बच्चों का सुखद भविष्य शिक्षा और माता – पिता का कर्तव्य
दौलत की भूख ऐसी लगी, कि कमाने निकल गये, जब दौलत मिली तो हाथ से रिश्ते निकल गये, बच्चों के साथ रहने की फुरसत ना मिल सकी, फुरसत मिली तो बच्चे कमाने निकल गये |परिवार मेँ बालक का जन्म सुख-दायक है ओर उसकी एक किलकारी घर को, बगीचे मेँ चहचहाने वाली चिडियाँ जैसा आनन्द देती है । जिस घर में बच्चे नहीं होते, वहाँ शांति तो रह सकती है पर किलकारियों का आनन्द नहीँ मिल पाता । घर मेँ जन्मा बच्चा भी घर को आनंदमय, स्वर्णमय बना देता हे । बालक परिवार की आत्मा है । वह समाज का मेरुदंड हे । आज के दौर मेँ बच्चों की बुद्धि इतनी प्रखर, तर्कयुक्त, वैज्ञानिक और इतनी विकासशील है कि पिछले पच्चीस सौ वर्षों मेँ जितना विकास हुआ होगा; उससे सौ गुना ज्यादा विकास वर्तमान पीढी के पास है । आज बारह वर्ष का बच्चा भी आपको सलाह देने मेँ समर्थ है । उसका मस्तिष्क कम्यूटराइज है, उसे तो जन्म से ही ऐसा वातावरण मिल जाता है कि अपने को चौदह वर्ष की आयु मेँ जान लेता है । समय बदल गया हे । हम अपनी वर्तमान पीढी पर गौरव कर सकते हे । वह बदले हुए जमाने के साथ कदम मिलाने में सक्षम है । विज्ञान ने बहुत तरक्की कि उसका प्रभाव हमेँ अपने जीवन मेँ दिखायी देता है पर मै आज बच्चों को एक बात के लिए सावधान कर रही हूं कि धन-दौलत, सुख-साधन तो बहुत बढ गये हैं लेकिन कुछ घट गया है तो वह हैं बच्चों के संस्कार जीवन की संस्कृति और मानवीय मूल्य । मकान तो बड़े होते जा रहे है लेकिन उसमें रहने वाले लोग बहुत छोटे हो गये हैं । बच्चों का वैज्ञानिक और भौतिक विकास तो बहुत हुआ है पर उनमें पारिवारिक मूल्य क्षीण हो गये है । अगर किसी बच्चे से यह कहें कि सुबह उठकर अपने माता-पिता के चरण-स्पर्श तथा जय-जिनेन्द्र किया करो तो उसे ऐसा करते हुये शर्म आयेगी, झिझक लगेगी । जीवन मेँ सबसे बडी भूमिका माता-पिता की है वे ही बच्चों के सर्जक है, वे ही पालनहार है और वे ही उद्धरक है । सिंर्फमां ही घर, परिवार की प्रथम गुरू कहलाती हे ।
भगवान तो घर घर मेँ है, हमारे अपने ही माता पिता के रूप मेँ हे । अपने माता-पिता की इज्जत करें । पहले घर से बाहर लिखा रहता था, अतिथी देवो भव! बाद में वक्त बदला लोग लिखने लगे स्वागतम् वेलकम और अब लिखा रहता है ” “कुत्ते” से सावधान! हमारे संस्कारों को क्या हो गया है । आज बच्चों और बुजुर्गों में जो वैचारिक और व्यवहारिक दूरियां आ गयी है, उन्हें दूर करना पहली आवश्यकता है । बुजुर्ग अतीत के उपसंहार है बच्चे वर्तमान की भूमिका है । बुजुर्ग अपने अनुभवों से, बच्चे के जीवन मेँ रौशनी घोले और बच्चे बुजुर्गों को घर का वट्वृक्ष समझकर उनकी छाया में खुद को पल्लवित करें । बच्चों को घर का गमला न बनाये कि एक दिन पानी न मिलने पर, वे सूख जाये । बच्चों को ऐसा पहाड़ी पौधा बनाये कि वे खुद अपने बलबूते पर अपने आप को खड़ा कर सके, आज अगर कोई बच्चा गलत निकल जाता है तो इसका मतलब है कि बच्चों के प्रति माता-पिता लापरवाह हैं ।
मां-बाप ने अच्छे संस्कार नहीं दिये लेकिन आज यदि मां-बाप ने अच्छे संस्कार भी दे दिये, बच्चा बड़ा होकर भी अपने सोच (गलत) के कारण उन संस्कारों से भटक जाता है । वह शादी के बाद सोचता है कि सिर्फ मैं, मेरी पत्मी, मेरे बच्चे बाकि सब भाड़ में जाये आज की हवा ही ऐसी हे । इसमें मां-बाप की क्या गलती होती है । कई बार बच्चों के साथ खुद को भी बच्चा बन कर रहना पड़ता है । बच्चे तो जहाजों की तरह होते है, जब तक वे किनारे पर रहते है हमेँ उनकी निगरानी करनी पड़ती है पर जब वे समुद्र मेँ उतर जाते हैँ, तो उन्हें खुद ही अपना ध्यान रखना पड़ता है । कहा जाता हे मां ‘बचपन’ को सुधारती है , महात्मा यौवन को सुधारता है और परमात्मा | वृद्धपन’ को सुधारते हैँ । बच्चे के लिए मां की भूमिका वह भूमिका होती है जैसे वृक्ष के लिये बीज, चलने के लिए जमीन और देखने के लिए आंखे। बच्चे के बनने, बिगड़ने में बच्चे के लायक और नालायक बनने मेँ, बच्चे के आसमान जितनी उंचाई और पाताल जितनी गहराई तक ले जाने में जितनी मां की भूमिका , मां का हाथ होता हे, उतनी भूमिका, उतना हाथ किसी और का नहीँ, क्योंकि कहा जाता है हजारों गुरू, जो शिक्षा एक बालक को नहीं दे सकते वही शिक्षा एक मां अपने बच्चे को दे सकती है । हजारों गुरू के बराबर एक मां होती है , मां की गोद ही बच्चे की शिक्षा होती है जो जीवन का बोध देती है । मां ही वह प्रथम पाठशाला होती है जहां बच्चा पुस्तकों की पढ़ाई नहीँ प्रेम की पढाई करता है । अपने बच्चों को आजादी दीजिये लेकिन इतनी भी नहीं कि आपका अकुंश न हरें । बच्चों को स्नेह दीजिये ।
जीवन मेँ अच्छी सन्तान, अच्छी पति, अच्छा मित्र ये तीनों बड़े नसीब से मिलते है । घर मेँ अच्छा माहौल दीजिये, एक दूसरे को आदर सम्मान दीजिये । आप अपने बच्चों को ऐसा आर्शीवाद दीजिये कि आपका आर्शीवाद उनकी प्रगति की कुंजी बन जाये । मैँ भी बच्चों से यही कहूंगी कि जो युवा हे, किशोर है, स्कूल या कालेज मेँ पढते हैं या नहीं पढ़ते हैं तो भी आप अपने लक्ष्य को निर्धारित रखें । ऊंचे लक्ष्य, ऊंचे सपने और कठोर परिश्रम करने का साहस होता है वे ही लोग भविष्य के हस्ताक्षर होते हैँ । बच्चों, तुम ऊंचे सपने देखों, ऊंचे लक्ष्य बनाओ, ऊंचे विचार रखों और उन्हें पूरा करने के लिए कठिन परिश्रम करो । आपकी सारी सफलता आपके परिश्रम पर टिकी है । अच्छा व्यवहार, अच्छी प्रस्तुति, अच्छी भाषा विनम्रता, लाइफमैनेजमेँट, कर्मठता, क्रियाशीलता, स्वास्थ्य, घर और परिवार के साथ सहभागिता और मिलनशीलता जैसे सारे बिन्दु है जो आपके व्यक्तित्व और आपके विचार को बनाते है और प्रभावित करते हैं । आप सदा हंसमुख रहे । आपकी ‘मुस्कान’ आपकी पहचान बने । आप वहीँ काम करे जिससे आपकी परिवार की मर्यादा बनी रहे । यहि आपके जीवन की बहुतत बडी पूंजी होगी । मेहनत करे । बडी लाइन को मिटा कर छोटी करने की कोशिश न करे, बल्कि अपनी लाइन बड़ी खींचे , यही जीवन की सार्थकता हे ।
श्रीमती संतोष जैन 102/117 ‘जय-पारस’, मानसरोवर, जयपुर