संसार में अनादिकाल से प्रत्येक जीव के साथ कर्मों का संबंध चला आ रहा है। इसी कर्मबंध से हम और आप संसारी हैं। इन कर्मबंध के मूल कारण चार हैं एवं इनके भेद ५७ हैं। इन बंध के कारणों से छूट कर ही यह जीव अपनी आत्मा को परमात्मा बना लेता है अर्थात् सिद्धपद प्राप्त कर लेता है।इन बंध के कारणों से छूटने के लिये एवं जब तक संसार में रहें उत्तम गति की प्राप्ति के लिये ही यह व्रत करना है। यहाँ प्रत्यय का अर्थ कारण है।प्रथम बंध प्रत्यय मिथ्यात्व के ५ भेद हैं। द्वितीय अविरति के १२ भेद हैं। तृतीय कषाय के २५ भेद हैं एवं चतुर्थ प्रत्यय योग के १५ भेद हैं। ये ५ ± १२ ± २५ ± १५ · ५७ भेद हो जाते हैं।
व्रत की विधि—
इस व्रत को तिथि से करने में—पाँच मिथ्यात्व के निवारण में पंचमी के ५ व्रत, १२ अविरति के निवारण हेतु द्वादशी के १२ व्रत, तृतीय कषाय के निवारण हेतु अनंतानुबंधी आदि १६ कषायों के निवारण हेतु १६ प्रतिपदा के १६ व्रत तथा हास्य आदि नव नोकषायों के निवारण हेतु ९ नवमी के ९ व्रत, इसी प्रकार चतुर्थ प्रत्यय योग के निवारण हेतु १५ पूर्णिमा के १५ व्रत ऐसे तिथि से करना चाहिये। अथवा अष्टमी, चतुर्दशी आदि किन्हीं भी तिथि में यह ५७ व्रत किये जा सकते हैं।व्रत की उत्तम विधि में उपवास करके व्रत करना है। मध्यम विधि में अल्पाहार लेकर तथा जघन्य विधि में दिन में एक बार शुद्ध भोजन—एकाशन करके व्रत करना है। व्रत के दिन भगवान की प्रतिमा का अभिषेक करके ‘सिद्धपूजा’ करें। यह व्रत सभी मनोरथों को पूर्ण कर सांसारिक दु:खों से छुटाकर अनेक अभ्युदयों को देने वाला हैं एवं सम्यक्त्व को निर्मल बनाकर क्रम से अणुव्रत-महाव्रतों को प्राप्त कराने वाला है तथा परंपरा से आत्मा को सिद्ध परमात्मा बनाने में भी निमित्त है।
उद्यापन विधि—
व्रत को पूर्ण करके सिद्धचक्र विधान करें तथा किसी न किसी सिद्धक्षेत्र की वंदना अवश्य करें (सम्मेदशिखर पावापुरी, चंपापुरी आदि अथवा मांगीतुंगी, सोनागिरि आदि) किसी एक सिद्धक्षेत्र की वंदना करके यथाशक्ति कोई ग्रंथ छपाकर वितरित करें। मंदिर में यथायोग्य उपकरण आदि रखकर व्रत का उद्यापन पूर्ण करें। यह व्रत आप सभी के लिये इच्छित सुख प्रदान करे, यही मंगल भावना है।