। पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से आज भोगवाद अपने चरम पर है। जिसमें सर्वाधिक प्रेम को ही छला गया है। दांपत्य जीवन पर भी इसका दुष्प्रभाव पड़ा है। भोगवाद के सम्मोहन में फंसकर कुछ युवा अपना अनमोल जीवन बर्बाद कर रहे हैं। उन्हें गुरुजनों की नसीहतें भी इस सम्मोहन से मुक्त नहीं कर पातीं। वस्तुतः प्रेम आकर्षण का नहीं समर्पण का विषय है। गुरुजनों की सहमति वैवाहिक बंधन को चिरंजीवी बनाती है। सुखद वैवाहिक जीवन के लिए प्रेम के इसी मर्यादित स्वरूप को समझने की आवश्यकता है।